फाल्गुन अमावस्या व्रत
Phalguna Amavasya
फाल्गुन अमावस्या
श्री लिङ्ग महापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में 'सोमवर्णन' नामक छप्पनवाँ अध्याय में फाल्गुनी अमावस्या के महातम्य का वर्णन है। फाल्गुनी अमावस्या के दिन युग का प्रारम्भ होने से इस दिन पित्रादिकों का अपिण्ड श्राद्ध करना चाहिये। हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन माह अंतिम माह होता इस अंतिम अमावस्य के दौरान विशेष रुप से जप एवं तप करने की महत्ता को बताया गया है। पुत्र प्राप्ति के लिए पयोव्रत की शुरुआत इसी दिन होती है। श्री लिङ्ग महापुराण गया है कि फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को रुद्र, अग्नि और ब्राह्मणों का पूजन करके उन्हें उड़द, दही और पूरी आदि का नैवेद्य अर्पण करे और स्वयं भी उन्हीं पदार्थों का एक बार भोजन करे। यदि अमावास्या सोमवार, मंगलवार, गुरुवार या शनिवार को पड़े तो यह सूर्यग्रहण से भी अधिक फल देनेवाली होती है -
अमा सोमे शनौ भौमे गुरुवारे यदा भवेत्।
तत्पर्वं पुष्करं नाम सूर्यपर्वशताधिकम् ।।
श्री लिङ्ग महापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में 'सोमवर्णन' नामक छप्पनवाँ अध्याय में सूतजी के संवाद में चन्द्रमा का वर्णन आया है कि - चन्द्रमा वीथियों में स्थित नक्षत्रों में चलता है। उसके रथ को तीन पहियोंवाला तथा दोनों ओर घोड़ों से युक्त जानना चाहिये। यह सौ अरों (तीलियों) वाले तीन पहियोंसे युक्त है एवं श्वेतवर्णवाले, उत्तम, पुष्ट, दिव्य जुए से बिना नथे हुए और मन के समान वेगवाले दस घोड़ों से समन्वित है। श्वेत किरणोंवाले चन्द्रमा श्वेत रंगके अम्बुमय दस घोड़ों सहित देवताओं तथा पितरों के साथ इस रथ से चलते हैं ॥ १-३॥
सूर्य से दूर स्थित यह शुक्लपक्ष के आदिसे क्रमशः बढ़ता है। दिनके क्रम से यह निरन्तर शुक्लपक्ष से अन्त तक वृद्धि को प्राप्त होता है। सूर्य इस चन्द्रमा को विकसित करता है। देवतागण कृष्णपक्ष में इसको पीते हैं। देवताओं के द्वारा यह पन्द्रह दिन तक पीया जाता है। सूर्य अपनी सुषुम्ना नामक एक किरण के द्वारा क्रमशः इसके एक-एक भाग को पूर्ण करते हैं। इन सूर्य के तेजसे चन्द्रमा का शरीर विकसित होता है। ये पूर्णिमा तिथि को पूर्णमण्डल वाले होकर श्वेतवर्ण के दिखायी पड़ते हैं। इस शुक्लपक्ष में दिनके क्रम से चन्द्रमा बढ़ते रहते हैं ॥ ४-७॥
तत्पश्चात् कृष्णपक्ष की द्वितीया से प्रारम्भ करके चतुर्दशी तिथि तक देवता लोग चन्द्रमा के जलमय मधुर सुधामृत का पान करते हैं। वह अमृत सूर्य के तेज से आधे महीने तक चन्द्रमा में भरा रहता है। उस अमृत को पीने के लिये पूर्णिमा तिथि को पूरी रात सभी देवता पितरों तथा ऋषियोंके साथ चन्द्रमा के पास स्थित रहते हैं। कृष्णपक्ष के आदि से सूर्याभिमुख चन्द्रमा की पी जाती हुई कलाएँ क्रमशः क्षीण होती जाती हैं। वसु (8 ), रुद्र (11 ), आदित्य (12 ) तथा अश्विनीद्वय (2 )- ये तैंतीस देवता एवं इनके पुत्र-पौत्ररूप तैंतीस सौ तथा तैंतीस हजार देवता चन्द्रमा का पान करते हैं। इस प्रकार दिन के क्रम से देवताओं के द्वारा चन्द्रमा का पान किये जानेपर आधे महीने तक पान करके वे श्रेष्ठ देवता अमावास्या तिथि को चले जाते हैं, उसके बाद उसी अमावास्या तिथि को पितृगण चन्द्रमा के पास स्थित होते हैं और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तक बचे हुए अमृत का पान करते हैं। अन्तिम कला के रूपमें पन्द्रहवें भागके शेष रहने पर अपराह्म में पितृगण चन्द्रमा के पास आ जाते हैं और उसकी जो कला बची रहती है, उसका पान दो कलावाले समय (दो घड़ी) तक करते हैं। अमावास्या तिथि को किरणों से निकले हुए स्वधामृतको पीते हैं। इस प्रकार अमृत पीकर महीनेभर की तृप्ति प्राप्त करके वे चले जाते हैं। प्रत्येक पक्ष के आरम्भ में सोलहवें दिन चन्द्रमाको वृद्धि तथा क्षयका होना बताया गया है। इस प्रकार पक्ष में चन्द्रमा में होनेवाली यह वृद्धि सूर्य के कारण होती है ॥ ८-१८॥
फाल्गुन अमावस्या के दिन भगवान शिव की उपासना करने से अकाल मृत्य, भय, पीड़ा और रोग निवारण होता है। इस दिन पूजा करने से कठिनाईयों एवं उलझनों से छुटकारा प्राप्त होता है। इसी के साथ शनि देव की पूजा करनी चाहिए। इस दिन मंत्र जाप करना विशेष रुप से कल्याणकारी होता है। भगवान् विष्णु के नाम का भी जप करना और आराधना करना चाहिए।
अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत - फाल्गुन अमावस्या पर पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष दूर करने का उपाय
पितृ दोष मुक्ति के उपाय - पीपल के पेड़ की पूजा
फाल्गुन अमावस्या को पिपल के वृक्ष की प्रदक्षिणा (108 परिक्रमा) एवं पूजा करने का विधान है। शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत कहा गया है। इस दिन पीपल के पेड़ तले तेल का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए। पीपल के वक्ष की जड़ को दूध एवं जल से सिंचित करते हुए पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा करनी चाहिए और पेड़ के चारों ओर 108 बार धागा लपेट कर परिक्रमा पूर्ण करनी चाहिए। फिर भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए जनेऊ अर्पित करके घी का दीपक जला लें। पीपल की प्रदक्षिणा करने के बाद अपने सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा देना चाहिए। इन पूजा उपायों से पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष का बुरा प्रभाव समाप्त होता है तथा परिवार में शांति का आगमन होता है।
पितृदोष के दुष्प्रभाव को समाप्त करने के लिए उपला या कंडा का उपाय -
फाल्गुन अमावस्या के दिन दक्षिण दिशा की ओर उपला या कंडा जला लें और इसकी धूनी में केसर युक्त खीर धीरे-धीरे पका कर पित्रों को अर्पित करें। इसके साथ ही अपने पितरों का ध्यान करके माफी मांग लें। इससे पितृदोष के दुष्प्रभाव से मुक्ति मिलती है।
काल सर्प दोष के लिए भगवान् शिव की पूजा -
अगर आपकी कुंडली में कालसर्प दोष है, तो फाल्गुन अमावस्या के दिन भगवान शिव की विधिवत पूजा करें। इसके बाद तांबे या चांदी के नाग-नागिन का जोड़ा बनवाकर नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
शनि दोष दूर करने के लिए पीपल में कच्चा धागा का प्रयोग -
फाल्गुन अमावस्या के दिन अपनी लंबाई के बराबर कच्चा सूत नाप लें। इसके बाद इस सूत को पीपल के चारों ओर लपेट दें। ऐसा करने से शनि दोष का दुष्प्रभाव कम हो जाएगा और नौकरी-व्यापार में तरक्की होगी।
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