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होली एवं होलिका दहन धुलण्डी फगुआ काम-दहनम् अगजा

Holi and Holika Dahan Dhulandi Fagua Kam-Dahanam Agja

होली रंगोत्सव हमेशा से चैत प्रतिपदा को मानते हैं जो 26 मार्च 2024 को है।

होली एवं होलिका दहन धुलण्डी फगुआ काम-दहनम् अगजा Holi and Holika Dahan Dhulandi Fagua Kam-Dahanam Agja

होली धुलण्डी फगुआ एवं होलिका दहन काम-दहनम् अगजा 2024

Holi and Holika Dahan Dhulandi Fagua Kam-Dahanam Agja

होली

होली का उत्सव प्राचीन काल से मनाया जा रहा है, प्रह्लाद के जन्म से भी काफी पहले से। सनातन संस्कृति में इस दिन 'नवात्रेष्टि' यज्ञ भी सम्पन्न होता है। होली पर्व दो दिनों का होता है और इस पर्व को फगुआ, धूलंडी के नाम से भी जानते हैं। होली पर्व के पहले दिन को अगजा और होलिका दहन के नाम से जानते हैं जो आमतौर पर शाम के समय के बाद रात्रि में मुहूर्त अनुसार मानते हैं और दूसरे दिन को होली का मुख्य दिन (फगुआ, धूलंडी) माना जाता है जिसमें दिन में रंग और शाम में अबीर-गुलाल इत्यादि से खेला जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से होली पर्व की शुरुआत हो जाती है जो दो दिनों तक चलती है। फाल्गुन मास में इस पर्व को मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी के नाम से भी जाना जाता है।

होली 26 मार्च, 2024 को है। 25 मार्च को काशी में होली है। अन्यत्र जगह 25 मार्च को मर्याद रखकर 26 मार्च को होली मनेगा। 25 मार्च 2024 को चंद्र ग्रहण लग रहा है। और यह बात सर्व-विदित है कि चंद्र ग्रहण हमेशा पूर्णिमा के दिन लगता है और सूर्य ग्रहण हमेशा अमावस्या के दिन हीं लगता है। अत : जब 25 मार्च 2024 को चंद्र ग्रहण लग रहा है तो इस दिन फाल्गुन पूर्णिमा हुआ और सनातन परंपरा में होली रंगोत्सव हमेशा से चैत प्रतिपदा को मानते हैं जो 26 मार्च 2024 को है।

काशी में अलग दिन होली क्यों मानते हैं ? काशी में 25 मार्च 2024 होली क्यों है ?

काशी में होली चौसट्टी देवी यात्रा के दिन होली मनाई जाती है। यह धार्मिक मान्यताओं और परंपरा के अनुसार है। काशी में होलिका दहन के दूसरे दिन चौसट्टी देवी योगिनी यात्रा निकाली जाती है। इस बार यह यात्रा 25 मार्च 2024 को निकाली जाएगी। इसलिए 25 मार्च को ही काशी में होली मनाई जाएगी। जबकि बाकी जगहों पर 26 मार्च 2024 को होली मनाई जाएगी।

होलिका दहन मुहूर्त 2024 - होलिका दहन के लिए भद्रारहित शुभ मुहूर्त

होलिका दहन रविवार, 24 मार्च 2024 को है। इस दिन पूर्णिमा तिथि का प्रारम्भ सुबह 09:54 मिनट से शुरू होगा। पूर्णिमा तिथि 25 मार्च 2024 को दोपहर 12:29 मिनट समाप्त होगा। होलिका दहन के लिए भद्रारहित शुभ मुहूर्त रात्रि 11 बजकर 14 मिनट से शुरू होगी।

होलिका दहन (छोटी होली)

होलिका दहन फाल्गुन शुक्ल को होता है। होली पर्व से एक दिन पहले होलिका दहन का आयोजन किया जाता है। इस दिन लोग होलिका की पूजा भी करते हैं क्योंकि हिंदू पौराणिक कथाओं में यह माना जाता है कि होलिका पूजा सभी के घर में समृद्धि और धन लाती है। लोगों का मानना है कि होलिका पूजा करने के बाद वे सभी प्रकार के भय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इस दिन होलिका व्रत करने वाले होलिका दहन की ज्वाला देखकर भोजन करते है। यह उसी प्रकार है जैसे श्रावणी को ऋषिपूजन, विजयादशमी को देवीपूजन और दीपावली को लक्ष्मी- पूजन के पीछे व्रती भोजन करते हैं। दक्षिण भारत में होलिका दहन को काम-दहनम् के नाम से मनाया जाता है।

होलिका दहन का मुहूर्त विचार -

होलिका के दहन में पूर्वविद्धा प्रदोषव्यापिनी पूर्णिमा ली जाती है।
प्रदोषव्यापिनी प्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा। (नारद)

स्मृतिसार ग्रन्थ के अनुसार यदि पूर्णिमा दो दिन प्रदोषव्यापिनी हो तो दूसरी लेनी चाहिये।
िनद्वये प्रदोषे वेत् पूर्णा दाहः परेऽहनि।

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार यदि पहले दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा करके सूर्योदय होने से पहले होलिकादहन करना चाहिये।
दिनार्थात् परतो या स्यात् फाल्गुनी पूर्णिमा यदि।
रात्रौ भद्रावसाने तु होलिकां तत्र पूजयेत् ॥

ज्योतिर्निबन्ध एवं पृथ्वीचंद्रोदय ग्रन्थ के अनुसार यदि प्रदोष में भद्रा हो तो उसके मुख की घड़ी त्यागकर प्रदोष में दहन करना चाहिये।
पूर्णिमायाः पूर्वे भागे चतुर्थप्रहरस्य पञ्चष्टीमध्ये भद्राया मुले ज्ञेयम्।
तस्यां भद्रामुख त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।

स्मृत्यन्तर ग्रन्थ के अनुसार भद्रा में होलिका-दहन करने से जनसमूहका नाश होता है।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।

चन्द्रप्रकाश नमक ग्रन्थ के अनुसार प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन में, इनमें होली जलाना सर्वथा त्याज्य है। कुयोगवश यदि जला दी जाय तो वहाँ के राज्य, नगर और मनुष्य अद्भुत उत्पातों से एक ही वर्ष में हीन हो जाते है।
प्रतिपद्धतभद्रासु यार्चिता होलिका दिवा।
सेवलर्स तु तद्राई पुरै दहति सान्द्भुतम् ॥

मुहूर्तचिन्तामणी के अनुसार यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उत्तरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तो भी उसके पिछले भाग में होलिकादीपन कर देना चाहिये।
पूर्णिमायाः पूर्वे भागे तृतीयप्रहरस्य मठीत्रये भद्रायाः पुच्छे ज्ञेयम्।

ज्योतिष तत्त्व ग्रन्थ के अनुसार यदि पहले दिन रात्रिभर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समाय पूर्णिमा का उत्तरार्ध मौजूद भी हो तो भी उस समय यदि चन्द्रग्रहण हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देनी चाहिये।
दिवाभद्रा यदा रात्री रात्रिभद्रा यदा दिया।
सा भद्रा भद्रदा यस्माद् भद्रा कल्याणकारिणी ॥

स्मृतिकौस्तुभ ग्रन्थ के अनुसार यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उत्तरनेवाली हो, किंतु चन्द्रग्रहण हो तो उसके शुद्ध होने के पीछे स्नान करके होलिकादहन करना चाहिये।
ग्रहणशुद्धो 'स्वात्वा कर्माणि कुर्वीत शूतमने विसर्जयेत् ।

धर्मसार ग्रन्थ के अनुसार यदि फाल्गुन दो हों (मलमास हो) तो शुद्ध मास' (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका-दीपन करना चाहिये। स्मरण रहे कि जिन स्थानों में माघ शुक्ल पूर्णिमा को 'होलिकारोपण' का कृत्य किया जाता है, वह उसी दिन करना चाहिये; क्योंकि वह भी होली का ही अङ्ग है।
स्पष्टमासविशेषाख्याविहितं वर्जयेन्मले।

होलिकारोपण क्या होता है ?

होलिकारोपण में सनातनी समूह शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको गन्धादि से पूजकर नगर या गाँव से बाहर पश्चिम दिशा में आरोपित करके खड़ा कर देते हैं। आम तौर पर यह 'होली', 'होलीदंड' (होली का डाँडा) एवं 'प्रह्लादके नाम से जाना जाता है परंतु यह 'नवात्रेष्टि' का यज्ञस्तम्भ भी होता है।

नवात्रेष्टि यज्ञ में नए अधपके अन्न को अग्नि को दान किया जाता था और फिर उसी अन्न का प्रसाद ग्रहण कर उत्सव मनाया जाता था। यह परंपरा आज भी जीवित है। वैदिक ऋचाओं में कई जगह अन्न को 'होला' भी कहा गया है और इसी कारण उस उत्सव को 'होली' कहा जाता था | इस तरह होली का एक प्राचीन सूत्र मिट्टी, किसानी और नई उपज से जुड़ा हुआ है |

होलिकारोपण बिहार और झारखंड में होलिकादहन से दो दिन पूर्व में हो जाता है। बिहार के गया जिले के कोच नामक स्थान पर इस दिन गन्ने के रास से भरी हुई मटकी जमीन में गाड़ दी जाती है और होलिकादहन के पश्चात उस सिद्ध बचे रस को प्रसाद के रूप में बांटते हैं।

होलिका व्रत एवं होलिका व्रत का संकल्प -

होलिका व्रत करने वालों को फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः स्त्रानादि करने के पश्चात् निम्न संकल्प करें -
ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः । ॐ अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - (अपने नगर/गांव का नाम लें) - नगरे/ ग्रामे विक्रम संवत 2080 पिंगल नाम संवत्सरे फाल्गुन मासे शुक्ल पक्षे पूर्णिमा तिथौ ... वासरे (दिन का नाम जैसे रविवार है तो "रवि वासरे ")..(अपने गोत्र का नाम लें) ... गोत्रोत्पन्न ... (अपना नाम लें)... शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहम् मम बालकबालिकादिभिः सह सुखशान्तिप्राप्त्यर्थं होलिकाव्रते करिष्ये ।

अब संकल्प करके लकड़ी के खड्ग बनवाकर बच्चों को दें और उनको आनंद करने दें।

इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल के प्रोक्षण से शुद्ध करके उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे काँटे आदि भलीभाँति स्थापित करे। फिर शाम से समय सभी जन होलीके समीप जाकर शुभासन पर पूर्व या उत्तरमुख होकर बैठें और फिर संकल्प करें -
ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः । ॐ अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - (अपने नगर/गांव का नाम लें) - नगरे/ ग्रामे विक्रम संवत 2080 पिंगल नाम संवत्सरे फाल्गुन मासे शुक्ल पक्षे पूर्णिमा तिथौ ... वासरे (दिन का नाम जैसे रविवार है तो "रवि वासरे ")..(अपने गोत्र का नाम लें) ... गोत्रोत्पन्न ... (अपना नाम लें)... शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहम् मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य (पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा) सर्वापच्छान्तिपूर्वक- सकलशुभफलप्राप्त्यर्थं कुण्ढाप्रीतिकामनया होलिकापूजनं करिष्ये ।

होलिका पूजन मंत्र

इस संकल्प के पश्चात् होलिका प्रज्जवलित कराई जाती है और गन्ध-पुष्पादि से उसका पूजन करके निम्न मंत्र से तीन परिक्रमा या प्रार्थना करके अर्घ्य दें -
असुक्याभयसंत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव ।।

अगर उपरोक्त मंत्र पढ़ने में असुविधा हो तो ॐ होलिकायै नमः मंत्र का उच्चारण कर सकते हैं।

होलिका दहन की सही विधि

1. होलिका दहन वाले दिन शुभ मुहूर्त में होलिका के पास दक्षिण दिशा में एक कलश स्थापित कर दें। उसके बाद पंच देवताओं की पूजा करें।

2. उसके बाद होलिका का मंत्र जाप करते हुए पूजन करें। भक्त प्रह्लाद और भगवान हिरण्यकश्यप की भी पूजा करें। उसके बाद होलिका की 3 बार परिक्रमा करें और उसमें कच्चा सूत लपेट दें।

3. तत्पश्चात् घर से लाये हुए खेड़ा, खाँडा और वरकूलिया, बड़ी आदि तथा नारियल, जल और अन्य पूजा सामग्री होलिका को अर्पित कर दें।

4 . इसके बाद होलिका प्रज्जवलित की जाती है।

5. उसके बाद धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, होलिका की अग्नि में गेहूं, चना आदि की बालियां सेंकी जाती है जो 'नवात्रेष्टि' यज्ञ का अंग है।

6. इसके पश्चात होलीदण्ड (प्रह्लाद) या शास्त्रीय 'यज्ञ-स्तम्भ' को शीतल जल से अभिषिक्त करके उसे एकान्तमें रख दे।

7 . होली में जौ-गेहूँ की बाल और होलिका दहन के भस्म को लेकर घर आये। वहाँ आकर वासस्थानके प्राङ्गणमें गोबर से चौका लगाकर अन्त्रादि का स्थापन करे।
8. अब प्रसाद के रूप में होलिका की अग्नि में सेंके गए गेहूं, चना आदि तथा घर के में बने हुए पकवा सबको को दें।

8. इस अवसर पर काष्ठ के खड्‌गों को स्पर्श करके बालकगण हास्यसहित शब्द करें। इस प्रकार करने से ढुंढा के दोष शान्त हो जाते हैं और होली के उत्सव से व्यापक सुख-शान्ति होती है। राक्षसी ढुंढी की कथा इसी से जुडी हुई है।

 

होली रंगोत्सव - होलामहोत्सव -

यह होली के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होता है। आमतौर पर इस दिन को हीं होली के नाम से बुलाते हैं। अलग अलग जगहों पर इस दिन को धुरंडी, छारंडी, फाग या बोहराजयन्ती भी कहते हैं। नागरिक नर-नारी इसे रंग, गुलाल, गोष्ठी, परिहास और गायन-वादन से और देहाती लोग धूल-धमासा, जलक्रीडा और धमाल आदि से सम्पन्न करते हैं।

होली की कथा -

प्रह्लाद और होलिका की कथा

सतयुग में एक अति पराक्रमी दैत्य राजा था- हिरण्यकश्यप। हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष का भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध किया था। इस कारण हिरण्यकश्यप उन्हें दुश्मन मानता था। हिरण्यकश्यप का विवाह कयाधु से हुआ, जिससे उसे प्रह्लाद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। हिरण्यकश्यप ने मनचाहे वरदान के लिए ब्रह्मा की तपस्या शुरू की। इस दौरान देवताओं ने उसकी नगरी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना शासन स्थापित कर लिया। उस समय देवर्षि नारद मुनि ने कयाधु की रक्षा की और अपने आश्रम में स्थान दिया। वहीं पर हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का जन्म हुआ। देवर्षि नारद मुनि की संगत में रहने के कारण प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त बन गया। उधर, कई वर्षों तक तपस्या के बाद हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा ने दर्शन दिए। हिरण्यकश्यप ने वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु मनुष्य या पशु के हाथों न हो, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, ना दिन व रात में, ना भवन के बाहर और ना ही अंदर, न भूमि ना आकाश में हो मेरी मृत्यु हो। कुल मिलाकर, अपनी समझ में उसने अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। किंतु, इसके बाद वह निरंकुश हो गया। वह ऋषि-मुनियों की हत्या करवाने लगा और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। किंतु, स्वयं उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्ति में लीन रहता। यह बात हिरण्यकश्यप को पता चली तो वह गुस्से से फट पड़ा। बार-बार समझाने के बाद भी प्रह्लाद ने जिद नहीं छोड़ी तो उसने उसे मारने का फ़ैसला कर लिया।

हिरण्यकश्यप की एक बहन थी होलिका। होलिका को भी भगवान ब्रह्मा से एक वरदान मिला था। यह कि उसे अग्नि नहीं जला सकती। हिरण्यकश्यप ने होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, ताकि प्रह्लाद भाग न सके और वह उसी अग्नि में जलकर ख़ाक हो जाए। होलिका ने किया तो ऐसा ही, किंतु वह ख़ुद भस्म हो गई और प्रह्लाद बच गया। कहा जाता है कि होलिका के एक वस्त्र में न जलने की शक्तियां समाहित थीं, किंतु भगवान विष्णु की कृपा से चली तेज आंधी से वह वस्त्र होलिका से हटकर, प्रह्लाद के शरीर से लिपट गया था। होलिका के जलने और प्रह्लाद के बच जाने पर नगरवासियों ने उत्सव मनाया, जिसे छोटी होली के रूप में भी जानते हैं। इसके बाद जब यह बात फैली तो विष्णु भक्तों ने अगले दिन और भी भव्य तरीके से उत्सव मनाया। होलिका से जुड़ा होने के कारण आगे इस उत्सव का नाम ही होली पड़ गया। उधर, हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए उसे एक खंभे में बांध दिया। वह प्रह्लाद को मारने ही वाला था कि भगवान विष्णु खंभा फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकश्यप को उसके भवन की चौखट पर ले जाकर, संध्या के समय, अपने गोद में रखकर नाखूनों की सहायता से उसका वध कर दिया। इस तरह ब्रह्मा का वरदान भी नहीं टूटा और आततायी का अंत हो गया। भगवान को भक्त प्रह्लाद को उसका उत्तराधिकारी बना दिया।

शिव पार्वती और कामदेव की कथा

शिव और पार्वती से संबंधित एक कथा के अनुसार हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाये पर शिवजी अपनी तपस्या में लीन थे। कामदेव पार्वती की सहायता को आए। उन्होंने पुष्प बाण चलाया और भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिवजी को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का शरीर भस्म हो गया। फिर शिवजी ने पार्वती को देखा। पार्वती की आराधना सफल हुई और शिवजी ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इस कथा के आधार पर होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।

कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की। ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। यह दिन होली का दिन होता है। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रूप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है।

राक्षसी ढुंढी की कथा

द्वापर में युधिष्ठिर को प्रभु श्रीकृष्ण ने एक कहानी सुनाई। एक बार श्रीराम के पूर्वज राजा पृथु के समय के समय में ढुंढी नामक एक कुटिल राक्षसी थी। वह अबोध बालकों को खा जाती थी। अनेक प्रकार के जप-तप से उसने बहुत से देवताओं को प्रसन्न कर के उसने वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे कोई भी देवता, मानव, अस्त्र या शस्त्र नहीं मार सकेगा, ना ही उस पर सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई असर होगा। इस वरदान के बाद उसका अत्याचार बढ़ गया क्यों कि उसको मारना असंभव था। लेकिन शिव के एक शाप के कारण बच्चों की शरारतों से वह मुक्त नहीं थी। राजा पृथु ने ढुंढी के अत्याचारों से तंग आकर गुरु वशिष्ठ से उससे छुटकारा पाने का उपाय पूछा। गुरु वशिष्ठ ने कहा कि यदि फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब न अधिक सर्दी होगी और न गर्मी सब बच्चे एक एक लकड़ी लेकर अपने घर से निकलें। उसे एक जगह पर रखें और घास-फूस रखकर जला दें। ऊँचे स्वर में तालियाँ बजाते हुए मंत्र पढ़ें और अग्नि की प्रदक्षिणा करें। ज़ोर ज़ोर से हँसें, गाएँ, चिल्लाएँ और शोर करें। तो राक्षसी मर जाएगी। गुरु वशिष्ठ की सलाह का पालन किया गया और जब ढुंढी इतने सारे बच्चों को देखकर अग्नि के समीप आई तो बच्चों ने एक समूह बनाकर नगाड़े बजाते हुए ढुंढी को घेरा, धूल और कीचड़ फेंकते हुए उसको शोरगुल करते हुए नगर के बाहर खदेड़ दिया। कहते हैं कि इसी परंपरा का पालन करते हुए आज भी होली पर बच्चे शोरगुल और गाना बजाना करते हैं।

कंस और पूतना की कथा -

द्वापर युग में कंस मथुरा का राजा था। वह शासक बनकर प्रजा पर आत्याचार करने लगा। एक भविष्यवाणी द्वारा उसे पता चला कि उसकी बहन देवकी और वसुदेव का आठवाँ पुत्र उसके विनाश का कारण होगा। यह जानकर कंस व्याकुल हो उठा और उसने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में डाल दिया। कारागार में जन्म लेने वाले देवकी के सात पुत्रों को कंस ने मौत के घाट उतार दिया। आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ और उनके प्रताप से कारागार के द्वार खुल गए। वसुदेव रातों रात कृष्ण को गोकुल में नंद और यशोदा के घर पर रखकर उनकी नवजात कन्या को अपने साथ लेते आए। कंस ने जब इस कन्या को मारना चाहा तो वह अदृश्य हो गई और आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाले तो गोकुल में जन्म ले चुका है। कंस यह सुनकर डर गया और उसने उस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने की योजना बनाई। इसके लिए उसने अपने आधीन काम करने वाली पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया। वह सुंदर रूप बना सकती थी और महिलाओं में आसानी से घुलमिल जाती थी। उसका कार्य स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था। अनेक शिशु उसका शिकार हुए लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए और उन्होंने पूतना का वध कर दिया। यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध की खुशी में होली मनाई जाने लगी।

राधा और कृष्ण की कथा -

होली का त्योहार राधा और कृष्ण की पावन प्रेम कहानी से भी जुडा हुआ है। वसंत के सुंदर मौसम में एक दूसरे पर रंग डालना उनकी लीला का एक अंग माना गया है। मथुरा और वृन्दावन की होली राधा और कृष्ण के इसी रंग में डूबी हुई होती है। बरसाने और नंदगाँव की लठमार होली तो प्रसिद्ध है ही देश विदेश में श्रीकृष्ण के अन्य स्थलों पर भी होली की परंपरा है। यह भी माना गया है कि भक्ति में डूबे जिज्ञासुओं का रंग बाह्य रंगों से नहीं बल्कि के ईश्वर प्रेम के रंग से होता है। होली उत्सव पर होली जलाई जाती है अंहकार की, अहम् की, वैर द्वेष की, ईर्ष्या की, संशय की और पाया जाता है विशुद्ध प्रेम अपने आराध्य का।

अहिवात की रक्षा और पति प्रेम की वृद्धि के लिये गौरी व्रत -

व्रत विज्ञान पुस्तक के अनुसार गौरीव्रत चैत्र कृष्ण प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल द्वितीया तक किया जाता है। इसको विवाहिता और कुमारी दोनों प्रकार की स्त्रियाँ करती हैं। इसके लिये होलीकी भस्म और काली मिट्टी- इनके मिश्रण से गौरी की मूर्ति बनायी जाती है और प्रतिदिन प्रातः काल के समय समीप के पुष्पोद्यान से फल, पुष्प, दूर्वा और जलपूर्ण कलश लाकर उसको गीत- मन्त्रों से पूजती है। यह व्रत विशेषकर अहिवात की रक्षा और पति प्रेम की वृद्धि के निमित्त किया जाता है।

होलिका दहन के समय सुखी जीवन के लिए क्या करें और क्या न करें -

होलिका दहन के दिन ये गलतियां कभी नहीं करनी चाहिए :

1. होलिका दहन के दिन किसी को धन उधार देने से बचना चाहिए।

2.मान्यता है कि नवविवाहिता को होलिका दहन की अग्नि नहीं देखना चाहिए। ऐसा करना वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं माना जाता है।

3. होलिका दहन के लिए पीपल, बरगद के लकड़ियों को प्रयोग न करें।

4. होलिका दहन में आपको हरे पेड़ और पौधों का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे प्रयोगकर्ता का बुध ग्रह खराब होता है क्योंकि हरे पेड़-पौधों का स्वामी बुध माना जाता है। हरे पेड़-पौधों को जलाने से व्यक्ति को शोक और रोग दोनों ही झेलने पड़ते हैं।

होलिका दहन में क्या करें ?

1. इस दिन सुखी वैवाहिक जीवन के लिए राधा-कृष्ण की पूजा करन लेखा बेहद शुभ माना गया है।
2. होलिका दहन से पहले अग्निदेव की विधि-विधान से पूजा की जाती है।
3. होलिका दहन में गूलर, नीम या अरंड के पेड़ की सूखी लकड़ियों को जलाया जा सकता है।

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