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जीवित्पुत्रिका व्रत जितिया

Jivitputrika Vrat Jitiya

वर्ष 2024 में जीवित्पुत्रिका व्रत - 25 सितंबर को व्रत कर 26 सितंबर को सुर्योदय के बाद 6 बजकर 3 मिनट से पारण करे।

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जीवित्पुत्रिका - व्रत जितिया

वर्ष 2024 में जीवित्पुत्रिका व्रत - 25 सितंबर को व्रत कर 26 सितंबर को सुर्योदय के बाद 6 बजकर 3 मिनट से पारण करे। जितिया का व्रत अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। जीमूतवाहन के नाम पर ही जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पड़ा है। पुत्र की रक्षा के लिए किया जाने वाला व्रत जीवित्पुत्रिका या जितिया का विशेष महत्व है। इस दिन माताएं अपनी संतान की रक्षा और कुशलता के लिए निर्जला व्रत करती है। इसको लोग भविष्य और भविष्योत्तर की कथा भी कहते हैं।

वर्ष 2024 में जीवित्पुत्रिका व्रत सप्तमी विधा अष्टमी का त्याग करते हुए उदय कालीन अष्टमी में 25 सितंबर को जीवित्पुत्रिका व्रत शास्त्र सम्मत है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तमी युक्त अष्टमी करने पर सात जन्म तक बन्ध्या और बार-बार विधवा होना परता है। अतः 25 सितंबर को व्रत कर 26 सितंबर को सुर्योदय के बाद 6 बजकर 3 मिनट से पारण करे। 24 सितंबर को सप्तमी 5 बजकर 57 मिनट पर समाप्त हो रहा है और उसके बाद अष्टमी तिथि शुरू है। इस दिन सूर्यास्त 5 बजकर 59 मिनट पर है। । इसी लिए 25 सितंबर को जीवित्पुत्रिका व्रत शास्त्र सम्मत है (श्लोक 37 जीवित्पुत्रिका व्रत कथा देखें )।

तीज की तरह जितिया व्रत भी बिना आहार और निर्जला किया जाता है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नत के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन व्रत का पारण किया जाता है यानी व्रत खोला जाता है।

जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं। महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी।
उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।
उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना। तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के लिए हर साल जितिया व्रत रखने की परंपरा को निभाया जाता है।

जीवत्पुत्रिका - व्रत- निर्णय सम्पूर्ण कथा एवं विधान संस्कृत और हिंदी में

आश्विनकृष्णाष्टम्यां महालक्ष्मीव्रतम् । तत्र निर्णयामृते पुराणसमुच्चये च। श्रियोचनं भाद्रपदे सिताष्टमीं प्रारभ्य कन्यामगते च सूर्ये । समापयेत् तत्र तिथौ च यावत्सूर्यस्तु पूर्वार्द्धगतो युवत्या ॥ १ ॥ कन्यागतेऽर्के प्रारभ्य कर्तर्व्यं न श्रियोऽर्चनम्॥ हस्तप्रान्ते तदस्थेऽर्के तद्व्रतं न समापयेत् ॥ २ ॥ पूजनीया गृहस्थानामष्टमी प्रावृषि श्रियः ॥ दोषैश्चतुर्भिः संत्यक्ता सर्वसम्पत्करी तिथिः ॥ ३ ॥ तथा-पुत्रसौभाग्यराज्यायुर्नाशिनीसाप्रकीर्तिता ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन त्याज्या कन्याङ्गते रवौ ॥४॥ विशेषेण परित्याज्या नवमी दूषिता यदि ॥ इति ॥ दोषचतुष्ट्यं तत्रैवोक्तम्। त्रिदिने चावमे चैव ह्यष्टमीं नोपवासयेत् ॥ पुत्रहा नवमीविद्धा स्वघ्नी हस्तोर्ध्वगे रवौ ॥५॥ त्रिदिनावमदिनलक्षणं रत्नमालायाम्। यत्रैकः स्पृशति तिथिद्वयावसानं वारश्चेदवमदिनं तदुक्तमार्यैः । यः स्पर्शाद् भवति तिथित्रयस्य चाह्नां त्रिद्युस्पृक्कथितमिदं द्वयं च नेष्टम् ॥६॥ एते च सर्वे निषेधाः प्रथमारम्भविषयाः । मध्ये तु सति संभवेज्ञेयाः । व्रतस्य षोडशाब्दसाध्यत्वेन मध्ये त्यागायोगात् ॥ इयं चन्द्रोदयव्यापिनी ग्राह्या ॥ तत्रैव पूजाद्युक्तेः । परदिने चन्द्रोदयादूर्ध्वं त्रिमुहूर्तव्यापित्वे परैव कार्या। अन्यथा पूर्वैव। पूर्वा वा परिविद्धा वा ग्राह्या चन्द्रोदये सदा॥ त्रिमुहूर्तापि सा पूज्या परतश्चोर्ध्वगामिनी ॥७॥ मदनरले निर्णयामृते च । अर्धरात्रमतिक्रम्य वर्तते योत्तरातिथिः । तदा तस्यां तिथौ कार्यं महालक्ष्मीव्रतं सदा ॥८॥ इति वचनाच्चजीवत्पुत्रिकाया अति महालक्ष्मीव्रतत्वमतः स एवात्र निर्णयः । इति केषाञ्चिन्मतम्॥

व्रत विधानम्

प्रातः स्नानादिकं नित्यकर्म समाप्यैकाग्रचित्तः शुद्धदेशे स्थित्वा देशकालौ सङ्कीर्त्य स्वकृतमनोवाक्कायिकवा- चिकमानसिक-सांसर्गिकदुरितक्षयपूर्वकपतिपुत्रकुटुम्बायुः सौभाग्यसमृद्धिहेतवे जीवत्पुत्रिका व्रतोपवासं तत्पूजां च करिष्ये। सौवर्णेन राजतेन ताम्रेण सूत्रेण कार्पाससूत्रेण वा निर्मितां जीवत्पुत्रिकां तत्पार्श्वे कौशञ्जीमूतवाहन पीठे निधायाऽऽवाहयेत्। तत्र मन्त्राः । जीवत्पुत्रि समागच्छ गौरीरूपधरे ऽनघे ।। ईश्वरस्य प्रसादेन भाव सन्निहिता सदा ॥१॥ जीवत्पुत्रिके आवाहयामि स्थापयामि पूजयामि। एह्येहि नृपशार्दूल राजब्जीमूतवाहन।। कृपया मेऽत्र सान्निध्यं कल्पयस्व सदा प्रभो ॥२॥ जीमूतवाहन आवाहयामि। तत्रैव। चिल्हि स्वस्थानतः शीघ्रं समागच्छाऽत्र सुव्रते ।।। पूजार्थं कुरु सान्निध्यं पतिं पुत्रांश्च रक्ष मे ॥३॥ शिवे शिवकरे नित्यमागत्यात्र स्थिता भव॥ धनाधन्यसुतायूंषि वर्धयस्व सदा मम||४|| सौम्यपुत्रस्य प्राप्त्यर्थं स्वामिजीवनहेतवे ॥ पूजयामि महाभागे चिह्निके ते नमो नमः ॥५॥ रूपसम्पत्तिसौभाग्यवर्धनार्थ सदा मम । मया दत्तमिमां पूजां गृहाण परमेश्वरि ॥६॥ जीवत्पुत्रिकां जीमूतवाहनं । चिह्निकां च पूजयेत्। आवाहनम् आसनम्। पाद्यम्। अर्घ्यम्। आचमनम्। स्नानम्। वस्त्रम्। उपवीतम्। गन्धम् पुष्पम्। धूपम्। दीपम्। नैवेद्यम्। नमस्कारम्। प्रदक्षिणाम्। विसर्जनम्। इत्थं षोडशोपचारैर्यथा- लब्धोपचारैव तन्मन्त्रैः सम्पूज्य ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं दद्यात्। जीवत्पुत्रि महाभागे मम जीवन्तु पुत्रकाः ।। आयुर्वर्धय पुत्राणाम्पत्युश्च मम सर्वदा ॥७॥ नमस्ते नृप शार्दूल राजन् जीमूतवाहन। पतिपुत्रजनोत्कर्षं वर्धयस्व जनेश्वर ॥८॥ चिह्नि त्वं सर्वतः श्रेष्ठे मम पुत्रान् प्रजीवय ॥ तव प्रसादात्सर्वाश्च सुखसौभाग्यसंयुताः ॥९ ॥ इति सम्पूज्य हस्तेऽक्षतपुष्पाणि गृहीत्वा कथाश्रवणं कुर्यात् ।

प्रात:काल स्नानादि नित्य कर्म समाप्त करके शुद्ध स्थान में बैठ कर उपवास, व्रत और पूजन का संकल्प करे। सोने के या चाँदी के या ताँबे के या कपास के सूत में १६ गाँठ लगाकर जीवत्पुत्रिका को रखें, उसी के पास कुशा का जीमूतवाहन नाम के राजा की आकृति बनाकर पीढ़े पर रखकर आवाहन करे। सुपारी पर चिल्हिका का पूजन करे। तदनन्तर कथा का श्रवण करे।

जीवित्पुत्रिका-व्रत-कथा

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥ यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवैः, वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ २ ॥ एकदा मुनयः सर्वे नैमिषारण्यवासिनः । पप्रच्छुः कृपया सूतं लोकानां हितकाम्यया ॥३॥ भविष्यन्ति कथं सूत बालकाश्चिरजीविनः । दारुणेऽस्मिन्महाकाले सम्प्राप्ते तु कलौ युगे ॥४॥ सूत उवाच ॥५॥

अथ कथा - नर और नारायण को सरस्वती देवी तथा वेद व्यासजी को प्रणाम कर जय अर्थात् शास्त्रपुराण कहे ॥ १ ॥ जिस परमेश्वर की ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, महादेव और सब देवता लोग सुन्दर स्तोत्रों से स्तुति करते हैं और जिस परमेश्वर का शिक्षा, सूत्र, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छन्द इनके सहित वेदों द्वारा पद क्रम उपनिषदों द्वारा सामवेदी लोग गुणानुवाद गाते हैं और योगी लोग ध्यान करके मन से जिस परमेश्वर को देखते हैं और जिसके अन्त को देवता और असुरों ने भी नहीं जाना उस परमेश्वर को नमस्कार है ॥२॥ एक समय नैमिषारण्य के रहने वाले सब मुनि लोग संसार के ऊपर कृपा की इच्छा से सूतजी से पूछने लगे ॥ ३ ॥ इस भयंकर घोर कलियुग में बालक बहुत काल तक जीने वाले कैसे होंगे ॥४॥ सूतजी बोले ॥५॥

द्वापरस्य युगस्यान्ते प्रवृत्ते दारुणे कलौ । योषितो मन्त्रणां चक्रुःशोकोपहतचेतसः॥६॥ जीवत्याश्च कथं मातुरग्रे पुत्रो विनश्यति। इति निश्चित्य ताः सर्वाः प्रष्टुं जग्मुर्द्विजोत्तमम्॥७॥ गौतमं तु सुखासीनं महात्मानं रहः स्थितम् । ऊचुस्ताः पुरतः स्थित्वा विनयावनतकन्धराः ॥८॥ स्त्रिय ऊचुः ॥ ९ ॥

द्वापर के अन्त में जब कलियुग प्रवृत्त हुआ तब दुखिनी स्त्रियाँ विचार करने लगीं ॥६॥ कि माता जीती हैं उनके आगे लड़के नष्ट हो जाते हैं ऐसा निश्चय करके गौतम ऋषि के पास सब मिलकर गयीं ।। ७।। सुखपूर्वक महात्मा गौतम एकान्त में बैठे थे, उनके आगे स्त्रियाँ नम्रतापूर्वक खड़ी होकर कहने लगीं ॥८-९ ॥

प्रप्तेऽस्मिन्दारुणे काले कथं जीवन्ति पुत्रकाः । व्रतेन तपसा वापि वद निश्चित्य हे प्रभो ॥१०॥ इति तासां वचः श्रुत्वा कथयामास गौतमः। शृण्वन्तु योषितः सर्वाः मया पूर्वं यथा श्रुतम् ॥११॥ गौतम उवाच ॥ १२॥

इस भयंकर समय में किस व्रत से या तप से हम लोगों के लड़के जीवित रहेंगे ऐसा निश्चय करके हे प्रभो! आप कहिये ॥१०॥ ऐसा उन स्त्रियों का वचन सुनकर गौतमजी कहने लगे कि हे स्त्रियों! जैसा मैंने पहले सुना है वह आप लोग सुनो।११-१२।

निवृत्ते भारते युद्धे निर्विण्णे पाण्डुनन्दने। अथ द्रौणिहतान्पुत्रान् दृष्ट्वा द्रुपदनन्दिनी ॥१३॥ पुत्रशोकपरीताङ्गी स्वसखीगण सेविता । जगाम सा महाभागा धौम्यं ब्राह्मणसत्तमम्॥१४॥ द्रौपद्युवाच ॥ १५ ॥ केनोपायेन विप्रेन्द्र पुत्राः स्युश्चिरजीविनः । कथयस्व यथातथ्यं प्रसादाद् द्विजसत्तम्॥१६॥ धौम्य उवाच ॥ १७ ॥ वामाङ्गभक्षिते मांसे गरुडेनातितेजसा । अथासौ दक्षिण पार्श्व परिवृत्य ददौ नृपः ॥ २५ ॥ तद् दृष्ट्वा गरुडः प्राह देवयोनिषु को भवान्। न त्वं वीर मनुष्योऽसि वद जन्म स्वकं कुलम् ॥२६॥

युद्ध जब समाप्त हो गया, अश्व्थामा अपने पिता की मृत्यु केबदला लेने के लिए पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी।इससे युधिष्ठिरजी बहुत दुखी हुए। अश्व्थामा के इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया। जिसे निष्फल करना नामुमकिन था। उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना। तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं। एक दूसरी कथा यह है कि गन्धर्व राजकुमार जीमूतवाहन को उसके पिता राजगद्दी पर बैठाकर वन की ओर चले गए। राजकुमार का मन राजकाज में न लगा तो वो राजपाठ भाईयों के हवाले कर पिता की सेवा में वन चले गए। उसी वन में उनका विवाह मलयवती नामक कन्या से हुआ। एक दिन वन में घूमते हुए राजकुमार काफी आगे निकल गए जहां उन्होंने बूढी़ औरत का रोना सुनाई दिया उस औरत से पूछने पर उसने बताया कि वह नागवंश की स्त्री है उसका एक ही पुत्र है शंखचूड़। नागराज ने गरूड के समक्ष प्रतिज्ञा की है प्रत्येक दिन एक नाग सौंपा जाएगा और आज उसके पुत्र की बारी है। इस बात को सुन जीमूतवाहन ने उस स्त्री को कहा कि वह चिंतामुक्त रहे उसके पुत्र की जगह वह जाएगा। इतना कह वह लाल कपड़ा शंखचूड़ से लेकर गरूड की चुनी हुई जगह पर लेट गए। गरूड़ अपने नियत समय पर आकर अपने भोजन को पंजे में दबाकर चोटी पर बैठ गए राजा के शरीर के माँस को खाने लगे। २४|| बड़े तेजस्वी गरुड ने बाँया अंग जब खा लिया, तब पासा फेर कर राजा ने दाहिना अंग भी दे दिया ।। २५ ।। उसको देखकर गरुडजी ने पूछा कि देव योनियों में आप कौन हैं? हे वीर आप मनुष्य नहीं हैं, अपने जन्म और कुल को कहिए ॥ २६ ॥

अथोवाच स्वयं राजा व्यथयाऽकुलितेन्द्रिय। स्वेच्छया भुङ्क्ष्व पक्षीन्द्र वृथा ते प्रश्न ईदृशः ॥२७॥ तच्छ्रुत्वा गरुडो- वाक्यं निवृत्तश्च स्वयं प्रभुः । पप्रच्छ साऽऽग्रहं राज्ञो जन्म चापि कुलं तथा ॥ २८॥ राजोवाच॥२९॥ जननी मम शैव्यास्ति पिता मे शालिवाहनः । सूर्यवंशोद्भवश्चाहं राजा जीमूतवाहनः ॥३०॥

इसके बाद राजा स्वयं पीड़ा से घबराया हुआ बोला कि हे गरुड आप अपनी इच्छापूर्वक भोजन कीजिए, व्यर्थ के प्रश्नों से क्या मतलब ॥ २७ ॥ इस वाक्य को सुन कर गरुड ने उसे खाना छोड़ दिया, फिर आग्रह पूर्वक राजा के जन्म और कुल को पूछने लगा ॥२८॥ राजा बोला ॥ २९ ॥ मेरी माता रानी शैव्या हैं और पिता राजा शालिवाहन हैं। सूर्य वंश में उत्पन्न हुआ, मैं राजा जीमूतवाहन हूँ ॥३०॥

दृष्ट्वा दयालुतां राज्ञो गरुडः प्राह सत्वरम्। वरं ब्रूहि महाभाग यत्ते मनसि रोचते ॥३१॥ राजोवाच ॥३२॥ ददासि चेद्वरं मह्यं पतगेन्द्र वृणोमि ते। ये चात्र भक्षिताः पूर्वं ते जीवन्तु जनाः खलु ॥३३॥ पुननैवं जना भक्ष्याः प्रार्थनेयं मम प्रभो। चिरं जाता हि जीवन्तु तद्विधेयं त्वया सदा ॥३४॥ धौम्य उवाच ॥३५॥

इस दयालुता को देखकर राजा से गरुड़ जल्दी से बोला कि हे महाराज जो आपके मन में हो सो आप वर माँगिए॥३१॥ राजा बोला ॥ ३२॥ हे गरुड आप अगर मुझको वर देना चाहते हैं तो मैं माँगता हूँ, जिनको आपने पहले आहार बनाया है वे सब जी जाँय ॥ ३३ ॥ और फिर अब आप किसी जीव को न खायें ये ही मेरी प्रार्थना है और जो जीव उत्पन्न होते हैं वे बहुत काल तक जीयें ऐसा उपाय करिये ||३४|| धौम्यजी बोले ॥ ३५ ॥

सानन्दस्तद् वरं दत्त्वा पक्षीन्द्रो गरुडः स्वयम्। सुधार्थं नृपकामोऽसौ विवेश वसुधातले ॥३६॥ ततोऽमृतं समानीय सुववर्ष खगेश्वरः । मृतकानां शरीरेषु चास्थिराशिषु सर्वतः ॥३७॥ ततस्ते जीविताः सर्वे भक्षिता ये पुरा नराः । गरुडस्य प्रसादेन राज्ञो वै कृपया ततः॥३८॥ राजश्च द्विगुणं तत्र शुशुभे वपुरुत्तमम्। दृष्ट्वा दयालुतां राज्ञो बभाषे गरुडः पुनः ॥३९॥ अपरं च वरं दास्ये लोकानां हितकाम्यया । आश्विने बहुले पक्षे तिथिश्चाद्याष्टमी शुभा ॥४०॥

आनन्द के सहित वर देकर पक्षियों के राजा गरुड स्वयं राजा की इच्छा से अमृत लेने के लिए गये।। ३६ ॥ और अमृत लाकर पृथ्वी पर मृत शरीर और हड्डियों पर चारों तरफ से खूब बरसाया ॥३७॥ तब वे जो खाये गये मनुष्य थे वे सब गरुड की प्रसन्नता से और राजा की कृपा से जी गये ।। ३८ ।। राजा का शरीर पहले से दूना सुशोभित हुआ, राजा की दयालुता देखकर फिर गरुडजी बोले ॥ ३९ ॥ कि दूसरा वरदान लोक हित की इच्छा से मैं स्वयं देता हूँ, आश्विन मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी बड़ी शुभ है ॥ ४० ॥

सप्तमी रहिता चाद्य प्रजानां जीविता ह्यसि। अतोऽयं वासरो वत्स ब्रह्मभावं गमिष्यति ॥४१॥ दुर्गाया मूर्तिभेदेन ख्याता त्रैलोक्यपूजिता। अमृताहरणे वत्स स्मृता सा जीवपुत्रिका ॥ ४२ ॥ तन्तिथौ पूजयिष्यन्ति याः स्त्रियो जीवपुत्रिकाम्। त्वांच दर्भमयं कृत्वा श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ॥४३॥ तासां सौभाग्यवृद्धिश्च वंशवृद्धिश्च शाश्वती। भविष्यन्ति महाभाग नात्र कार्या विचारणा ॥४४॥ उपोष्य चाष्टमीं राजन् सप्तमीरहितां शिवाम् । यस्यामुदयते भानुः पारणं नवमी दिने ॥४५ ।। वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसहिताष्टमी। अन्यथा फलहानिः स्यात्सौभाग्यं नश्यति ध्रुवम् ॥४६॥

सप्तमी से रहित वह आज है और तुम प्रजाओं को जिलाने वाले हो इस कारण ये आज का दिन ज्ञानमय होगा ।।४१ ॥ श्री दुर्गाजी की मूर्ति का बहुत भेद है जो तीनों लोक में पूजनीय हैं, हे वत्स आज अमृत के लाने से इस अष्टमी का नाम जीव पुत्रिका हुआ और ये देवी हैं, दुर्गा हैं ॥ ४२ ॥ इस अष्टमी तिथि में जो स्त्रियाँ जीव पुत्रिका का पूजन करेंगी और कुशा से तुम्हारा रूप बनाकर श्रद्धा और भक्ति से पूजन करेंगी ॥ ४३ ॥ उनके सौभाग्य की वृद्धि और वंश की वृद्धि निरन्तर होगी, हे महाराज ! इसमें कोई संशय नहीं है । ४४॥ सप्तमी से रहित जो अष्टमी है उसमें उपवास करे जिसमें सूर्य नारायण उदय हों वही अष्टमी है और पारण नवमी के ॐ दिन करे ॥ ४५ ॥ सप्तमी के सहित अष्टमी नहीं करना चाहिए नहीं तो कोई फल नहीं होता और सौभाग्य भी निश्चय नष्ट ही हो जाता है ॥४६॥

एवं दत्वा वरं तस्मै ययौ हरिपुरं खगः । राजापि भार्यया सार्धं स्वपुरं वै जगाम सः ॥ ४७ ॥ इति ते कथितं देवि व्रतमेतत्सुदुर्लभम्। यद्व्रतस्य प्रभावेण पुत्राः स्युश्चिरजीविनः ॥ ४८ ॥ व्रतं कुरुष्व हे देवि पूजयस्व गिरीन्द्रजाम् । पूर्वोक्तेन विधानेन ततः फलमवाप्स्यसि ॥४९॥ मुनेस्तद्वचनं श्रुत्वा पाञ्चाली जातकौतुका। पुराङ्गना: समाहूय चकार व्रतमुत्तमम् ॥५०॥ गौतम उवाच ॥५१॥ श्रुत्वा वतं प्रभावञ्च चिल्ही काञ्चिच्छिवां सखीम्। कथयामास तत्सर्वं तया च स्वीकृतं व्रतम् ॥५२॥ प्लक्षशाखां समाश्रित्य चिल्ही व्रतपरा सती। तत्कोटरे स्थिता तत्र शिवा व्रतपरायणा ॥ ५३ ॥

इस प्रकार से गरुड़जी राजा को वरदान देकर विष्णुपुर बैकुण्ठ को चले गये। राजा भी अपनी स्त्री के | साथ अपने नगर को चला गया॥४७॥ हे देवि! ये बहुत दुर्लभ व्रत मैंने कहा जिस व्रत के प्रभाव से लड़के बहुत दिन तक जीवित रहते हैं। ४८॥ इस वास्ते हे देवि! इस व्रत को पूर्वोक्त विधि से करो और इसमें पार्वतीजी शैलपुत्री जो हैं उनका पूजन करो तब तुमको फल प्राप्त होगा ॥४९॥ मुनि के इस वचन को सुनकर द्रौपदी ने बहुत प्रसन्न होकर ग्राम की सब स्त्रियों को बुलाकर इस उत्तम व्रत को किया ॥५०॥ गौतम ऋषि बोले ॥५१॥ इस व्रत के प्रभाव को सुनकर चिल्ही ने किसी सुन्दर सखी सियारिन से कहा उसने भी इस व्रत को स्वीकार किया ॥५२॥ किसी पीपल की डाली की छाया में रहकर चिल्ही व्रत को करने लगी, उसी पीपल के खोढ़र में सियारिन भी व्रत करने लगी ॥५३॥

कुतश्चित्खलु सा चिल्ही कथां श्रुत्वा द्विजोत्तमात्। स्वसखीं कथयामास प्लक्षकोटरसंस्थिताम्॥५४॥ कथामर्धां शिवा श्रुत्वा क्षुधापीडितविग्रहा। विजगाम ततः शीघ्रं श्मशानं शवपूरितम् ॥५५॥ तत्र गत्वा च बुभुजे स्वेच्छया चामिषं शिवा। चिल्ही निरशनं कृत्वा स्थिता प्रातरभूत्तदा ॥५६॥

कहीं पर उत्तम ब्राह्मण से इस कथा को सुनकर चिल्ही ने अपनी सखी सियारिन जो कि खोदर में बैठी थी उससे कहा ॥ ५४॥ आधी कथा को सुनकर भूख से दुखी शरीर वाली सियारिन खोदर से निकल कर जल्दी से मुर्दों से भरे हुए मशान पर गई ॥५५॥ वहाँ जाकर अपनी इच्छा पूर्वक सियारिन ने मांस को खाया और चिल्ही ने निर्जल व्रत किया तब प्रातः काल हो गया॥५६॥

गोष्टं गत्वा तथा तत्र पीतं च सौरभं पयः । समाधाय कृतं तत्र पारणं नवमी दिने ॥ ५७ ॥ कियता चैव कालेन पञ्चत्वं च गते उभे । कौशलायां धनाढ्यस्य सार्थवाहस्य मन्दिरे ॥ ५८ ॥ संयोगाच्च तयोर्जन्म जातमेकत्र सद्मनि। ज्येष्ठा तत्र शिवा जाता चिल्ही सा तत्कनीयसी ।। ५९ ।।

गोशाला में जाकर सुगन्धि युक्त सुन्दर जल पिया वहीं पर स्वस्थ चित्त से नवमी के दिन नवमी में पारण किया ॥ ५७ ॥ कुछ ही दिनों के बाद दोनों ने अपने शरीर को छोड़ दिया। बाद में कोशलपुर में किसी धनी के घर ।। ५८ ।। संयोग से दोनों का एक ही घर में जन्म हुआ। बड़ी बहिन सियारिन हुई, छोटी बहिन चिल्ही हुई ।। ५९ ।।

सर्वलक्षणसंयुक्ता सा तु जातिस्मराऽभवत्। अग्रजा काशिनाथेन कनिष्ठा तस्य मन्त्रिणा ॥६०॥ विवाहिता विधानेन गार्हपत्याग्निसन्निधौ। पूर्वजन्मविपाकेन राजपत्नी मृगेक्षण॥६९॥ यं यं सुतं प्रसूते सा स स याति यमालयम् । जातिस्मरा मन्त्रिपत्नी पुत्रानष्टौ महात्मनः ॥६२॥

सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त उसको जाति का स्मरण रहा। बड़ी बहिन काशीराज ने ब्याही, छोटी बहिन को काशीराज के मंत्री ने ॥ ६० ॥ गार्हपत्य अग्नि के समीप में विधिपूर्वक ब्याह किया। पूर्व जन्म के फल से मृगनयनी रानी ने जो लड़का उत्पन्न किया वो सब यमराज के घर चले।

सुषुवे वसुमातेव वसूनऽष्टौ यथा किला । तान् दृष्ट्वा भगिनी प्राह राजपत्नी नृपाग्रतः ॥६३॥ ईर्ष्ययोवाच भो नाथ कुरुष्व वचनं मम । यथा येन गताः पुत्राः मदीयास्तेन योजय ॥ ६४ ॥ भगिन्याश्चापि वै पुत्रान्माञ्चेज्जीवितुमिच्छसि। तच्छ्रुत्वा तद्वचं राजा बहुधा विदधत्तदा ॥६५॥

जाति का स्मरण रखने वाली दीवानजी की स्त्री ने आठ पुत्र उत्पन्न किये। आठ वसुओं की माता की तरह उसको देखकर राजा की स्त्री राजा के आगे ॥६३॥ ईर्षा (अक्षमा) के साथ बोली- हे नाथ! मेरे वचन को आप पूर्ण करो और जिस रास्ते से मेरे लड़के यमराज के यहाँ गये। हैं, उसी रास्ते से अगर हमारा जीवन चाहते हो तो मेरी बहिन के भी लड़कों को पहुँचा दो। ये सुनकर राजा ने वैसा ही किया।।६४-६५।।

अथ ताञ्जीवयामास मृतान् सा जीवपुत्रिका । एकदा तु वने तेषां शिरःश्छेदं विधाय वै॥६६॥ वंशनिर्मितपात्रेषु प्रेषयामास तद् गृहम्। बभूवुस्ते च मूर्धानो नानारत्नादि तत्क्षणात् ॥६७॥ अक्षताश्च गताः सर्वे जीवितास्तत्सुताः पुनः । तानालोक्य गता सद्यो विस्मयं नृपवल्लभा ॥६८॥

इसके बाद जीवत्पुत्रिका ने उनको जिला दिया। एक समय वन में उनके सिर काटकर ।। ६६ ।। बांस की दौरी में रख कर उसके घर भेज दिया। वे सब सिर अनेकों रत्नों से युक्त हो गये॥६७॥ बिना चोट-फोट के सब जी गये। उन लड़कों को देखकर राजा की स्त्री बड़े आश्चर्य को प्राप्त हुई ॥ ६८ ॥

पप्रच्छागत्य भगिनीं कि व्रतं चरितं त्वया । येन जीवन्ति ते पुत्राः मृताश्चैव पुनः पुनः ॥ ६९ ॥ मन्त्रिभार्योवाच ॥७०॥ पूर्वजन्मनि जाताऽहं चिल्ही त्वञ्च श्रृगालिका । कुर्वन्त्या च व्रतं सम्यक् पालितं येन न त्वया ॥७१॥ तेन दोषेण भगिनि ते न जीवन्ति पुत्रकाः । ममाक्षतव्रतायाश्च जीवन्त्यक्षतविग्रहाः ॥७२॥

आकर के अपनी बहिन से पूछने लगी कि तुमने कौन-सा व्रत किया जिससे तुम्हारे लड़के बार-बार मर के भी जी जाते हैं॥ ६९॥ दीवानजी की स्त्री बोली ॥७०॥ पूर्वजन्म में मैं चिल्ही रही तू सियारिन रही। जीवत्पुत्रिका के व्रत को करती हुई तूने अच्छी तरह व्रत का पालन नहीं किया ।७१ ।। उसी दोष से हे बहिन तेरे लड़के नहीं जीते हैं। मेरा व्रत नष्ट नहीं हुआ था, इससे मेरे लड़के जीवित रहते हैं॥ ७२ ॥

इदानीं त्वं च राजेन्द्र वल्लभे व्रतमाचर । तद्व्रतस्य प्रभावेण पुत्रास्ते चिर जीविनः ॥७३॥ भविष्यन्ति महाभागे सत्यं सत्यं वदामि ते। सा तस्यास्तद्वचः श्रुत्वा चकार व्रतमुत्तमम् ॥७४॥ जीवपुत्रास्तदारभ्य तस्याः पुत्राः सुशोभनाः । पृथिव्यां बहुशो जाताः क्षितिपश्चिरजीविनः॥७५॥ सूत उवाच ॥७६॥ दिव्यं व्रतं समाख्यातं सर्वसौभग्यवर्धनम्। कुर्वन्तु विधिवन्नार्यः पुत्राणां जीवितेच्छया ॥७७॥ ॥ इति ॥

हे प्यारी ! अब तुम और राजा साहब इस व्रत को करो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पुत्र जीवित | रहेंगे ॥ ७३ ॥ हे भाग्यवती मैं सच कहती हूँ। उसके वचन को सुनकर उसने इस व्रत को किया ।। ७४ ।। उस दिन से राजा जीवत्पुत्र हुए। और उस स्त्री के लड़के बड़े सुन्दर हुए। इस पृथ्वी में वे लड़के राजा हुए, बहुत समय तक जीने वाले हुए ॥ ७५ ॥ सूतजी ऋषियों से बोले ॥७६॥ ये मैंने सुन्दर व्रत सम्पूर्ण सौभाग्य को बढ़ाने वाला। कहा है। पुत्रों के दीर्घ जीवन की इच्छा वाली स्त्रियाँ इस व्रत को करें ॥७७॥

॥ इति व्रत-कथा समाप्त ॥

जीवित्पुत्रिका व्रत या जितिया की आरती

ओम जय कश्यप नन्दन, प्रभु जय अदिति नन्दन।
त्रिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥
ओम जय कश्यप…
सप्त अश्वरथ राजित, एक चक्रधारी।
दु:खहारी, सुखकारी, मानस मलहारी॥
ओम जय कश्यप…
सुर मुनि भूसुर वन्दित, विमल विभवशाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरण माली॥
ओम जय कश्यप…
सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन, भव-बंधन भारी॥
ओम जय कश्यप…
कमल समूह विकासक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत अति, मनसिज संतापा॥
ओम जय कश्यप…
नेत्र व्याधि हर सुरवर, भू-पीड़ा हारी।
वृष्टि विमोचन संतत, परहित व्रतधारी॥
ओम जय कश्यप…
सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब, तत्वज्ञान दीजै॥
ओम जय कश्यप..

भगवान् जीवित्पुत्रिका व्रत पूर्ण करें

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जीवित्पुत्रिका व्रत जितिया Jivitputrika Vrat Jitiya