ज्येष्ठ पूर्णिमा चंद्र व्रत, दक्षिणात्य वट सावित्री व्रत एवं सूर्य का आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश
Jyeshtha Purnima Chandra Vrat and Sun's entry in Ardra Nakshatra
ज्येष्ठ पूर्णिमा चंद्र व्रत, दक्षिणात्य वट सावित्री व्रत एवं सूर्य का आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश
काशी पंचांग के अनुसार वर्ष 2024 में ज्येष्ठ पूर्णिमा चंद्र व्रत - 21 जून को मनाया जायेगा एवं पूर्णिमा स्नान दान - 22 जून को किया जायेगा। 21 जून को हीं दिन दक्षिणात्य वट सावित्री व्रत भी मनाया जायेगा।
सूर्य का आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश -
काशी पंचांग से वर्ष 2024 में भगवान सूर्यदेव 22 जून को सुबह 8 बजे आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश कर जाएंगे। 27 नक्षत्रों में आर्द्रा को जीवन दायिनी नक्षत्र कहा गया है। इससे धरती को नमी प्राप्त होती है। यह नक्षत्र आकाश मंडल में मणि के समान दिखाई देता है। कृषि कार्य के लिए यह नक्षत्र शुभ माना जाता है। व्यक्ति का सोया हुआ भाग्य भी जाग जाता है।
ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत शुभ मुहूर्त -
काशी पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ महीने की पूर्णिमा तिथि का आरंभ 21 जून को सुबह 6 बजकर 39 मिनट से होगी और 22 तारीख की सुबह 6 बजकर 19 मिनट तक रहेगी। ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन रात्रि में चंद्र पूजन का महत्व होता है इसलिए ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत 21 जून को ही रखा जाएगा। वहीं 22 जून को आप स्नान-दान कर सकते हैं। उदयातिथि की मान्यता के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा 22 जून को ही मनाई जाएगी।
स्नान-दान का मुहूर्त
वर्ष 2024 में ज्येष्ठ पूर्णिमा दो दिनों तक रहेगी इसलिए 21 और 22 दोनों ही दिन आप स्नान और दान का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। हालांकि व्रत के लिए 21 जून का ही दिन शुभ माना जाएगा। 21 तारीख सुबह के समय आप 6 बजकर 39 मिनट से स्नान कर सकते हैं, दान करने के लिए भी यह समय शुभ रहेगा। रात्रि में आपको चंद्रमा का पूजन इस दिन करना चाहिए। इस दिन चंद्रमा के साथ ही भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के निमित्त व्रत रखने और पूजा करने से आपको शुभ फल प्राप्त होते हैं। श्रद्धापूर्वक विष्णु-लक्ष्मी की पूजा करने से घर में समृद्धि आती है और धन से संबंधित मामलों में भी आपको सफलता मिलती है। 22 जून को दान आप किसी भी समय कर सकते हैं लेकिन स्नान सुबह 6 बजकर 19 मिनट तक हीं करना उत्तम माना जाएगा।
पूर्णिमा पूजा विधि :
पूर्णिमा पर विष्णु जी के साथ साथ माता लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करना चाहिए। इससे घर में धन और समृद्धि बढ़ती है। इस दिन मां लक्ष्मी को पीले और लाल रंग की सामग्री अर्पित करने से प्रसन्न होती हैं।
सामग्री लिस्ट -
पूर्णिमा पूजन के लिए रोली, अक्षत, चावल, फल, फूल, पंचामृत, सुपारी, तुलसी दल और तिल, पान का पत्ता समेत पूजा की सभी सामग्री एकत्रित कर लें।
पूजा विधि -
1. माघ पूर्णिमा के दिन सुबह पवित्र नदी में स्नान करें। अगर ऐसा संभव न हो, तो पानी में गंगाजल मिलाकर नहाएं।
2. स्नान के बाद पानी में काला तिल मिलाकर सूर्योदय को जल अर्पित करें।
3. इसके उपरांत विष्णुजी और मां लक्ष्मी की विधिवत पूजा करें और और इनके बीज मंत्रों का जाप करें। अंत में सभी देवी-देवताओं की आरती उतारें।
पूर्णिमा व्रत का महत्व
पूर्णिमा पर लक्ष्मी-नारायण व्रत करने का बहुत महत्व है। भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी सांसारिक दुखों का नाश होता है और सुखों की प्राप्ति होती है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने, व्रत एवं दान-पुण्य करने से पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। इस दौरान चंद्रमा से जुड़ी चीजों का दान करने से कई तरह के लाभ प्राप्त होते हैं। आप सफेद वस्त्र, शक्कर, चावल, दही या फिर चांदी का दान कर सकते हैं। माना जाता है कि इससे कुंडली में चंद्रमा की स्थिति मजबूत होती है और जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रदेव अपनी पूर्ण कला से युक्त होते हैं जिसका प्रभाव सीधे व्यक्ति के मन और शरीर पर पड़ता है। इस दिन चंद्र पूजन से व्यक्ति की मानसिक और आर्थिक स्थिति ठीक होती है क्योंकि ज्योतिष में चंद्रमा को द्रव्य और मन का कारक कहा गया है।
दक्षिणात्य वट सावित्री व्रत कथा -
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार अश्वपति नाम का एक राजा था, जिसकी केवल एक ही संतान थी। राजा अश्वपति की इकलौती संतान देवी सावित्री बहुत ही प्रभावशाली लड़की थीं। देवी सावित्री को राजा अश्वपति और महारानी ने बड़े ही प्यार और दुलार के साथ पाला था। फिर जब लाड़ों में पली बढ़ी सावित्री विवाह योग्य हुई, तब राजर्षि अश्वपति ने सावित्री से अपने लिए वर चुनने को कहा। पिता की आज्ञा का पालन कर सावित्री ने द्युमत्सेन के बेटे सत्यवान को अपने लिए बेहतरीन माना। हालांकि विवाह के मध्य ही नारद जी ने अश्वपति को सत्यवान के अल्पायु होने के बारे में बताया था। सत्यवान की आयु को लेकर श्री नारद मुनी ने बताया था कि, विवाह के एक साल बाद ही सत्यवान का मृत्यु को प्राप्त हो जाना निश्चित है। नारद मुनी की यह बात सुनकर राजर्षि अश्वपति भयभीत हो गए और बेटी सावित्री को दूसरा पति चुनने के लिए अनुरोध करने लगे, लेकिन बेटी सावित्री को पिता की बात मंजूर न थी। बेटी तक हट के आगे राजा अश्वपति की एक न चली और फिर उसके बाद ही निश्चित समय पर सावित्री का विवाह सत्यवान से विधिपूर्वक संपन्न हो गया। शादी के बाद सावित्री सत्यवान और उसके माता पिता के साथ जंगल में रहने लगी।
देवी सावित्री अपने पति सत्यवान की लंबी आयु के लिए रोज ही विधिवत तरीके से व्रत रखने लगी। लेकिन जब नारद मुनी की भविष्यवाणी के अनुसार, जब सत्यवान के जीवन का अंतिम दिन आया तो उस दिन सावित्री भी उनके साथ लकड़ी काटने वन गईं थी। लकड़ी काटने के लिए सत्यवान एक पेड़ पर चढ़ने लगे, तभी उनके सिर में तेज दर्द हुआ। दर्द के कराह कर सत्यवान पेड़ से नीचे उतरे और एक घनी छाया वाले बरगद के पेड़ के नीचे पत्नि सावित्री की गोद में लेट गए। पत्नि की गोद में लेटे लेटे ही सत्यवान ने अपने प्राण त्याग दिए। फिर उसके बाद सत्यवान के प्राण लेने के लिए यमराज का आगमन हुआ, जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे, तो सावित्री भी उन्हीं के साथ चलने लगी। यमराज ने देवी सावित्री को बहुत मना किया लेकिन सावित्री के प्यार और समर्पण के आगे यमराज की एक न चली।
सावित्री की जिद देखते हुए यमराज ने उनसे कोई भी तीन वरदान मांगने को कहा। यमराज द्वारा कही गई शर्त की ये बात सुनकर सावित्री ने 100 पुत्रों की माता बनने का अपनी कोख से जन्म देने का वरदान मांग लिया। लेकिन यमराज द्वारा दिया गया ये वरदान तभी पूरा होकर फलित हो पाता, जब यमराज उसके पति सत्यवान को ज़िंदा कर देते हैं। अब यमराज सावित्री को दिए गए अपने वचन से बंधे हुए थे, उसी वचन का मान रखते हुए उन्होंने सावित्री के पति सत्यवान के प्राण दोबारा लौटा दिए। प्राण लौटाने के बाद सत्यवान फिर से जीवित हो उठे, तभी से सभी सुहागन महिलाएं हर साल ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ये सिद्ध व्रत रखती हैं, ताकि उनके भी पति की आयु लंबी हो और उन्हें सुखी दांपत्य जीवन का आशीर्वाद प्राप्त हो।
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