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स्पिनोज का ईश्वरीय सिद्धांत स्पेन्सर का आर्थिक-सामाजिक सिद्धांत अरस्तु का आदर्श राज्य सिद्धांत प्लेटो का सामाजिक एवं आर्थिक न्याय सिद्धांत पिथागोरस के 'जन्मन्चक्र' सिद्धांत हलवांश का ईश्वरीय और प्राकृतिक सिद्धांत

पश्चिमी दार्शनिकों का धार्मिक एवं राजनीतिक दर्शन

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

फ्रांसीसी भौतिकवाद में दुख का मूल प्रकृति अज्ञान है। प्रकृति के विषय में सही ज्ञान न होना है। प्रकृति का ठीक ठीक ज्ञान विस्तृत दृष्टि प्रदान कर रूढ़िवाद का अंत करता है। यह सिखाता है कि सत्य एक ही है और यह सुखस्वरूप है। भ्रमवश पुरोहितों एवं राष्ट्रों ने जाति का बनाया है।

स्पिनोज का ईश्वरीय सिद्धांत

स्पिनोज (1632 ई. - 1677ई.) का मत था कि आध्यात्मिक मानसिक एवं भौतिक ऐश्वर्य आदि सभी भाव प्रकृति में ही समाहित हो जाते हैं। और इस प्रकार ईश्वर अथवा प्रकृति एक हीं हैं। सम्पूर्ण हीं ईश्वर है, ईश्वर हीं सम्पूर्ण है। घटनाओं का ऐक्य केवल उनके अस्तित्व मात्र का है। अत: किसी न किसी स्व-आत्मनिर्भर की सत्ता मानना आवश्यक है । इस प्रकार मूल पदार्थ का वैविध्य नहीं रह जाता। पूर्ण अनंत ईश्वर अथवा पूर्ण अनंत प्रकृति से बहिर्भूत (बाहरी तत्व से विकसित) अन्य कुछ नहीं रह जाता। ईश्वर ही सम्पूर्ण है। सम्पूर्ण जगत ईश्वर से अभिन्न है। पर जगत के बिना भी वह ईश्वर रहता है। प्रकृति और ईश्वर स्वतंत्र एवं चैतन्य है। प्रकृति अचेतन अवस्था में भी जाग्रत है।

हलवांश का ईश्वरीय और प्राकृतिक सिद्धांत

18वीं शताब्दी का पश्चिमी दार्शनिक हलवांश का मत था कि वासनाओं का दमन अनावश्यक है। क्यूंकि यह स्वाभाविक दैहिक मांग है। यह जन्म से साथ उत्पन्न होता है। उसका कहना था कि मनुष्य मात्र सुख चाहता है। दुख से घबराता है। इसीलिए सुख-साधन भले दुख-साधन बुरे हैं। उसने कहा है कि प्रकृति मनुष्य को बुरा नहीं बनाती। इसके लिए सामाजिक व्यवस्था हीं जिम्मेदार है। समाज के लिए न्याय-अन्याय की धारणा वह अन्य पश्चिमी विद्वान वाल्टेयर की तरह ही अनिवार्य मानता था। परंतु इसके लिए वह मानता था ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।

पर हलवांश इस व्यवहारिक सत्य को नहीं समझ पाया कि ईश्वर के बिना मनुष्य न्याय, संयम एवं उपकार के लिए प्रेरित नहीं हो सकता।

पिथागोरस के 'जन्मन्चक्र' सिद्धांत

पिथागोरस के मत से समस्त प्राणियों की आत्मा समान है। तथा 'जन्मचक्र' में एक मनुष्य की आत्मा अगले या पिछले जन्म में कुत्ते, हाथी या अन्य किसी जन्तु के देह में हो सकती है। 'जन्मन्चक्र' से मुक्ति पाने के लिए साधना और संस्कार अपेक्षित है। साथ ही ज्ञान की महत्ता सर्वाधिक है।

प्लेटो का सामाजिक एवं आर्थिक न्याय सिद्धांत

प्लेटो (अफलातून) के अनुसार लोग पतनशील हैं। उसके अनुसार शरीर की तीन विशेषताएं हैं, ज्ञान (स्वर्ण), मान (चांदी ) तथा वासना (लोहा )। उसने वासना को पाप न मानकर तृतीय स्तर पर रखा। वह स्त्री-पुरुष के स्थायी समागम को लोलुपता बढ़ाने का कारण मानता था। वह साम्यवादी व्यवस्था में बालकों के देखरेख का दायित्व राज्य का मानता था।
प्लेटो सामाजिक एवं आर्थिक न्याय को मानता था। उसके अनुसार व्यक्ति योग्यतानुसार कार्य करे और वह वस्तु ले जिसे वह लेने के योग्य हो। उसे अन्य कामों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। न्याय जीवन का क्रम है।

अरस्तु का आदर्श राज्य सिद्धांत

अरस्तु ने आदर्श राज्य उसे माना हैं जिसमें मध्यवर्गीय हों , न ज्यादा गरीब न ज्यादा अमीर। वह दासता को प्राकृतिक, नैतिक एवं आवश्यकताहों के दृष्टिकोण से उचित मानता था। कुछ लोग शारीरिक एवं दैहिक दृष्टि से निर्बल होते हैं, यह प्राकृतिक अन्तर है। कुछ लोग उत्कृष्ट तथा निकृष्ट होते हैं, यह नैतिक अंतर है। सामाजिक दृष्टि से भी दास आवश्यक है, क्योंकि कृषि, उद्योग आदि दासों द्वारा अच्छी तरह से संचालित हो सकते हैं। कार्य विभाजन की दृष्टि से दासता आवश्यकता है।

स्पेन्सर का आर्थिक-सामाजिक सिद्धांत

स्पेन्सर कहता था कि गरीब वही है जो जीवन को सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल संचालित करने में असफल होता है। जो योग्य होता है वही सफल होता है। योग्य अनुपयुक्त वातावरण में भी सफलता प्राप्त करता है। योग्य व्यक्ति परिस्थिति के शिकार होते हैं। संघर्ष में पिछड़ जाने वाला ही गरीब होता है।

पश्चिम के ज्यादातर महत्त्वपूर्ण विद्वान ने राजनीति दर्शन का आधार प्रकृति को हीं रखा है। इसी के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था रखी है।

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