शनिवार प्रदोष त्रयोदशी व्रत कथा एवं पूजा विधि - सौभाग्य और स्त्री की समृद्धि के लिय
Wednesday Pradosh Vrat story and worship method
शनिवार प्रदोष त्रयोदशी व्रत कथा एवं पूजा विधि - सौभाग्य और स्त्री की समृद्धि के लिय
Wednesday Pradosh Vrat story and worship method
शनिवार प्रयोदशी प्रदोष व्रत पूजा विधि सोम प्रदोष के समान ही है। इसमें श्वेत रंग तथा खीर जैसे पदार्थ ही सेवन करने का महत्व होता है।
शनिवार प्रदोष व्रत पूजा की विधि - Method of Pradosh Vrat Puja -
प्रदोष व्रत करने वाले को दिनभर भोजन नहीं करना चाहिये। शाम के समय जब सूर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाए तब स्नानादि कर्मों से निवृत्त होकर, श्वेत वस्त्र धारण करके तत्पश्चात् संध्यावन्दन करने के बाद शिवजी का पूजन प्रारंभ करना चाहिए। पूजा के स्थान को स्वच्छ जल से लीपें। वहाँ मण्डप बनाएँ। वहाँ पाँच रंगों के पुष्पों से पद्म पुष्प की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछायें, आसन पर पूर्वाभिमुख बैठें। इसके बाद भगवान महेश्वर का ध्यान करें।
ध्यान का स्वरूप -
करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिवान, त्रिनेत्रधारी, मस्तक पर चन्द्रमा का आभूषण धारण करने वाले पिंगलवर्ण के जटाजूटधारी, नीले कण्ठ तथा अनेक रुद्राक्ष मालाओं से सुशोभित, वरदहस्त, त्रिशूलधारी, नागों के कुण्डल पहने, व्याघ्र चर्म धारण किए हुए, रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान शिवजी का ध्यान करना चाहिये।
शनिवार प्रदोष व्रत के उद्यापन की विधि -
प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनावें। फिर उस मण्डप में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजन करें। तदन्तर शिव पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए। हवन करते समय ॐ उमा सहित शिवाय नमः ' मन्त्र से १०८ बार आहुति देनी चाहिये। इसी प्रकार ॐ नमः शिवाय' के उच्चारण के शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करें। हवन के अन्त में सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिये (अयोग्यं लोभी वा कस्मैचित् दानं दत्तं चेत् उपवासः शून्यः इति शास्त्रीयः प्रत्ययः - अयोग्य या लालची को दान देने से व्रत निष्फल है ऐसा शास्त्रीय मत है अत: योग्य धार्मिक व्यक्ति को दान देना चाहिये )। अपने बन्धु बान्धवों की साथ में लेकर मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिये। इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र-पौत्रादि से युक्त होता है तथा आरोग्य लाभ करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है एवं सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा स्कन्द पुराण में कहा गया है।
शनिवार प्रदोष व्रत कथा
एक समय सर्व प्राणियों के हितार्थ परम पावन भागीरथी के तट पर ऋषि समाज द्वारा विशाल गोष्ठी का आयोजन किया गया विज्ञ महर्षियों की एकत्रित सभा में व्यास जी के परम शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। सूत जी को देखते ही शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों ने खड़े होकर दंडवत् प्रणाम किया। महाज्ञानी सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषियों को हृदय से लगाया तथा आशीर्वाद दिया विद्वान ऋषिगण और सब शिष्य आसनों पर विराजमान हो गये।
मुनिगण विनीत भाव से पूछने लगे कि हे परम दयालु कलिकाल में शंकर की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी, हम लोगों को बताने की कृपा कीजिए, क्योंकि कलयुग के सर्व प्राणी पाप कर्म में रत रहकर वेद शास्त्रों से विमुख दीनजन अनेकों संकटों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ! कलिकाल में सत्कर्म की ओर किसी की रुचि न होगी। जब पुण्य क्षीण हो जायेंगे तो मनुष्य की बुद्धि असत् कर्मों की ओर खुद ब खुद प्रेरित होगी जिससे दुर्विचारी पुरुष वंश सहित समाप्त हो जायेंगे। इस अखिल भूमण्डल पर जो मनुष्य ज्ञानी होकर ज्ञान की शिक्षा नहीं देता, उस पर परमपिता परमेश्वर कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। है महामुने! ऐसा कौन सा उत्तम व्रत है जिससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती हो, आप कृपा कर बतलाइये। ऐसा सुनकर दयालु हृदय, श्री सूत जी कहने लगे- कि हे श्रेष्ठ मुनियों तथा शौनक जी आप धन्यवाद के पात्र है। आपके विचार सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आप वैष्णव अग्रगण्य हैं क्योंकि आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, इसलिए हे शौनकादि ऋषियों, सुनो मैं उस व्रत को तुमसे कहता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। धन वृद्धिकारक, दुःख विनाशक, सुख प्राप्त कराने वाला, सन्तान देने वाला, मनवांछित फल प्राप्ति कराने वाला यह व्रत तुमको सुनाता हूँ जो किसी समय भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था और उनसे प्राप्त यह परमश्रेष्ठ उपदेश मेरे पूज्य गुरु जी ने मुझे सुनाया था। जिसे आपको समय पाकर शुभ बेला में मैं सुनाता हूँ । बोलो उमापति शंकर भगवान की जय।
सूत जी कहने लगे कि आयु, वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ हेतु त्रयोदशी का व्रत करें। इसकी विधि इस प्रकार है- प्रातः स्नान कर निराहार रहकर, शिव ध्यान में मग्न हो, शिव मन्दिर में जाकर शंकर की पूजा करें पूजा के पश्चात् अर्द्ध पुण्ड त्रिपुण्ड का तिलक धारण करें, बेल पत्र चढ़ावें, धूप, दीप अक्षत से पूजा करें, ऋतु फल चढ़ावे "ॐ नमः शिवाय " मन्त्र का रुद्राक्ष की माला से जप करें, | ब्राह्मण को भोजन करा सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा दें। तत्पश्चात् मौन व्रत धारण करें, व्रती को सत्य भाषण करना आवश्यक है, हवन आहुति भी देनी चाहिये। मन्त्र" ओं ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा' से आहुति देनी चाहिये। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। व्रती पृथ्वी पर शयन करें, एक बार भोजन करे इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में तो इसका विशेष महत्व है। यह सर्वसुख धन, आरोग्यता देने वाला है, यह व्रत इस सब मनोरथों को पूर्ण करता है। हे ऋषिवरों! यह प्रदोष व्रत जो मैंने आपको बताया किसी समय शंकर जी ने सती जी को और वेदव्यास मुनि ने मुझको सुनाया था।
गर्गाचार्य जी ने कहा- हे महामते। आपने शिव शंकर प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया अब हम शनि प्रदोष विधि सुनने की इच्छा रखते हैं, सो कृपा करके सुनाइये।
तब सूत जी बोले- हे ऋषि निश्चयात्मक रूप से आपका शिव-पार्वती के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, मैं आपको शनि त्रयोदशी के व्रत की विधि बतलाता हूँ, सो ध्यान से सुनें । -
पुरातन कथा है कि एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ दुःख निवारण का उपाय बतलाइये। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है अतः हम दरिद्री हैं, आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा। तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे।
कुछ समय पश्चात् प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया। छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया, प्रसन्न हो माता से कहा कि माँ यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है। अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा- आधा बाँट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला- पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ। शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूँगा। इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया।
एक दिन दोनों भाईयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ, वहाँ उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा, उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुँचा। वहाँ एक स्त्री अति सुन्दरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुँचकर कहने लगी कि हे सखियों इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहाँ जाकर देखो भाँति-भाँति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहाँ बैठी हूँ, मेरे पैर में बहुत पीड़ा | है ये सुन सब सखियाँ दूसरे वन में चली गयीं वह अकेली सुन्दर राजकुमार की ओर देखती रही। इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहाँ रहते हैं ? वन में कैसे पधारे ? किस राजा के पुत्र हैं ? क्या नाम है ? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूँ, आप अपना परिचय दें। युवती बोली- मैं बिद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमति है मैंने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं, विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है। युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे ! मैंने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूँ। राजकुमार इन वचनों को सुनकर गन्धर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूँ वैसा ही करूंगी, अब आप अपने घर जायें। इतना कहकर वह गन्धर्व कन्या सखियों से जा मिली। घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया।
जब तीसरा दिन आया वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुँचा, वही गन्धर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुँचा। इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था वहाँ शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्व राज! तुम उसकी सहायता करो, मैं महादेव जी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूँ। आप इसका निर्वाह करें, मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूँगा। इस प्रकार गन्धर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया। विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ। भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा।
कथा के बाद अब शंकर भगवान् की आरती करें
आरती श्री शंकर जी की
ओम जय शिव ओंकारा स्वामी जय शिव ओंकारा ॥ ओ० ॥
ब्रह्मा-विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ॥ ओ० ॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजे ॥ ओ० ॥
हंसासन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ओ० ॥
दो भुज चार चतुर्भुज दशभुज अति सोहे ॥ ओ० ॥
तीनों रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ओ० ॥
अक्षमाला बनमाला रुंडमाला धारी ॥ ओ० ॥
चंदन मृगमद सोहे भोले शुभकारी ॥ ओ० ॥
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे ॥ ओ० ॥
सनकादिक ब्रह्मादिक प्रेतादिक संगे ॥ ओ० ॥
कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशुल धर्ता ॥ ओ० ॥
जग कर्ता संहर्ता जग पालन कर्ता ॥ ओ० ॥
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका ॥ ओ० ॥
प्रणवाक्षर के मध्ये, तीनों ही एका ॥ ओ० ॥
त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई जन गावे ॥ ओ० ॥
कहत शिवानन्द स्वामी मन वाँछित फल पावे ॥ ओ० ॥
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