Three characteristics of a democratic society or state?
लोकतांत्रिक समाज अथवा राज्य की तीन विशेषताएं?
लोकतांत्रिक समाज अथवा राज्य की तीन विशेषताएं होती हैं- पहला नैसर्गिक नियम, दूसरा सभ्य समाज, एवं तीसरा व्यक्तिगत संपत्ति।
अगर केंद्र सरकार मजबूत एवं सर्वोपरि है तो फिर उस समाज में सामंतवाद की बात बेमानी, व्यर्थ एवं पुरानी लकीर को पीटते रहना है। जनमत को मुर्ख बनाए रखना है ताकि वो गरीब एवं दास बना रहे। उन्नति वर्तमान परिस्थिति के सामाजिक रोग एवं उसकी दवा से है।
आधुनिक जनवाद में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकृत जनस्वीकृति एवं नैतिकता के आधार पर ही राजसत्ताधारी की आज्ञा नियम का रूप धारण कर सकती है। शासन के लिए शक्ति आवश्यक है परंतु डंडे के बल से नियम लागू नहीं किए जा सकते। संवैधानिक नियमों का स्त्रोत क्रांति, सक्रिय या असहयोग आन्दोलन एवं जनमत है।
जनमत 3 प्रकार से बनता है- पहला भाषण, दूसरा लेखन एवं तीसरा आंदोलन। किसी भी आंदोलन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है की मूल व्यक्ति अपनी खुद की योजनाओं से अलग विषय पर सोचना या समय देना बिल्कुल बंद करे। इससे इतर भटकाव अथवा ऊर्जा की बरबादी है। पहले अपने कार्य से जुड़े विषय को हीं जानना-समझना एवं उसमें निष्णात होना चाहिए। फिर दूसरों के सुझाव पर विचार करना चाहिए। कारण बहुत साफ है कि आप अपनी योजना को बरसों से अपने दिमाग में पका रहे होते हैं। उस पर पर्याप्त विचार विमर्श भी एक प्रक्रिया के तहत कर रहे होते हैं। जबकि दूसरा तात्कालिक प्रतिक्रिया देगा। वो इसके हर नफा -नुकसान से वाकिफ नहीं होगा।
जैसे आप देखते हैं कि भारत में समाजवादी नेता हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम करना चाहते हैं तो ज्यादातर रूप में मुसलमानों के लिए इफ्तार का आयोजन करते हैं। पर यह महज नौटंकी के सिवा कुछ साबित नहीं होता, कारण मूल समस्या के कारण पर बिना बिचारे ये सब होता है। हिंदू एवं मुसलमान में एक समझौता वाली स्थिति संभव है। एकता संभव है पर ऐक्य नहीं। ऐक्य माने एकरूपता। आजकल कई मौलाना शिव को, सनातनी व्यवस्था को तो शुरूआत मानते हैं परंतु मुहम्मद साहब को आखरी कह, बातों को घुमाकर हिंदुओ को इस्लामिक रिवाज मानने की सलाह देत हैं। धार्मिक मामलों में सलाह या जिद्द किसी धार्मिक विद्वान के लक्षण नहीं हैं। दृष्टि-भेद होता ही है। सत्य के भी अपने-अपने दृष्टिकोण होते हैं। जो दृष्टिभेद से आता है। यदि धार्मिक गुरु सर्वज्ञ है तो फिर मतभेद कैसे? सर्वज्ञ तो दृष्टिभेद से भली-भांति परिचित होता है। अतः उत्तम स्थिति यह है कि आपसी एकरूपता को समझते हुए सह-अस्तित्व को स्वीकारें। हिन्दुओं को भी अपनी आंतरिक कमजोरियों को दूर करना होगा। मजबूत समझदार सांगठनिक व्यवस्था तैयार करनी होगी। जो रूद्र और शिव का रूप हो। आवश्यकता पर रुद्र (अग्नि) अन्यथा शिव (शांत)। शांति एवं भाईचारा शक्ति संतुलन पर ही नैसर्गिग रूप से टिका होता है, यही समझने वाली बात होती है।
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