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What is philosophy?

दर्शन क्या है?

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

किसी भी धर्म,सम्प्रदाय,मत या वाद का स्थायी आधार उसका दर्शन होता है।

विचारधारा एवं दर्शन में अंतर होता है। विचारधारा का आधार दर्शन है। किसी भी नए विचारधारा का जन्म पूर्व में चले आ रहे विचारधारा से हीं निकलता है। अतः विचारक को सभी विचारधाराओं का ज्ञान होना चाहिए।

दर्शन क्या है?

वह विचार जो किसी वस्तु तत्व परम सत्य का निर्दोष (यानि परिस्थिति एवं वातावरण के प्रभाव को दूर रखकर) विश्लेषण देता है वह दर्शन कहलाता है। दर्शन प्रमाण के अधीन होता है।

संपूर्ण सिर्फ ज्ञान है ना हीं दर्शन, ना हीं विचारधारा। दोनों ही आंशिक होते हैं। दृष्टि-भेद के कारण अलग-अलग।

ज्ञान कर्म के समान पुरुष (कर्ता) के अधीन नहीं होता है। कर्म करने, न करने, उल्टा करने में कर्ता स्वतंत्र है। किन्तु ज्ञान उसके वश में नहीं है। इच्छा न रहने पर भी दुर्गन्ध आदि का ज्ञान हो हीं जाता है। अतः ज्ञान इच्छा से परे है। इसीलिए ज्ञान मार्ग से ईश्वर की प्राप्ति संभव है। ईश्वर यानि संपूर्ण।

सूक्ष्म विषयों के यथार्थ ज्ञान के लिए व्यक्तिगत परिस्थितियों तथा वातावरण के प्रभाव को दूर रख कर हीं अथवा इसके प्रभाव को समझते हुए ही तटस्थ निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

JNU एवं उनके तरह की राजनीति को समझने के लिए दर्शन की कम्यूनिस्ट व्याख्या को समझना आवश्यक है। कम्यूनिस्ट जीवन के दृष्टिकोण को दर्शन मानते। दर्शन युगधारा का परिचायक होता है। युग संघर्ष से उसका जन्म होता है। दर्शन का उसके निर्माताओं के व्यक्तिगत जीवन में घटी घटनाओं का संबंध होता है। अतः वास्तव में यह व्यक्तिवादी होता है। भावना प्रधान होता है। अतः यह दूरगामी नहीं होता। सोवियत संघ भी इसी वजह से नाकाम रहा।

राजनीतिक सामाजिक दर्शन का आरंभ केवल मैं से न होकर मैं और तुम से होना चाहिए | मैं स्वयं अपने लिए मैं है परंतु दूसरों के लिए तुम। विचार एवं विरोध की समस्या का यही हल है। अस्तित्व वह सूक्ष्म वस्तु है जो विचार में ही पिरोया हुआ है। उसमें हीं मैं एवं तुम संबंध मेल हो जाता है।

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