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What is the basis of worshiping Pind in Hindus?

हिंदू में पिंड पूजा का आधार क्या है?

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

जिसकी सत्ता है (ईश्वर) वह पिण्ड है, जिसकी सत्ता नहीं है वह शून्य है (अंतरिक्ष)।

पिण्ड पूजा के पीछे यह मीमांसा है कि सृष्टि का आधार पिण्ड एवं शून्य है। अतः जिसकी सत्ता है (ईश्वर) वह पिण्ड है, जिसकी सत्ता नहीं है वह शून्य है (अंतरिक्ष)। इसीलिए सनातन अथवा पैगन परंपरा में पिण्ड पूजा का प्रचलन था। यह प्रकृति-पूजन अथवा सृष्टि-पूजन का हिस्सा है जो परमात्मा से आत्मा के जुड़े होने को अस्तित्व प्रदान करता था। सनातन, वैदिक एवं पाश्चात दर्शन में यह मत प्रर्याप्त रुप से प्रचलित था। भारत में यह आज भी शिव-लिंग एवं देवी पूजा के रूप में प्रचलन में है। मैक्सिको आदि देशों में भी ऐसे पूजाओं के प्रमाण हैं। हिन्दुओं में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मूर्तिपूजा शुरू करने से पूर्व पिंड पूजा का ही प्रचलन था।

पिंड पूजा वैदिक उपासना में नहीं आता। यह तंत्र का हिस्सा है। तंत्र वैदिक नहीं है। यानि वेद से उत्पन्न नहीं है। तंत्र की उत्पत्ति पहले वैज्ञानिक आदियोगी शिव के मुख से हुई है। तंत्र शक्ति पाने की विद्या है। यह पूरी तरह से विज्ञान है। ऊर्जा संचयन की विद्या है। इसी लिए पिंड की पूजा की विधि बताई गई। पिंड का स्वरूप ऊर्जा का संरक्षण करता है। आधुनिक विज्ञान का पृष्ठ-तनाव का सिद्धांत (law of Surface Tension) भी यही है।

निराकार से पिंड एवं पिंड से मूर्ति पूजा कैसे शुरू हुई ?

भगवद्‌गीता एवं उपनिषदों दोनों में अव्यक्त परमात्मा का स्वरूप तीन प्रकार का बतलाया गया है 1. सगुण 2. निर्गुण और 3. उनयनिष्ठ यानी सगुण-निर्गुण मिश्रित। सनातन संस्कृति में माना गया है कि उपासना के लिए प्रत्यक्ष (सगुण) रूप नेत्रों के सामने हीं हो यह आवश्यक नहीं है। अर्थात् ऐसे स्वरूप की उपासना हो सकती है जो निराकार हो (ऋग्वैदिक परंपरा जिसमें रूद्र सर्वोच्च देव थे और इनकी हिरण्यगर्भा अग्नि के रूप में पूजा होती थी)। उत्तर वैदिक काल में यह विचार आया कि चिंतन, मनन अथवा ध्यान के समय यदि चिन्तित वस्तु का कोई रूप नहीं तो भी कोई न कोई गुण होना चाहिए जिसका चिंतन किया जा सके। क्योंकि अगर कोई भी गुण न होगा तो मन चिंतन करेगा किसका? अतः जब नेत्रों से न दिखाई देने वाले अव्यक्त निराकार ईश्वर की बात होती है तो उस वक्त भी अव्यक्त परमेश्वर को वस्तुतः सगुण ही कल्पित किया जाता है, जिसमें उसके आराध्य कल्पित गुणों के साथ होते हैं। जैसे ईश्वर का शक्तिमान एवं दायालु होने की कल्पना। दीन-दुखियों के रक्षक होने की कल्पना। ये सब सगुण कल्पना हीं हैं। उपनिषदों में भी उपासना पद्धति के तीन सीढ़ी बताई गई है। पहले सीढ़ी के रूप में सगुण रूप फिर दूसरी सीढ़ी के रुप में उभयनिष्ठ अर्थात सगुण-निर्गुण रूप एवं अंत में तीसरी सीढ़ी निर्गुण रूप से उपासना है।

तंत्र साधना सनातनियों (हिन्दू एवं बौद्ध) में काफी लोकप्रिय रही है। तंत्र साधना सनातनियों (हिन्दू एवं बौद्ध) में काफी लोकप्रिय रही है। तंत्र साधना का मार्ग सामान्य जन के लिए आसान नहीं था। इसके लिए कठिन अभ्यास एवं तत्व ज्ञान की आवश्यकता थी। उपासना के तांत्रिक पद्धति में भी आवश्यकता महसूस होने पर सरलता को लाया गया। पिंड से मूर्ति की उत्पत्ति हुई ताकि सामान्य जन दृष्टि-अनुभव के आधार पर एक छवि का निर्माण कर आसानी से साधना कर सकें।

बुद्ध सुखी-आनंदित समाज चाहते थे जो बिना शांति एवं विवेक के संभव नहीं था। बिना तत्त्व ज्ञान के भी आदेश द्वारा कठिन अभ्यास कराकर निराकार साधना कराई जा सकती थी परंतु परिणाम कट्टरता आती, सौम्यता नहीं। भगवान बुद्ध ने सरल जीवन की शिक्षा दी। बुद्धि में जिसकी धारणा होती है, बाहर भी उसीकी सत्ता होती है। सगुण रूप से ईश्वर की आराधना की शुरुआत इसी अनुभव के साथ शुरू हुई कि बुद्धि दृश्य को ज्यादा सहजता से ग्रहण कर लेती है। कारण अनुभवगम्यता के कारण साधारण बुद्धि भी आसानी से धारणा बना लेती है। अतः बौद्धौं ने मूर्तिपूजा का मार्ग चुना। हिंदुओं में मूर्ति पूजा बौद्ध प्रभाव है। आदिगुरु शंकराचार्य ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया एवं हिंदुओं में इसकी स्थापना की।

भारतीय प्रायद्वीप एवं बाकी के देशों में भी धीरे-धीरे उपासना की इस नई सरल तकनीक का तत्त्वदर्शियों द्वारा प्रचार-प्रसार हुआ। पर इस ज्ञान को आत्मसात करने के लिए भी प्रखर बुद्धि की आवशयकता थी। अरब मुल्कों में भी बौद्ध प्रभाव के कारण वहां के आदिवासी मूर्तिपूजा किया करते थे। बामियान में हाल के वर्षों तक बुद्ध की मूर्तियाँ पाई जाती थीं। अभी पिछले ही महीने अप्रैल 2022 में एक रिपोर्ट आई थी कि तुर्की देश में कई शिवलिंग एवं कई मूर्तियां भी मिली हैं। अरब मुल्कों में जब इस्लाम मजहब की स्थापना मुहमम्द साहब ने की तो मूर्तिपूजा आदेश द्वारा कठिन अभ्यास कराकर बंद कराया। कठिन अभ्यास का परिणाम यह हुआ किया अपने साथ अपने से जुड़ी परिस्थितियां भी साथ लाया जो अभी सभी देशों में महसूस किया जा रहा है। अत: वास्तव में निराकार अथवा पिंड अथवा मूर्ति के साथ उपासना पद्धति के आधार पर किसी का श्रेष्ठ या निकृष्ठ होने की बात बेकार है। इसके आधार पर विवाद बिल्कुल व्यर्थ है।

तो फिर उपासना पद्धति का प्रभाव क्या है ?

इसका प्रभाव आपके जन्म-मृत्यु चक्र पर पड़ता है। हमें वेदांत दर्शन और गीता के माध्यम से पता है कि आत्मा के साथ सिर्फ संस्कार हीं चिपका होता है और यह संस्कार हमारी वृतियों से आती है। छान्दोग्यपनिषद (3.14.1) कहता है कि पुरुष ऋतुमय है जिसका जैसा ऋतु (निश्चय) होगा उसे मृत्यु के पश्चात वैसा ही फल मिलेगा। इस विषय पर गीत में भी सतरहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा गया है कि जिसकी जैसी श्रद्धा होगी उसे वैसी हीं सिद्धि प्राप्त होती है। अर्थात जैसी उपासना पद्धति वैसी हीं वृत्ति और वैसा हीं फल। अगर भौतिक भेद से उपासना तो फिर फल के रूप में भौतिक संसार हीं। मोक्ष नहीं जो हृदय में उत्पन्न ज्ञान की पराकाष्ठा से आती है, जहां माया का साम्राज्य समाप्त हो जाता है।

अतः बिना किसी विवाद में पड़े़ यह समझना चाहिए कि मूर्ति पूजा की पद्धति वह है, जिसमें ब्रहम निदर्शक चिन्ह को गौणरूप में नेत्रों के सामने रखा जाता है, जिसे प्रतिमा कहते हैं और उसी को साक्षी मान परमेश्वर पर ध्यान धरते हैं।

गीता के 13वें अध्याय के बारहवें श्लोक में कहा गया है कि जो कुछ है, वह सब ब्रह्म ही है। इसलिए दूर भी वही, समीप भी वही, सत भी वही, असत् भी वही है। अत: ब्रह्म की उपासाना एक ही समय पर अलग-अलग परस्पर विरोधी दृष्टि अथवा तरीके से की जा सकती है।

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