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ज्ञान एवं गुण

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

जो ज्ञान सहज रूप से मिले वो पूरी जिंदगी साथ होती है एवं जो ज्ञान ज्ञान के, शिक्षा के विशेष वर्ग अथवा विशेष अभ्यास से मिले वह उस अभ्यास के शिथिल होते हीं लोप हो जाता है।

गुरु से ज्ञान प्राप्त करने हेतु उनसे मिलते वक्त हमेशा सजग एवं सतर्क होना पड़ता है। ज्ञानी से मिलने के लिए हमारा आचरण भी उनके स्तर का होना चाहिए | दूसरी तरफ जो ज्ञानी व्यक्ति है उसका आचरण भी उसके ज्ञान के अनुकूल हीं होना चाहिए। उसके साथ रहने वाले लोग भी स्तरीय हीं होने चाहिए क्योंकि संगति हीं पहचान है। छान्दोग्य उपनिषद में लिखा है कि संग एवं शिक्षा में परिवर्तन होने से, जब बुद्धि विचार, सिद्धांत तथा कर्म में परिवर्तन होता है, तब समाज का रूप भी बदल जाता है। अतः इसी संग एवं शिक्षा से सम्यक समाज का निर्माण संभव है। हमारे लिए धर्म का ज्ञान होना मात्र महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसका व्यक्ति के विकास में उपयोग होना ज्यादा महत्वपूर्ण एवं सार्थक है। अगर ऐसा नहीं पाया जाता तो ज्ञानी व्यक्ति वास्तव में अज्ञानी हीं होता है। जो खुद व्यवहार-संगति के मामले में सम्यक न हो तो उसे सिर्फ सैद्धांतिक अधूरा ज्ञान रहता है। अज्ञानी से मिला ज्ञान सिर्फ और सिर्फ नकारात्मकता हीं देगी जो आप आजकल के समाज में देख रहें हैं। सारे समस्या की जड़ यही अराजक शिक्षा है। जैसे वस्तु में प्रकाश दो प्रकार से होती है। पहला प्रकाश स्वरूप होने से, जैसे सूर्य। दूसरा प्रकाश के साथ संसर्ग होने से, जैसे चंद्रमा । उसी प्रकार योग्यता दो प्रकार से होती है। पहला, खुद योग्य होने से। दूसरा योग्य व्यक्ति के संपर्क में आने से। जैसे प्राकृतिक नियम है कि बीज वृक्ष का भौतिक हेतु है। दूसरा है वह नियम, जिससे आम के वृक्ष से आम ही होगा | तीसरा - कर्ता, जिसकी प्रेरणा से क्रिया पूर्ण होती है। चौथा हेतु वास्तविकता जिसके उद्देश्य से बीज की प्रवृत्ति होती है। यह पूरी सुव्यवस्थित व्यवस्था हमें ज्ञान पाने की नैसर्गिग तरीका सिखाती है।

सुख हीं जीवन का लक्ष्य है। सुख की प्राप्ति के लक्ष्य का मार्ग ज्ञान हीं है। मनुष्य तब तक सुखी नहीं होता जब तक उसमें बुद्धि, न्यायशीलता, विषय के महत्व पहचानने आदि का गुण उसमें नहीं आता। ज्ञान गुण से उत्पन्न होने के कारण ही सुख अच्छा है। अज्ञान से उत्पन्न होने के कारण दुख बुरा है। बुद्धिमान व्यक्ति भी कई बार इसलिए दुख पा जाते हैं क्योंकि बुद्धि आदि तत्व शाश्वत नहीं है बल्कि आपेक्षिक (तुलनात्मक अथवा दूसरों पर निर्भर रहने वाला) एवं परिवर्तनशील हैं।

ज्ञान का रहस्य - भारतीय शास्त्रों में दो तरह के व्यक्तियों को ही सुखी बताया गया है। पहला, जो अत्यंत विवेकहीन मूढ़ हो। दूसरा, जो परम विवेकी तत्त्ववेता हो। बाकी सभी मध्यवर्ती लोग दुखी रहते हैं।

सुख या दुख जीवन जीने की कला पर निर्भर होता है। शिक्षा सामान्य जन को इसी जीने की कला की होनी चाहिए ताकि संतुष्ट एवं आनंदित रह सके। बाकि बातें माया है। भ्रम जाल है। आनंदित सुखी जीवन की कला सीखने जानने में सतत अभ्यास एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता है। यही वह कला है जिसके लिए भारत की प्राचीन काल से प्रसिद्धि रही है एवं विदेशी अब भी की खोज में भारत आते रहते हैं। भटकते रहते हैं। इस कला का मूल आधार आस्था, समर्पण एवं सम्यक दृष्टि है। आनंद आस्था एवं समर्पण के मेल आता है। ज्ञान से आनंद प्राप्त नहीं होता।

गुण

गुण वह सिक्का है जिसके सुख- दुख दो पहलू हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु एवं मित्र स्वयं उसका गुण होता है।

आध्यात्मिक रूप से गुण होना भी अपने आप में एक समस्या है। सगुण यानी गुण के साथ होते हीं क्षरण का गुण आ जाता है जो एक अवगुण है। जो गुण निश्चित नहीं है या निश्चित नहीं कहा जा सकता अथवा जो गुण परिवर्तनशील है वह सत्य नहीं कहा जा सकता है। और ज्यादातर गुण अनिश्चित हीं होते हैं। जैसे कोई नारी बहुत सुन्दर है। लेकिन सुंदरता यौवन काल के बाद नहीं टिकता। सुंदरता जो की एक गुण है अनिश्चित है। अंततः इसका नाश हो जाता है। अत: सुंदरता सत्य नहीं है। गीता में भी कहा गया है कि -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
अर्थात जो असत्य है वो स्थायी नहीं होगा एवं सत्य का कभी अभाव अथवा नाश नहीं होगा।

सृष्टि में गुण की उत्पत्ति कहाँ से होती है?

वस्तुओं में गुणों की उपलब्धि का कारण रूप है। रूप के बिना वस्तु कुछ नहीं है। पंचतत्व भी किसी मूल वस्तु के अवस्था विशेष ही हैं। विज्ञान भी अनुभूत (अनुभव किया हुआ) होता है रूप जगत का अथवा धारणाओं का। विश्व कहाँ से और क्यों दृष्टिगोचर होता है, इस प्रश्न का उत्तर वस्तु, रूप, शुप्तशक्ति (सोई हुई शक्ति dormant power) एवं वास्तविकता इन चार गुणों हीं से होता है।

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