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यह शरीर हमें ईश्वर की असीम अनुकंपा के बाद प्राप्त होती है। यही शरीर धर्म का वाहक है अत: इस शरीर की एवं उसकी विभिन्न आवश्यकतओं की पूर्ति करनी चाहिये। यौन-संतुष्टि भी धर्म का भाग है क्योंकि हमारे शरीर में यौन इच्छा उत्पन्न होती है। परंतु यह पूर्ति इस प्रकार से हो जिसमें किसी दूसरे को शारीरिक या मानसिक कष्ट न हो। दूसरे को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुंचाना सबसे बड़ा पाप है। युवाओं के यौनाकर्षण को पाप कर्म कह कर उन्हें हतोत्साहित या उनका नैतिक बल कमजोर नहीं करना चाहिए। हम ऐसा कर बिना वजह उनमें कुंठा भरते हैं जो एक सच्चे हितैषी का कार्य नहीं है।

संसार समाज रजोगुणी अर्थात सांसारिक है The world society is Rajoguni (i.e. worldly)

यौनाकर्षण उत्साह का आवश्यक अंग है।

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

रजोगुणी अपने संभोग की बार बार प्राप्ति, भोग की इच्छा, वृत्ति से दुख मानसिक क्लेश तो पाता है पर पाप का भागी नहीं होता।

गीता के अध्याय 18 में श्लोक नं 38 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम ।
परिणामेविषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतमे ।।

अर्थात् जो इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से पहले अमृत-जैसा और परिणाम में    विष-तुल्य हो वह राजसी सुख (रजोगुणी) कहलाता है।
इन्द्रियों और विभिन्न विषयों से संबंध होने पर आत्मा को जो पहले अस्थाई सुख प्राप्त होता है वह अमृत के सदृश प्रतीत होता है। यही कारण है कि जीव विषय-सुखोपभोग में बार-बार प्रवृत्त होता है। कुछ समय वाद यह अमृत तुल्य प्रतीत होने वाला संभोग सुख नीरस और झंझटपूर्ण हो जाता है और विषतुल्य प्रतीत होता है। तब विलगाव या तलाक (विवाह-विच्छेद) की स्थिति आती है।

इस स्थिति से हर मनुष्य को गुजरना पड़ता है। हर सांसारिक व्यक्ति इस अनुभव को प्राप्त करता है। चूँकि हर सांसारिक व्यक्ति रजोगुणी है। रजोगुणी को समझाते हुए अध्याय 18 के 24वें श्लोक में कहा गया है -

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 24।।

लेकिन जो कार्य अपनी इच्छा पूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम सभी स्वाभाविक रूप से रजोगुणी हैं सात्त्विक नहीं। अतः हमें रजोगुणी स्वभाव को ध्यान में रखते हुए गीता के उपदेश को समझना चाहिए। 18वें अध्याय के 27वें श्लोक में पुनः कहा गया है - जो कर्त्ता कर्म तथा कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी यानि रजोगुणी है।
हम अगर सात्त्विक स्वभाव या प्रकृति के नहीं हैं तो हमें अपना रजोगुणी स्वभाव को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने 18वें अध्याय में श्लोक नं 47 में कहा है -

श्रेयान्सधर्मों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।।47।।

इसका अर्थ है कि अपने वृत्तिपरक कार्य को करना अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करता हुआ व्यक्ति पाप को प्राप्त नहीं करता।
अतः रजोगुणी अपने संभोग की बार बार प्राप्ति, भोग की इच्छा, वृत्ति से दुख मानसिक क्लेश तो पाता है पर पाप का भागी नहीं होता।
हमें युवाओं के यौनाकर्षण को पाप कर्म कह कर उन्हें हतोत्साहित या उनका नैतिक बल कमजोर नहीं करना चाहिए। हम ऐसा कर बिना वजह उनमें कुंठा भरते हैं जो एक सच्चे हितैषी का कार्य नहीं है।

श्लोक 48 में कहा गया है कि स्वाभाविक कर्म दोषयुक्त हो तो भी नहीं छोड़ना चाहिए  क्योंकि सारे कर्म धुएं से अग्नि के समान दोषाच्छादित है।
हमें अपने स्वाभाव को नहीं छोड़ना है। इससे हमारा उत्साह कमजोर पड़ता है जो कार्य की पूर्णता के लिए आवश्यक तत्व है। यौनाकर्षण उत्साह का आवश्यक अंग है। आवश्यकता है सटीक समायोजन की।

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