The soul is formless in the form of knowledge
ज्ञान स्वरूप आत्मा निर्विकार होता है
वेदांत मत में ज्ञान स्वरूप आत्मा निर्विकार होता है
आत्मा में थोड़ा भी विकार नहीं होता। इसीलिए आत्मा दिखता भी नहीं। यह निष्कल है। निष्कल महादेव आत्मा के रूप में ही हम सब में विद्यमान हैं। और यही ज्ञान कराता है कि वस्तुतः सब एक हीं हैं। एक समान हैं। पृथकता की दृष्टि माया का प्रभाव है। माया अज्ञानता देती है।
वेदांत मत आत्मा को अमर मानता है। यह मान्यता है कि स्थूल देह के नष्ट होने पर भी यह सूक्ष्म देह नष्ट नहीं होता है। सृष्टि से प्रलय काल तक यह सूक्ष्म देह रहता है। फिर कर्मों के आधार पर आगे की यात्रा तय होती है। इस्लाम में भी यह मान्यता है कि कयामत के दिन हर आत्मा अथवा रूह के कर्मों का हिसाब होगा। कर्मों के अनुसार संसार का भी जीव के जन्म-मरण के समान सृष्टि एवं प्रलय होता है। घटनाएं घटती रहती हैं पर मूल में हमेशा शांति होती है। नीरवता होती है। यह ईश्वरीय शक्ति एवं उसकी व्यापकता का अंग है। अंतरिक्ष का अंधकार एवं ध्वनि-शून्यता अथवा शांति इसी का द्योतक है।
धर्म - संप्रदाय क्या है?
धर्म का अर्थ होता है धारण करने योग्य सबसे उचित धारणा। अर्थात जिसे सब को धारण करना चाहिए। धर्म एक हीं है चाहे उसे सनातन कहें अथवा उसे पैगन कहें। आदिगुरु शंकराचार्य के अनुसार धर्म वह है जिससे इहलोक एवं परलोक दोनों का अभ्युदय हो। यानी उत्तरोत्तर उन्नति। संप्रदाय एक परंपरा में जीने-मानने वालों के समूह को कहते हैं। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिखा आदि संप्रदाय हैं।
धर्म ईश्वरीय है। यह सृष्टि प्रदत नियम है। स्वाभाविक है। परंतु मजहब या सम्प्रदाय मनुष्य कृत होने के कारण अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है। कई मजहबों का होना, इनका भिन्न-भिन्न तथा आपसी (परस्पर) विरोध होना, इनके मनुष्य द्वारा निर्मित एवं बनावटी होने का प्रमाण है।
महाभारत के वन पर्व में अपने कर्म में लगे रहने को निश्चय ही धर्म माना गया है। महाभारत में ही अन्य जगहों पर अलग-अलग धर्म की मान्यता है। मुख्य तौर पर सत्य विद्या, दान कर्म आदि को धर्म के अंतर्गत रखा गया है।
धर्म को धारण मन करता है। मन द्वारा ही कर्म होता है। वेद में दो प्रकार के धर्म बताए गए हैं। एक आत्मा का, जो परमात्मा को धारण करता है। दूसरा शरीर का जो माया (पंचतत्व- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश) को धारण करता है। शरीर को ये तब तक धारण करना है जबतक जीवन है। जीवित है।
कार्य-कारण परम्परा ईश्वर में जाकर समाप्त नहीं हो जाती है क्योंकि मूल का मूल नहीं हुआ करता। इसलिए जो सबका मूल है उसे स्वयं अमूल हीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जीवन चक्र चलता रहेगा।
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