Sacred Principles of Shivling
शिवलिंग के पवित्र सिद्धांत - शिवलिंग सिर्फ लिंग और योनि नहीं है बल्कि सृष्टि के प्रारंभ एवं प्रकृति के आठों स्वरूप की पूजा है।
शिवलिंग पूजा सिर्फ लिंग योनि की पूजा समझने की गलती ना करें बल्कि इसके आधार में समाहित आठों पहल को जानकर इसके समग्रता एवं संपूर्णता को जाने।
Shivalinga is not just penius and vagina, it teaches about the beginning of the world and the role of eight forms of nature in its creation.
एक शब्द के कई अर्थ होते हैं । शब्दों का जिस अर्थ में प्रयोग किया जाए उसका अर्थ उसी के अनुसार होना चाहिए। जैसे सैंधव शब्द का एक अर्थ नमक होता है एवं दूसरा अर्थ घोड़ा भी होता है। अब अगर कोई व्यक्ति भोजन करने बैठा है और आप से सैंधव मांगता है तो क्या आप उसे घोड़ा लाकर देंगे? नहीं, आपको उसे नमक देना है। किस संदर्भ में शब्द प्रयुक्त हो रहा है, यह देखना होता है। ठीक यही स्थिति शिवलिंग के मामले में है। लिंग के भी कई अर्थ होते हैं| लिंग का एक अर्थ होता है चिन्ह्। जैसे स्त्रीलिंग - जिसमें स्त्रियोचित चिन्ह है। पुल्लिंग जिसमें पुरुषोचित चिन्ह है। उसी प्रकार शिवलिंग - जिसमें शिव का चिन्ह है। शिव का प्रकार है। शिवलिंग शिव के चिन्ह के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। उनके स्वरुप के लिए प्रयोग हो रहा है। प्रकृति के सारे अवयवों को जोड़ कर अपने को प्रस्फुटित किया वही शिव चिन्ह शिवलिंग है। यह निराकार है। सृष्टि का आधार है। आज के वैज्ञानिक भी जितने परमाणु रिएक्टर बनाते हैं उसका स्वरुप लिंगाकार हीं होता है। कारण प्रचंड ऊर्जा को यही रूप सह सकता है। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र हो या अमेरिका, जापान का। सभी की बनावट ऐसी हीं है। वैज्ञानिकों को शक्ति के समन्वय के लिए कोई और ढंग नहीं मिला अन्यथा वो कोई और बनावट बनाते। शिवलिंग शक्ति का केंद्र है। सनातनी ज्ञान की उच्चता को समझिये एवं इस सभ्यता के साथ रहने के मिले अवसर पर गर्व करिए। कुछ लोग जो शिवलिंग पर उटपटांग बोलते हैं वो विषय को समझते नहीं, पढ़ते नहीं है अथवा जानबूझकर समझना नहीं चाहते।
शिवलिंग में आठ पहल होते हैं। पहल का अर्थ है कोरों के बीच का तल, पार्श्व। ये आठों प्रकृति के आठ स्वरुप के प्रतिनिधि हैं जिनसे यह संसार चलता है। प्रकृति के 8 भाग हैं पृथ्वी, जल, अग्नि , वायु , आकाश यानी अंतरिक्ष, सूर्योदय (बुद्धि), चंद्रमा (मन) एवं अहंकार। अष्टपदी पर ही शिव का श्रीविग्रह है। लिंगाष्टकम में यह वर्णित है-
अष्टदलोपरिवेष्टित लिंगं
सर्वसमुद्भव कारण लिंगम् ।
अष्ठदरिद्र विनाशित लिंगं
तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥ 7 ॥
प्राचीन शिवलिंग में यह स्पष्ट रुप से पाया जाता है। रोहतास जिले में भी एक प्राचीन दसवीं शताब्दी का शिवलिंग पाया गया है जो करीब 5-6 फीट ऊंचा है उसमें स्पष्ट रुप से यह देख सकते हैं। परंतु आमतौर पर शिवलिंग की स्थापना के वक्त आधार में अवस्थित होने के कारण ये आठ पहल छिप जाते हैं जिससे हमें सिर्फ लिंग-योनी स्वरुप से हीं परचित हो पाते हैं। अज्ञानतावश कई लोग दुष्प्रचार में भी लगे रहते हैं। शिवलिंग अर्द्धनारीश्वर हैं। पुरुष भी स्वंय एवं प्रकृति भी स्वयं। पूरी सृष्टि के निर्माण को समेटे। इन्हीं से सृष्टि है।
शिव पुराण में शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन अग्नि स्तंभ के रूप में किया गया है जो अनादि व अनंत है और जो समस्त कारणों का कारण है। इस पुराण के अनुसार भगवान शिव ही पूर्ण पुरुष और निराकार ब्रह्म हैं । ईश्वर निराकार है, और शिवलिंग भी उसी का प्रतीक हैं । शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे 'शिवलिंग' कहा गया हैं ।
वेद शास्त्रों में शिवलिंग का अर्थ बताया गया है कि संपूर्ण ब्रह्मांड उसी तरह है जैसा शिवलिंग का रूप है, जिसमें जलाधारी और ऊपर से गिरता पानी है । शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा और उन पिंडों की तरह है, जहां जीवन होने की संभावना हैं । वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) की धुरी ही शिवलिंग है । वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे सृष्टि प्रकट होती है उसे शिवलिंग कहते हैं ।
स्कंद पुराण में कहा गया है कि आकाश स्वयंलिंग है । धरती उसकी पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे शिवलिंग कहा गया हैं ।
अथर्ववेद के स्तोत्र में एक स्तम्भ की प्रशंसा की गई है। अथर्ववेद के स्तोत्र में अनादि और अनंत स्तंभ का विवरण दिया गया है और यह कहा गया है कि वह साक्षात् ब्रह्म है (यहाँ भगवान ब्रह्मा की बात नहीं हो रही है)। स्तम्भ की जगह शिवलिंग ने ले ली है। लिङ्ग पुराण में अथर्ववेद के इस स्तोत्र का कहानियों द्वारा विस्तार किया गया है जिसके द्वारा स्तम्भ एवं भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया गया है।
अब जहां तक शिवलिंग में लिंग और योनि की बात है तो रूद्रहृदयोपनिषद जो कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है कहता है कि -
रुद्रो लिङ्गमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नमः।
सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात्पृथक्पृथक् ॥
अर्थात रुद्र अर्थ व उमा शब्द है। दोनों को साष्टांग प्रणाम है। रुद्र शिवलिंग व उमा पीठम् है। दोनों को साष्टांग प्रणाम है। यह कहता है कि संपूर्ण संसार और सूक्ष्म जगत उसी प्रकार एक है जिस प्रकार शिवलिंग में शिव और शक्ति एक हैं।
हमारे ॠषियों ने शिव से संबंधित जितने भी सिद्धांत दिए हैं वो काफी वैज्ञानिक हैं। आधुनिक विज्ञान अब जाकर कुछ कुछ सक्षम हो पा रहा है। जैसे हमारे ॠषियों ने शिव का वाद्य डमरू को बताया है। समझने की बात यह है कि डमरू हीं क्यूं कहा गया? कोई अन्य वाद्य क्यूं नहीं? सूक्ष्मता से विचार करने पर सनातन सांस्कृतिक गुरुओं की ब्रह्मांड के विषय-ज्ञान में परिशुद्धता ज्ञात होती है। डमरू दोनों तरफ चौड़ी एवं मध्य में पतला होता है। फिर इसके मध्य से लंबी रस्सी जुड़ी होती है जिसके गतिमान होने से नाद उत्पन्न होता है। यह स्थिति आधुनिक विज्ञान में GRB यानि Gama Ray Blast की है जो दो न्यूट्रॉन तारों के विलय से निकलता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक गामा रे वर्स्ट (Gamma Ray Burst ) यानि की गामा किरणों का विस्फोट इस ब्रह्मांड में होने वाले सबसे ताकतवर विस्फोटो में गिना जाता है।
Gamma Ray Burst Image, Courtesy NASA
इस विस्फोट में इतनी उर्जा निकलती है जितनी उर्जा हमारा सूर्य अपने पूरे जीवनकाल में भी नहीं पैदा कर सकता है। ये इतनी घातक हैं कि परमाणु को भी अपनी ताकत से खत्म कर सकती हैं। जो भी चीज़ इसकी चपेट में आती है वह इसके रेडियेशन से हमेशा के लिए खत्म हो जाती है। आधुनिक जगत को 1963 से पहले इसकी कोई जानकारी तक नहीं थी परन्तु हमारी सभ्यता में इसकी जानकारी थी | शिव जो सृजन एवं संहार करते हैं, असीम ऊर्जा के स्रोत हैं, उनका वाद्य भी इसी लिए डमरू है। हमारे ॠषियों को ब्रह्मांड में घटने वाली शिव-लीला की पूरी जानकारी थी। नासा द्वारा उपलब्ध कराई गई RGB की तस्वीर देखकर आपको डमरू और इसकी समानता स्पष्ट हो जाएगी।
मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा की विकसित संस्कृति शैव संस्कृति थी। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई के दौरान कालीबंगा और अन्य खुदाई के स्थलों पर मिले पकी मिट्टी के शिवलिंगों से प्रारंभिक शिवलिंग पूजन के सबूत मिले हैं। सबूत यह दर्शाते हैं कि शिवलिंग की पूजा 3500 ईसा पूर्व से 2300 ईसा पूर्व भी होती थी। सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर था इसलिए वह पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में भी पशुपति की पूजा करते थे । सैंधव सभ्यता से प्राप्त एक सील पर 3 मुंह वाले एक पुरुष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं । इसे भगवान शिव का पशुपति रूप माना जाता हैं ।
www.indianstates.in***********