आत्मसुधार self-improvement
जब हम ईश्वर के बनाए हुए हैं तो हमारे बुरे कर्म के हम जिम्मेदार कैसे हैं एवं हमें अपने में सुधार का प्रयास क्यूँ करना चाहिए।
विचार - प्रभात कुमार
हम ईश्वर की संतान हैं। यह शरीर भी ईश्वर की देन है। हमारी शारीरिक आवश्यकता और इच्छा भी ईश्वर की देन है। फिर प्रश्न है बुरे कर्म का, अपने में सुधार का ?
हम ईश्वर की संतान हैं परंतु ईश्वर हमें जन्म प्रकृति के द्वारा देता है। योनि के द्वारा देता है। प्रकृति के नियमानुसार। अतः हमारी जिंदगी पर प्रकृति के प्रभाव की व्यवस्था ईश्वर ने मौलिकता बनाए रखने के लिए की है। प्रकृति में मौलिक विकास, प्रभाव का गुण होता है। अतः अच्छे (प्रकाश) या बुरे (अंधकार) कर्म करने के लिए मन (प्रकृति) को स्थान प्राप्त हो जाता है। हमारी जिम्मेदारी इसी स्थान विशेष से तय होती है। इसी संस्कार के साथ हम अगले जन्म में जाते हैं जहाँ ईश्वर हमारे इस विशेष संस्कार (चूँकि ईश्वर की बनायी रचना में सबकुछ समान है) के आधार पर अगली योनि तय करते हैं।
यह स्थान विशेष कैसे उत्पन्न होता है इसे ऐसे समझिये - क्या सूर्य कभी अस्त होता है? लेकिन प्रकृति का नियम है कि हमें धरती पर रात और दिन मिलते हैं। क्या ईश्वर सूर्य के व्यवस्था को बदलते हैं, नहीं ईश्वर समान भाव से हैं और धरती पर कहीं दिन है तो कहीं रात। यही धरती के समान मन की अवस्था है। यह हमारे मन की अवस्था पर है कि वह जल्द क्या ग्रहण करती है और देर तक कहाँ बना रहना चाहती है। प्रकाश ईश्वर का प्रतीक है। यह धनात्मक विचार है। इस विचार में आप किसी को कष्ट देने की नहीं सोचते। इसमें आप ईश्वर को प्राप्त कर रहे होते हैं। ईश्वर आस्था से मिलते हैं कुतर्क से नहीं। शुद्ध मन से विचारने पर जीवन के रहस्य सुलझते हैं। विचार शक्ति हमेशा सरलता में बढ़ती है जटिलता में मंद होती है। अच्छे विचार धन हैं और नकारात्मक विचार ऋण। यह आपको सोचना है कि आपको समृद्धि चाहिए या कुछ और।
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