दो सखियाँ
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दो सखियाँ
में जौ-भर भी अन्तर नहीं पड़ा। यह प्रथा वर्तमान काल के लिए इपयोगी नहीं।’
भुवन ने कहा—‘आखिर आपको इसमें क्या दोष दिखाई देते हैं ?
विनोद ने विचारकर कहा—‘इसमें सबसे बड़ा ऐब यह है कि यह एक सामाजिक प्रश्न को धार्मिक रूप दे देता है।’
‘और दूसरा?’
‘दूसरा यह कि यह व्यक्तियों की स्वाधीनता में बाधक हैं। यह स्त्रीव्रत और पतिव्रत का स्वाँग रचकर हमारी आत्मा को संकुचित कर देता है। हमारी बुद्धि के विकास में जितनी रुकावट इस प्रथा ने डाली है, उतनी और किसी भौतिक या दैविक क्रांति से भी नहीं हुई। इसने मिथ्या आदर्शों को हमारे सामने रख दिया और आज तक हम उन्हीं पुरानी, सड़ी हुई, लज्जाजनक पाशविक लकीरों को पीटते जाते हैं। व्रत केवल एक निरर्थक बंधन का नाम है। इतना महत्त्वपूर्ण नाम देकर हमने उस कैद को धार्मिक रूप दे दिया है। पुरुष क्यों चाहता है कि स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सर्वस्व समझे ? केवल इसलिए कि वह उसका भरण-पोषण करता है। क्या स्त्री का कर्त्तव्य केवल पुरुष की सम्पत्ति के लिए वारिस पैदा करना है? उस सम्पत्ति के लिए जिस पर, हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार, पति के देहान्त के बाद उसका कोई अधिकार नहीं रहता। समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा संगठन सम्पत्ति-रक्षा के आधार पर हुआ है। इसने सम्पत्ति को प्रधान और व्यक्ति को गौण कर दिया है। हमारे ही वीर्य से उत्पन्न सन्तान हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग करे, इस मनोभाव में कितनी स्वार्थान्धता, कितना दासत्व छिपा हुआ है, इसका कोई अनुमान नहीं कर सकता। इस कैद में जकड़ी हुई समाज की सन्तान यदि आज घर में, देश में, संसार में, अपने क्रूर स्वार्थ के लिए रक्त की नदियाँ बहा रही है, तो क्या आश्चर्य है। मैं इस वैवाहिक प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता हूँ।
भुवन चकित हो गया। मैं खुद चकित हो गई। विनोद ने इस विषय पर मुझसे कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं यह तो जानती थी, वह साम्यवादी हैं, दो-एक बार इस विषय पर उनसे बहस भी कर चुकी हूँ , पर वैवाहिक प्रथा के वे इतने विरोधी हैं, यह मुझे मालूम न था। भुवन के चेहरे से ऐसा प्रकट होता था कि उन्होंने ऐसे दार्शनिक विचारों की गंध तक नहीं पाई। जरा देर के बाद बोले—प्रोफेसर साहेब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल दिया। आखिर आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा रखना चाहते हैं या विवाह की आवश्यकता ही नहीं समझते ? जिस तरह पशु-पक्षी आपस में मिलते हैं, वह हमें भी करना चाहिए?
विनोद ने तुरंत उत्तर दिया—बहुत कुछ। पशु-पखियों में सभी का मानसिक विकास एक-सा नहीं है। कुछ ऐसे हैं, जो जोड़े के चुनाव में कोई विचार नहीं रखते। कुछ ऐसे हैं, जो एक बार बच्चे पैदा करने के बाद अलग हो जाते हैं, और कुछ ऐसे हैं, जो जीवनपर्यन्त एक साथ रहते हैं। कितनी ही भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। मैं मनुष्य होने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता हूँ, जो जीवनपर्यन्त एक साथ रहते हैं। मगर स्वेच्छा से। उनके यहाँ कोई कैद नहीं, कोई सजा नहीं। दोनों अपने-अपने चारे-दाने की फिक्र करते हैं। दोनों मिलकर रहने का स्थान बनाते हैं, दोनों साथ बच्चों का पालन करते हैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या मादा आ ही नहीं सकता, यहाँ तक कि उनमें से जब एक मर जाता है तो दूसरा मरते दम तक फुट्टैल रहता है। यह अन्धेर मनुष्य-जाति ही में है कि स्त्री ने किसी दूसरे पुरुष से हँसकर बात की और उसके पुरुष की छाती पर साँप लोटने लगा, खून-खराबे के मंसूबे सोचे जाने लगे। पुरुष ने किसी दूसरी स्त्री की ओर रसिक नेत्रों से देखा और अर्धांगिनी ने त्योरियाँ बदलीं, पति के प्राण लेने को तैयार हो गई। यह सब क्या है ? ऐसा मनुष्य-समाज सभ्यता का किस मुँह से दावा कर सकता है ?
भुवन ने सिर सहसलाते हुए कहा—मगर मनुष्यों में भी तो भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। कुछ लोग हर महीने एक नया जोड़ा खोज निकालेंगे।
विनोद ने हँसकर कहा—लेकिन यह इतना आसान काम न होगा। या तो वह ऐसी स्त्री चाहेगा, जो सन्तान का पालन स्वयं कर सकती हो या उसे एक मुश्त सारी रकम अदा करना पड़ेगी !
भुवन भी हँसे—आप अपने को किस श्रेणी में रक्खेंगे?
विनोद इस प्रश्न के लिए तैयार न थ। था भी बेढंगा-सा सवाल। झेंपते हुए बोले—परिस्थितियाँ जिस श्रेणी में ले जायँ। मैं स्त्री और पुरुष दोनों के लिए पूर्ण स्वाधीनता का हामी हूँ। कोई कारण नहीं है कि मेरा मन किसी नवयौवना की ओर आकर्षित हो और वह भी मुझे चाहे तो भी मैं समाज और नीति के भय से उसकी ओर ताक न सकूँ। मैं इसे पाप नहीं समझता।
भुवन अभी कुछ उत्तर न देने पाये थे कि विनोद उठ खड़े हुए। कालेज के लिए देर हो रही थी। तुरन्त कपड़े पहने और चल दिये। हम दोनों दीवानखाने में आकर बैठे और बातें करने लगे।
भुवन ने सिगार जलाते हुए कहा—‘कुछ सुना’ कहाँ जाकर तान टूटी?
मैंने मारे शर्म के सिर झुका लिया। क्या जवाब देती। विनोद की अन्तिम बात ने मेरे हृदय पर कठोर आघात किया था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनोद ने केवल मुझे सुनाने के लिए विवाह का यह नया खण्डन तैयार किया है। वह मुझसे पिंड छुड़ा लेना चाहते हैं। वह किसी रमणी की ताक में हैं, मुझसे उनका जी भर गया। वह ख्याल करके मुझे बड़ा दु:ख हुआ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। कदाचित् एकांत में मैं न रोती, पर भुवन के सामने मैं संयत न रह सकी। भुवन ने मुझे बहुत सांत्वना दी—‘आप व्यर्थ इतना शोक करती हैं। मिस्टर विनोद आपका मान न करें; पर संसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यक्ति है, जो आपके संकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रत्न पाकर संसार में ऐसा कौन पुरुष है, जो अपने भाग्य को धन्य न मानेगा। आप इसकी बिलकुल चिन्ता न करें।’
मुझे भुवन की यह बात बुरी मालूम हुई। क्रोध से मेरा मुख लाल हो गया। यह धूर्त मेरी इस दुर्बलता से लाभ उठाकर मेरा सर्वनाश करना चाहता है। अपने दुर्भाग्य पर बराबर रोना आता था। अभी विवाह हुए साल भी नहीं पूरा हुआ, मेरी यह दशा हो गई कि दूसरों को मुझे बहकाने और मुझ पर अपना जादू चलाने का साहस हो रहा है। जिस वक्त मैंने विनोद को देखा था, मेरा हृदय कितना फूल उठा था। मैंने अपने हृदय को कितनी भक्ति से उनके चरणों पर अर्पण किया था। मगर क्या जानती थी कि इतनी जल्द मैं उनकी आँखों से गिर जाऊँगी और मुझे परित्यक्ता समझ, फिर शोहदे मुझ पर डोरे डालेंगे।
मैंने आँसू पोंछते हुए कहा—मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ। मुझे जरा विश्राम लेने दीजिए।
‘हाँ-हाँ, आराम करें; मैं बैठा देखता रहूँगा।’
‘जी नहीं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मुझे आराम न मिलेगा।’
‘अच्छी बात है, आप आराम कीजिए। मैं सन्ध्या-समय आकर देख जाऊँगा।’
‘जी नहीं, आपको कष्ट करने की कोई जरूरत नहीं है।’
‘अच्छा तो मैं कल जाऊँगा। शायद महाराजा साहब भी आवें।’
‘नहीं, आप लोग मेरे बुलाने का इन्तजार कीजिएगा। बिना बुलाये न आइएगा।’
‘यह कहती हुई मैं उठकर अपने सोने के कमरे की ओर चली। भुवन एक क्षण मेरी ओर देखता रहा, फिर चुपके से चला गया।
बहन, इसे दो दिन हो गये हैं। पर मैं कमरे से बाहर नहीं निकली। भुवन दो-तीन बार आ चुका है, मगर मैंने उससे मिलने से साफ इनकार कर दिया। अब शायद उसे फिर आने का साहस न होगा। ईश्वर ने बड़े नाजुक मौके पर मुझे सुबुद्धि प्रदान की, नहीं तो मैं अब तक अपना सर्वनाश कर बैठी होती। विनोद प्राय: मेरे पास ही बैठे रहते हैं। लेकिन उनसे बोलने को मेरा जी नहीं चाहता। जो पुरुष व्यभिचार का दाशर्निक सिद्धांतों से समथर्न कर सकता है, जिसकी आँखों में विवाह-जैसे पवित्र बन्धन को कोई मूल्य नहीं, जो न मेरा हो सकता है, न मुझे अपना बना सकता है, उसके साथ मुझ-जैसी मानिनी गर्विणी स्त्री का कै दिन निर्वा होगा!
बस, अब विदा होती हूँ। बहन, क्षमा करना। मैंने तुम्हारा बहुत-सा अमूल्य समय ले लिया। मगर इतना समझ लो कि मैं तुम्हारी दया नहीं, सहानुभूति चाहती हूँ।
तुम्हारी,
पद्मा
10
काशी
5-1-26
बहन,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई उपन्यास पढ़कर उठी हूं। अगर तुम उपन्यास लिखों, तो मुझें विश्वास है, उसकी धूम मच जाय। तुम आप उसकी नायिका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें कहॉँ सीख गयी, मुझें तो यही आश्चर्य है। उस बंगाली के साथ तुम अकेली कैसी बैठी बातें करती रहीं, मेरी तो समझ नहीं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तुम विनोद को जलाना चाहती हो, उनके चित्त को अशांत करना चाहती हो। उस गरीब के साथ तुम कितना भयंकर अन्याय कर रही हो ! तुम यह क्यों समझती हो कि विनोद तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने विचारों में इतने मग्न है कि उनकी रुचि ही नहीं रही। संभव है, वह कोई दार्शनिक तत्व खोज रहें हो, कोई थीसिस लिख रहीं हो, किसी पुस्तक की रचना कर रहे हों। कौन कह सकता है ? तुम जैसी रुपवती स्त्री पाकर यदि कोई मनुष्य चिन्तित रहे, तो समझ लो कि उसके दिल पर कोई बड़ा बोझ हैं। उनको तुम्हारी सहानुभूति की जरुरत है, तुम उनका बोझ हलका कर सकती हों। लेकिन तुम उलटे उन्हीं को दोष देती हों। मेरी समझ में नही आता कि तुम एक दिन क्यों विनोद से दिल खोलकर बातें नहीं कर लेती, संदेह को जितनी जल्द हो सकें, दिल से निकाल डालना चाहिए। संदेह वह चोट है, जिसका उपच जल्द न हो, तो नासूर पड़ जाता है और फिर अच्छा नहीं होता। क्यों दो-चार दिनों के लिए यहॉँ नहीं चली आतीं ? तुम शायद कहो, तू ही क्यों नहीं चली आती। लेकिन मै स्वतन्त्र नही हूँ, बिना सास-ससुर से पूछे कोई काम नहीं कर सकती। तुम्हें तो कोई बंधन नहीं है।
बहन, आजकल मेरा जीवन हर्ष और शोक का विचित्र मिश्रण हो रहा हैं। अकेली होती हूँ, तो रोती हूं, आनन्द आ जाते है तो हॅंसती हूँ। जी चाहता है, वह हरदम मेरे सामने बैठे रहते। लेकिन रात के बारह बजे के पहले उनके दर्शन नहीं होते। एक दिन दोपहर को आ गयें, तो सासजी ने ऐसा डॉंटा कि कोई बच्चे को क्या डॉंटेगा। मुझें ऐसा भय हो रहा है कि सासजी को मुझसे चिढ़ हैं। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती हूँ। जो काम कभी न किये थे, वह उनके लिए करती हूँ, उनके स्नान के लिए पानी गर्म करती हूँ, उनकी पूजा के लिए चौकी बिछाती हूँ। वह स्नान कर लेती हैं, तो उनकी धोती छॉँटती हूँ, वह लेटती हैं तो उनके पैर दबाती हूँ; जब वह सो जाती है तो उन्हें पंखा झलती हूँ। वह मेरी माता हैं, उन्ही के गर्भ से वह रत्न उत्पन्न हुआ है जो मेरा प्राणधार है। मै उनकी कुछ सेवा कर सकूँ, इससे बढकर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात होगी। मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि वह मुझसे हँसकर बोले, मगर न जाने क्यों वह बात-बात पर मुझे कोसने दिया करती हैं। मैं जानती हूँ, दोष मेरा ही हैं। हॉँ, मुझे मालूम नहीं, वह क्या हैं। अगर मेरा यही अपराध है कि मैं अपनी दोनों नन्दों से रुपवती क्यों हूँ, पढ़ी-लिखी क्यों हूँ, आन्नद मुझें इतना क्यों चाहते हैं, तो बहन, यह मेरे बस की बात नही। मेरे प्रति सासजी को भ्रम होता होगा कि मैं ही आन्नद को भरमा रहीं हूँ। शायद वह पछताती है कि क्यों मुझें बहू बनाया ! उन्हे भय होता है कि कहीं मैं उनके बैटे को उनसे छीन न लूँ। दो-एक बार मुझे जादूगरनी कही चुकी हैं। दोनों ननदें अकारण ही मुझसे जलती रहती है। बड़ी ननदजी तो अभी कलोर हैं, उनका जलना मेरी समझ में नही आता। मैं उनकी जगह होती,तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोशिश करती, उनके चरण धो-धोकर पीती, पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ही में आन्नद आता हैं। मैं जानती हूँ, थोड़े दिनों में दोनों ननदें लज्जित होंगी। हॉँ, अभी वे मुझसे बिचकती हैं। मैं अपनी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न होने को कोई अवसर नहीं देती।
मगर रुप को क्या करुँ। क्या जानती थी कि एक दिन इस रुप के कारण मैं अपराधिनी ठहरायी जाऊँगी। मैं सच कहती हूँ बहन, यहाँ मैने सिगांर करना एक तरह से छोड़ ही दिया हैं। मैली-कुचैली बनी बेठी रहती हूँ। इस भय से कि कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न सिकोड़े, पुस्तकों को हाथ नहीं लगाती। घर से पुस्तकों का एक गटठर बॉँध लायी थी। उसमें कोई पुस्तकें बड़ी सुन्दर हैं। उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी चाहता हैं, मगर छरती हूँ कि कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदें मुझें देखती रहती हैं कि यह क्या करती हैं, कैसे बैठती है, कैसे बोलती है, मानो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा दिए गए हों। इन दोनों महिलाओं को मेरी बदगोई में क्यों इतना मजा आता हैं, नही कह सकती। शायद आजकल उन्हे सिवा दूसरा काम ही नहीं। गुस्सा तो ऐसा आता हैं कि एक बार झिढ़क दूँ, लेकिन मन को समझाकर रोक लेती हूँ। यह दशा बहुत दिनों नहीं रहेगी। एक नए आदमी से कुछ हिचक होना स्वाभाविक ही है, विशेषकर जब वह नया आदमी शिक्षा और विचार व्यवहार में हमसे अलग हो। मुझी को अगर किसी फ्रेंच लेडी के साथ रहना पड़े, तो शायद मे भी उसकी हरएक बात को आलोचना और कुतूहल की दृष्टि से देखने लगूँ। यह काशीवासी लोग पूजा-पाठ बहुत करते है। सासजी तो रोज गंगा-स्नान करने जाती हैं। बड़ी ननद भी उनके साथ जाती है। मैने कभी पूजा नहीं की। याद है, हम और तुम पूजा करने वालों को कितना बनाया करती थी। अगर मै पूजा करने वालों का चरित्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मै भी पूजा करती होती। लेकिन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव प्राप्त नहीं हुआ, पूजा करने वालियॉँ भी उसी तरह दूसरों की निन्दा करती हैं, उसी तरह आपस में लड़ती-झगड़ती हैं, जैसे वे जो कभी पूजा नहीं करतीं। खैर, अब मुझे धीरे-धीरे पूजा से श्रद्धा होती जा रही हैं। मेरे ददिया ससुरजी ने एक छोटा-सा ठाकुरद्वारा बनवा दिया था। वह मेरे घर के सामने ही हैं। मैं अक्सर सासजी के साथ वहॉँ जाती हूँ और अब यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उन विशाल मूर्तियों के दर्शन से मुझे अपने अतस्तल में एक ज्योति का अनुभव होता है। जितनी अश्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के जीवन की आलोचना किया करती थी, वह बहुत कुछ मिट चुकी हैं।
लेकिन रुपवती होने का दण्ड यहीं तक बस नहीं है। ननदें अगर मेरे रुप कों देखकर जलती हैं, तो यह स्वाभाविक हैं। दु:खी तो इस बात का है कि यह दण्ड मुझे उस तरफ से भी मिल रहा है, जिधर से इसकी कोई संभावना न होनी चाहिए—मेरे आनन्द बाबू भी मुझे इसका दण्ड दे रहे है। हॉँ, उनकी दण्डनीति एक निराले ही ढग की हैं। वह मेरे पास नित्य ही कोई-न-कोई सौगात लाते रहते है। वह जितनी देर मेरे पास रहते है। उनके मन में यह संदेह होता रहता है कि मुझे उनका रहना अच्छा नहीं लगता। वह समझते है कि मैं उनसे जो प्रेम करती हूँ, यह केवल दिखावा है, कोशल है।। वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबायें, सिमटे-सिमटायें रहते है कि मैं मारे लज्जा के मर जाती हूँ। उन्हें मुझसे कुछ कहते हुए ऐसा संकोच होता है, मानो वह कोई अनाधिकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए कोई आदमी उज्जवल वस्त्र पहनने वालों से दूर ही रहना चाहता है, वही दशा इनकी है। वह शायद समझते हैं कि किसी रुपवती स्त्री को रूपहीन पुरुष से प्रेम हो ही नहीं सकता। शायद वह दिल में पछतातें है कि क्यों इससे विवाह किया। शायद उन्हें अपने ऊपर ग्लानि होती है। वह मुझे कभी रोते देख लेते है, तो समझते है। मैं अपने भाग्य को रों रही हूँ, कोई पत्र लिखते देखते हैं, तो समझते है, मैं उनकी रुपहीनता ही का रोना रो रही हूँ। क्या कहूँ बहन, यह सौन्दर्य मेरी जान का गाहक हो गया। आनन्द के मन से शंका को निकालने और उन्हें अपनी ओर से आश्वासन देने के लिए मुझे ऐसी-ऐसी बातें करनी पड़ती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते हैं, जिन पर मुझे घृणा होती हैं। अगर पहले से यह दशा जानती, तो ब्रह्मा से कहती कि मुझे कुरूपा ही बनाना। बड़े असमंजस में पड़ी हूँ! अगर सासजी की सेवा नहीं करती, बड़ी ननदजी का मन नहीं रखती, तो उनकी ऑंखों से गिरती हूँ। अगर आनन्द बाबू को निराश करती हूँ, तो कदाचित् मुझसे विरक्त ही हो जायँ। मै तुमसे अपने हृदय की बात कहती हूँ। बहन, तुमसे क्या पर्दा रखना है; मुझे आनन्द बाबू से उतना प्रेम है, जो किसी स्त्री को पुरूष से हो सकता है, उनकी जगह अब अगर इन्द्र भी सामने आ जायँ, तो मै उनकी ओर ऑख उठाकर न देखूँ। मगर उन्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ। मै देखती हूँ, वह किसी न किसी बहाने से बार-बार घर मे आते है और दबी हुई, ललचाई हुई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर देखते है, तो जी चाहता है, जाकर उनका हाथ पकड़ लूँ और अपने कमरे में खींच ले आऊँ। मगर एक तो डर होता है कि किसी की ऑंख पड़ गयी, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी बड़ा डर यह कि कहीं आनन्द इसे भी कौशल ही न समझ बैठे। अभी उनकी आमदनी बहुम कम है, लेकिन दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उड़ाते हैं। अगर प्रेमोपहार-स्वरूप वह धेले की कोई चीज दें, तो मैं उसे ऑंखों से लगाऊँ, लेकिन वह कर-स्वरूप देते हैं, मानो उन्हें ईश्वर ने यह दण्ड दिया हैं। क्या करूँ, अब मुझे भी प्रेम का स्वॉँग करना पड़ेगा। प्रेम-प्रदर्शन से मुझे चिढ़ हैं। तुम्हें याद होगा, मैने एक बार कहा था कि प्रेम या तो भीतर ही रहेगा या बाहर ही रहेगा। समान रूप से वह भीतर और बाहर दोनों जगह नहीं रह सकता। सवॉँग वेश्याओं के लिए है, कुलवंती तो प्रेम को हृदय ही में संचित रखती हैं!
बहन, पत्र बहुत लम्बा हो गया, तुम पढ़ते-पढ़ते ऊब गयी होगी। मैं भी लिखते-लिखते थक गयी। अब शेष बातें कल लिखूँगी। परसों यह पत्र तुम्हारे पास पहूँचेगा।
बहन, क्षमा करना; कल पत्र लिखने का अवसर नहीं मिला। रात एक ऐसी बात हो गयी, जिससे चित्त अशान्त उठा। बड़ी मुश्किलों से यह थोड़ा-सा समय निकाल सकी हूँ। मैने अभी तक आनन्द से घर के किसी प्राणी की शिकायत नहीं की थी। अगर सासजी ने कोई बात की दी या ननदजी ने कोई ताना दे दिया; तो इसे उनके कानों तक क्यों पहुँचाऊँ। इसके सिवा कि गृह-कलह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आयेगा। इन्हीं जरा-जरा सी बातों को न पेट में डालने से घर बिगड़ते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता हैं। मगर संयोग की बात, कल अनायास ही मेरे मुंह से एक बात निकल गयी जिसके लिये मै अब भी अपने को कोस रहीं हूँ, और ईश्वर से मनाती हूँ कि वह आगे न बढ़े। बात यह हुई कि कल आन्नद बाबू बहुत देर करके मेरे पास आये। मैं उनके इन्तार में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी ने आकर पूछा—क्या अभी तक बिजली जल रही है? क्या वह रात-भर न आयें, तो तुम रात-भर बिजली जलाती रहोगी?
मैनें उसी वक्त बत्ती ठण्डी कर दी। आनन्द बाबू थोड़ी ही देर मे आयें, तो कमरा अँधेरा पड़ा था न-जाने उस वक्त मेरी मति कितनी मन्द हो गयी थी। अगर मैने उनकी आहट पाते ही बत्ती जला दी होती, तो कुछ न होता, मगर मैं अँधेरे में पड़ी रहीं। उन्होनें पूछा—क्या सो गयीं? यह अधेरा क्यों पड़ा हुआ है?
हाय! इस वक्त भी यदि मैने कह दिया होता कि मैने अभी बती गुल कर दी तो बात बन जाती। मगर मेरे मुँह से निकला—‘सांसजी का हुक्म हुआ कि बत्ती गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात-भर न आओ, तो क्या रातभर बत्ती जलती रहें?’
‘तो अब तो जला दो। मै रोशनी के सामने से आ रहा हूँ। मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं।’
‘मैने अब बटन को हाथ से छूने की कसम खा ली है। जब जरूरत पड़गी; तो मोम की बत्ती जला लिया करूँगी। कौन मुफ्त में घुडकियॉँ सहें।’
आन्नद ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा—‘और मैने कसम खा ली कि रात-भर बत्ती जलेगी, चाहे किसी को बुरा लगे या भला। सब कुछ देखता हूँ, अन्धा नहीं हूँ। दूसरी बहू आकर इतनी सेवा करेगी तो देखूँगा; तुम नसीब की खोटी हो कि ऐसे प्राणियों के पाले पड़ी। किसी दूसरी सास की तुम इतनी खिदमत करतीं, तो वह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिए रहती, मगर यहॉँ चाहे प्राण ही दे दे, किसी के मुँह से सीधी बात न निकलेगी।’
मुझे अपनी भूल साफ मालूम हो गयी। उनका क्रोध शान्त करने के इरादे से बोली—गलती भी तो मेरी ही थी कि व्यर्थ आधी रात तक बत्ती जलायें बैठी रही। अम्मॉँजी ने गुल करने को कहा, तो क्या बुरा कहा ? मुझे समझाना, अच्छी सीख देना, उनका धर्म हैं। मेरा धर्म यही है कि यथाशक्ति उनकी सेवा करूँ और उनकी शिक्षा को गिरह बाँधूँ।
आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे। फिर बोले—मुझे मालूम हो रहा है कि इस घर में मेरा अब गुजर न होगा। तुम नहीं कहतीं, मगर मै सब कुछ सुनता रहता हूँ। सब समझता हूँ। तुम्हें मेरे पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा हैं। मै कल अम्मॉँजी से साफ-साफ कह दूँगा—‘अगर आपका यही व्यवहार है, तो आप अपना घर लीजिए, मै अपने लिए कोई दूसरी राह निकाल लूँगा।’
मैंने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा—नहीं-नहीं। कहीं ऐसा गजब भी न करना। मेरे मुँह में आग लगे, कहॉँ से कहाँ बत्ती का जिकर कर बैठी। मैं तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ, मुझे न सासजी से कोई शिकायत है, न ननदजी से, दोनों मुझसे बड़ी है, मेरी माता के तुल्य हैं। अगर एक बात कड़ी भी कह दें, तो मुझे सब्र करना चाहिए! तुम उनसे कुछ न कहना नहीं तो मझे बड़ा दु:ख होगा।
आनन्द ने रुँधे कंठ से कहा—तुम्हारी-जैसी बहू पाकर भी अम्मॉँजी का कलेजा नहीं पसीजता, अब क्या कोई स्वर्ग की देवी घर में आती? तुम डरो मत, मैं ख्वाहमख्वाह लड़ूँगा नहीं। मगर हॉँ, इतना अवश्य कह दूँगा कि जरा अपने मिजाज को काबू में रखें। आज अगर मै दो-चार सौ रुपयें घर में लाता होता, तो कोई चूँ न करता। कुछ कमाकर नहीं लाता, यह उसी का दण्ड है। सच पूछों, तो मुझे विवाह करने का कोई अधिकार ही न था। मुझ-जैसे मन्द बुद्धि को, जो कौड़ी कमा नहीं सकता, उसे अपने साथ किसी महिला को डुबाने का क्या हक था! बहनजी को न-जाने क्या सूझी है कि तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं। ससुराल का सफाया कर दिया, अब यहॉँ भी आग लगाने पर तुली हुई है। बस, पिताजी का लिहाज करता हूँ, नहीं इन्हें तो एक दिन में ठीक कर देता।
बहन, उस वक्त तो मैने किसी तरह उन्ही शान्त किया, पर नहीं कह सकती कि कब वह उबल पड़े। मेरे लिए वह सारी दुनियां से लड़ाई मोल ले लेगें। मै जिन परिस्थितयों में हूँ, उनका तुम अनुमान कर सकती हो। मुझ पर कितनी ही मार पड़े मुझे रोना न चाहिए, जबान तक न हिलाना चाहिए। मैं रोयी और घर तबाह हुआ। आनन्द फिर कुछ न सुनेगे, कुछ न देखेगें। कदाचित इस उपाय से वह अपने विचार मे मेरे हृदय में अपने प्रेम का अंकुर जमाना चाहते हो। आज मुझे मालूम हुआ कि यह कितने क्रोधी हैं। अगर मैने जरा-सा पुचार दे दिया होता, तो रात ही को वह सासजी की खोपड़ी पर जा पहुँचते। कितनी युवतियॉँ इसी अधिकार के गर्व में अपने को भूल जाती हैं। मै तो बहन, ईश्वर ने चाहा तो कभी न भूलूँगी। मुझे इस बात का डर नहीं है कि आनन्द अलग घर बना लेगें, तो गुजर कैसे होगा। मै उनके साथ सब-कुछ झेल सकती हूँ। लेकिन घर तो तबाह हो जायेगा।
बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ही। पत्र का जवाब जल्द देना।
तुम्हारी,
चन्दा
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