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जेल Jel Premchand's Hindi story

जेल Jel Premchand's Hindi story

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जेल

 

लोग जमा नहीं होते; लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालो को तैश आ गया। लाठियाँ ले –लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो-चार आदमियों ने लाठियॉँ चलायी भी हो। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू की। दो-तीन सिपाहियों को  हल्की चोटे आयी । उसके बदले में बारह आदमियों मी जानें ले ली गयी और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गयें इन छोटे-छोटे आदमियों को इसलिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि उनका दुरुपयोग करें। आधे गॉँव का कत्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हुई लौट गयी । गॉंव वालो की फरियाद कौन सुनता ! गरीब है, अपंग है, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत ओर हाकिमों से तो उन्होने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया । आखिर सरकार ही ने  तो कांस्टेबलों को यह मुहिम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फरियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का दिल फरियाद करने किये बगैर नहीं मानता। गांववालों ने अपने शहरों के भाइयों से फरियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती, हमदर्दी तो करती है। दु:ख-कथा सुनकर आंसू तो बहाती है। दुखियारों  को  हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते । अगर आस-पास के गँवो के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते तो गरीबों के आँसू- पूँछ जाते; किन्तु पुलिस ने उस गॉँव की नाकेबंदी कर रखी थी, चारो सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे । यह घाव पर नमक था मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। अखिर लोगों ने लाशे उठायीं और शहर वालों को अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले । इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गयी थी । इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गयी और जब पुलिस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लायें । बहुत बड़ा जमाव हो गया । मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे । और मैंने उन्हें रोका-मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे – मैं किसी से लड़ने थोड़े ही जाता हूँ । जब सरकार की आज्ञा के विरूद्ध जनाजा चला तो पचास हजार आदमी साथ थे । उधर पॉँच सौ सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी- सवार, प्यादे, सारजट – पूरी फौज थी । हम निहत्थों के सामने इन नामर्दो को तलवारे चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती ! जब बार-बार पुलिस की धमकियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियॉँ चलाने का हुक्म हो गया । घंटे- भर बराबर फैर होते रहै, घंट-भर तक ! कितने मरे, कितने घायल हुए, कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है । मैं छज्जे पर खड़ी,  दोनों हाथों से दिल, थामे, कांपती थी । पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गयी । हजारों आदमी बदहवास भागे चले आ रहे थे । बहन ! वह दृश्य अभी तक आखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद ! ऐसा जान पड़ता था  कि लागों के प्राण ऑखों से निकल पड़ते है; मगर इन भागने वालो की पीछे वीर व्रतधारियों का दल था, जो पर्वत की भांति अटल खड़ा छातियों कपर गोलियाँ खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था बन्दूकों की आवाजें साफ सुनायी देती थीं और हरे धायँ-धायँ के बाद हजारों गलों से जय की गहरी गगन-भेदी ध्वनि निकलती थी। उस ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी ! कितना आकर्षण ! कितना उन्माद ! बस, यही जी चाहता था कि जा कर गोलियो के सामने खड़ी हो जाऊँ  हॅंसत-हॅंसते मर जाऊँ । उस समय ऐसा भान होता था कि मर जाना कोई खेल है। अम्मॉं जी कमरे में भान को लिए मुझे बार-बार भीतर बुला रही थीं । जब मैं न गयी, तो वह भान को लिए हुए  छज्जे पर आ गयी। उसी वक्त दस–बारह आदमी एक स्ट़ेचर पर ह्रदयेश की लाश लिए हुए द्वार पर आये । अम्मॉं की उन पर नजर पड़ी । समझ गयी। मुझे तो सकता-सा हो गया । अम्माँ ने जाकर एक बार बेटे का देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा, आशिर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरास्ते की तरफ चली, जहां से अब भी धांय और जय की ध्वनि बारी –बारी से आ रही थी । मैं हतबुद्धि- सी खड़ी कभी स्वामी की लाश को देखती थी, कभी अम्माँ को । न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोयी, न घबरायी ।मुसमें जेसे स्पंदन ही न था ।चेतना जेसे लुप्त हो गयी हो।
क्षमा—तो क्या अम्माँ भी गोलियों के स्थान पर पहुंच गयी?
मृदृला – हॉँ, यही तो विचित्रता है बहन ! बंदूक की आवाजें सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं, खून देखकर मूर्छित हो ताजी थीं । वही अम्मां वीर सत्याग्रहियों का सफों को चीरती हुई सामने खड़ी हो गयी और एक ही क्षण में उनकी लाश भी जमीन पर गिर पड़ी । उनके गिरते ही योद्धाओं का धेर्य टूट गया। व्रत का बंधन टूट गया। सभी के सिरों पर खून –सा सवार हो गया । निहत्थे थे, अशक्त थे, पर हर एक अपने  अंदर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था पुलिस पर धावा कर दिया । सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते- देखा तो होश जाते रहै। जानें लेकर भागे,  मगर भागते हुए भी गोलियाँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था, न जाने किधर से एक गोली आकर उसकी छाती में लगी । मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा , सांस तक  न ली; मगर मेरी आंखों में अब भी आंसू न थे । मेने प्यारे भान को गोद मे उठा लिया। उसकी छाती से खून से के फव्वारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह खून से अदा कर रहा था । उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था जो शायद उसके विवाह में गुलाल से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता । लड़कपन, जवानी और मौत ! तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गयी । मैने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया । इतने में कई स्वंय अम्मां जी को भी लाये । मालूम होता था, लेटी हुई मुस्करा रही है। मूझे तो रोकती रहती थीं ओर  खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ी, मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो ! बेटे ही के लिए जीती थीं, बेटे को अकेला कैसे छोड़तीं।
जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गयीं, तब मेरा सकता टुटा, होश आया । एक बार जी में आया चिता में जा बैठू, सारा कुनबा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुंचे । लेकिन फिर सोचा–तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले? बहन चिता का लपटों में मुझे ऐसा मालुम हो रहा था कि अम्मॉ जी सचमुच भान को गोद में लिए बैठी मुस्करा रहीं है और स्वामी जी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चित होकर काम करो। मुझ पर कितना तेज था। रक्त और अग्नि ही में तो देवता बसेत हैं।
मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चितॉँए जल रही थीं। दूर से वह चितवली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्टियॉँ जलायीं  हों ।
जब चितांए राख हो गयी; तो हम लोग लोटे; लेकिन उस घर मे जाने की हिम्मत न पड़ी। मेरे लिए अब वह घर, घर न था! मेरा घर तो अब यह है, जहाँ बैठी हूं, या  फिर  वही चिता।  मैंने घर का द्वार भी न खोला। महिला आश्रम में चली गयी। कल की गोलियों में कांग्रेस–कमेटी का सफया हो गया था। यह संस्था बागी बना डाली गयी थी। उसके दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा और उस पर अपना ताला डाल दिया । महिला आश्रम पी भी हमला हुआ । उस पर अपना ताला डाल दिया ।  हमने एक वृक्ष की छॉँह में अपना नया दफ्तर बनाया और स्वच्छंदता के साथ काम करते रहे।  यहॉ दीवारें हमें कैद न करी सकती थीं । हम भी वायु के समान  मुक्त थे।
संध्या समय हमने एक जुलूस निकालने का फैसला किया । कल के रक्तपात की स्मृति, हर्ष और मुबारकबाद में जुलूस निकालना आवयश्क था। लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से क्या होता है? इससे यह सिद्ध होता है कि हमजीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं है। हमें अपने हार न मानने वाले आत्मभिमान का प्रमाण देना था ।  हमें यह दिखाना था कि, हम गोलियों और अत्याचार से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अन्त करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थ-परता और खून पर है। उधर पुलिस ने भी जुलूस को रोककर अपनी शाक्ति ओर बिजय का प्रमाण देना आवश्यक समझा। शायद जनता को धोखा हो  गया हो कि कल की दुघर्टना ने नौकरशाही का नैतिक ज्ञान जाग्रत कर दिया है इस धोखे को दूर करना उसने अपना कर्त्तव्य समझा । वह यह दिखा देना चाहती थी कि हम तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हारी खुशी या नाराजी की हमें परवाह नहीं हैं। जुलूस निकालने की मनाही  हो गयी । जनता को चेतावनी दी  गई गयी कि खबरदार जुलूस  में न आना , नहीं दुर्गति होगी। इसका जनता ने वह जवाब दिया, जिसने अधिकारयों की आंखे खोल दी होगी । संध्या समय पचास हजार  आदमी जमा हो गये । आज का नेतृत्व मुझे सौंपा गया था । में अपने ह्रदय में एक विचित्र बल उत्साह का अनुभव कर रही थी। एक अबला स्त्री जिसे संसार का कुछ ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पॉव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्सर्ग की बदौलत उस महान् पद पर पहुँच गयी थी, जो बड़े-बड़े अफसरों को भी, बड़े-से-बड़े महाराजा को भी प्राप्त नहीं- में इस समय जनता के  ह्रदय पर राज कर रही थी । पुलिस अधिकारियों की इसीलिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुलामी उससे सब कुछ करवा लेती है। महाराजा का हुक्म लोग इसलिए मानते है कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है । यह अपार जन-समुह क्या मुझसे किसी फायदे की आशा रखता था, उसे मुझसे किसी हानि का भय था? कदापि नहीं । फिर भी वह कड़े-से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार था इसलिए कि जनता मेर बलिदानों का आदर करती थीं, इसलिए कि उनके दिलों में स्वाधीनता की जो तड़प थी, गुलामी के जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचैनी थी मै उस तड़प और बैचैनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही थीं निश्चित समय पर जुलूस ने प्रस्थान किया । उसी बक्त पुलिस ने मेरी गिरफ्तारी का वारंट दिखाया। वारंट देखते ही तुम्हारी याद आयी। अब मुझे तुम्हारी जरूरत है। उस वक्त तुम मेरी हमदर्दी की भूखी थीं । अब मैं सहानुभूति की  भिक्षा मांग रही हूं । मगर मुझमें अब लेशमात्र भी दुर्बलता नहीं हैं मैं चिंताओं से मुक्त हूं । मैजिस्ट्रेट जो कठोर-से कठोर दंड प्रदान करे उसका स्वागत करूंगी । अब मैं पुलिस के किसी आक्षेप का असत्य आरोपण का प्रतिपाद न करूंगी; क्योंकि मैं जानती हूँ, मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूं, जेल के अन्दर रहकर उससे कहीं ज्यादा कर सकती हूँ। जेल के बाहर भूलों की सम्भावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिन्ता है, जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान कदम नहीं  रख सकता । मैदान में जलता हुआ अलाव वायु मे अपनी उष्णता को खो देता है; लेकिन इंजिन में बन्द होकर वही आग संचालक शक्ति का अखंड भंडार बन जाती है।

अन्य देवियाँ भी आ पहुंचीं और मृदृला सबसे गले मिलने लगी ।  फिर ‘भारत माता की जय’ की ध्वनि जेल  की दीवारों को चीरती हुई आकाश में जा पहुँची ।

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