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शेख मखमूर प्रेमचंद shekh makhamoor Premchand's Hindi story

शेख मखमूर प्रेमचंद shekh makhamoor Premchand's Hindi story

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शेख मखमूर

 

तीर का निशाना बनाया गया और हुक्म मिला कि तलवार कमर से खोलकर रख दे।
मसऊद स्तम्भित रह गया। ये तेगा मैंने अपने बाप से विरसे में पाया है और यह मेरे पिछले बड़प्पन कि आखिरी यादगार है। यह मेरी बॉँहों की ताकत और मेरा सहयोगी और मददगार है। इसके साथ कैसी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं, क्या मैं जीते जी इसे अपने पहलू से अलग कर दूँ? अगर मुझ पर कोई आदमी लड़ाई के मैदान से कदम हटाने का इलजाम लगा सकता, अगर कोई शख्त इस तेगे का इस्तेमाल मेरे मुकाबिले में ज्यादा कारगुजारी के साथ कर सकता, अगर मेरी बॉँहों में तेग पकड़ने की ताकत न होती तो खुदा की कसम, मैं खुद ही तेगा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इल्जामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूँ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहनेवाले कुछ थोड़-से डाहियों ने सरदार नमकखोर का मन मेरी तरफ से फेर दिया है? ऐसा नहीं हो सकता।
मगर फिर उसे ख्याल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायेंगे और यकीनन मुझे तलवार शमशीर के जोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कनेवाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। जरूर आपस में खून की नदियॉँ बहेंगी और भाई-भाई का सिर कटेगा। खुदा न करे कि मरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सदरार नमकखोर के बगल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कुवत से गुस्से को दबाता हुआ खेमे से बाहर निकल आया।
मसऊद पर सारी फौज गर्व करती थी और उस पर जानें वारने के लिए हथेली में लिये रहती थी। जिस वक्त उसने तलवार खोली है, दो हजार सूरमा सिपाही मियान पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकते कनौतियॉँ बदल रहे थे। मसऊद के एक जरा-से इशारे की देर थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में बेजोड़ न था, जब्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह जिल्लत और बदनामी सब गवार की, तलवार देना गवारा किया, बगावत का इलजाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फौज में बगावत और हुक्म न मानने का ख्याल पैदा हो। और ऐसे नाजुक वक्त में जबकि कितने ही दिलेर, जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी बहादुरी का सबूत दिया खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी परेशानी पर जरा भी बल न आया, उसके तेवर जरा भी न बदले। उसने खून बरसाती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहॉँ से उठा तो उसके दिल ने फैसला कर लिया था कि बदनामी का दाग माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा।
मसऊद ने फकीरों का भेष अख्तियार किया, सर पर लोहे की टोपी के बजाय लम्बी जटाएं बनायीं, जिस्म पर जिरहबख्तर के बजाय गेरुए रंगा का बाना सजा हाथ में तलवार के बजाय फकीरों का प्याला लिया। जंग के नारे के बजाय फकीरों की सदा बुलन्द की ओर अपना नाम शेख मखमूर रख दिया। मगर यह जोगी दूसरे जोगियों की तरह धूनी रमाकर न बैठा और न उस तरह का प्रचार शुरू किया। वह दुश्मन की फौज में जाता और सिपाहियों की बातें सुनता। कभी उनकी मोर्चेबन्दियों पर निगाह दौड़ाता, कभी उनके दमदमों और किलों की दीवारों का मुआइना करता। तीन बार सरदार नमकखोर दुश्मन के पंजे से ऐसे वक्त निकले जबकि उन्हें जान बचने की कोई आस न रही थी। और यह सब शेख मखमूर की करामात थी। मिनकाद का किला जीतना कोई आसान बात न थी। पाँच हजार बहादुर सिपाही उसकी हिफाजत के लिए कुर्बान होने को तैयार बैठे थे। तीस तोपें आग के गोले उगलने के लिये मुंह खोले हुए थीं और दो हजार सधे हुए तीरन्दाज हाथों में मौत का पैगाम लिये हुए हुक्म का इन्तजार कर रहे थे। मगर जिस वक्त सरदार नमकखोर अपने दो हजार बहादुरों के साथ इस किले पर चढ़ा हो गये और तीरन्दाजों के तीर हवा में उड़ने लगे। और वह सब शेख मखमूर की करामात थी। शाह साहब वहीं मौजूद थे। सरदार दौड़कर उनके कदमों पर गिर पड़ा और उनके पैरों की धुल माथे पर लगायी।

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किशवरकुशा दोयम का दरवार सजा हुआ है। अंगूरी शराब का दौर चल रहा है और दरबार के बड़े-बड़े अमीर और रईस अपने दर्जे के हिसाब से अदब के साथ घुटना मोड़े बैठे हैं। यकायक भेदियों ने खबर दी कि मीर शुजा की हार हुई और जान से मारे गये। यह सुनकर किशवरकुशा के चेहरे पर चिन्ता दिलेर कौन है जो इस बदमाश सरदार का सर कलम करके हमारे सामने पेश करे। इसकी गुस्ताखियॉँ अब हद से आगे बढ़ी जाती हैं। आप ही लोगों के बड़े-बूढ़ों ने यह मुल्क तलवार के कजोर से मुरादिया खानदान से छीना था। क्या आप उन्हीं पूरखों की औलाद नहीं है? यह सुनते ही सरदारों में एक सन्नाटा छा गया, सबके चेहरे पर हवाइयॉँ उड़ने लगीं और किसी की हिम्मत न पड़ी कि बादशाह की दावत कबूल करे। आखिरकार शाह किशवरकुशा के बुड्ढे चचा खुद उठे और बोले-ऐ शाह जवॉँबख्त! मैं तेरी दावत कबूल करता हूँ, अगरचे मैं बुड्ढा हो गया हूँ और बाजुओं में तलवार पकड़ने की ताकत बाकी नहीं रही, मगर मेरे खून में वही गर्मी और दिल में वही जोश है जिसकी बदौलत हमने यह मुल्क शाह बामुराद से लिया था। या तो मैं इस नापाक कुत्ते की हस्ती खाक में मिला दूँगा या इस कोशिश में अपनी जान निसार कर दूँगा, ताकि अपनी ऑंखों से सल्तनत की बर्बादी न देखूँ। यह कहकर अमीर पुरतदबीर वहॉँ से उठा और मुस्तैदी से जंगी तैयारियों में लग गया। उसे मालूम था कि यह आखिरी मुकाबिला है और अगर इसमें नाकाम रहे तो मर जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। उधर सरदार नमकखोर धीरे-धीरे राजधानी की तरफ बढ़ता आता था, यकायक उसे खबर मिली कि अमीर पुरतदबीर बीस हजार पैदल और सवारों के साथ मुकाबिले के लिए आ रहा है।
यह सुनते ही सरदार नमकखोर की हिम्मतें छुट गयी। अमीर पुरतदबीर बुढ़ापे के बावजूद अपने वक्त का एक ही सिपहसालार था। उसका नाम सुनकर बड़े-बड़े बहादुर कानों पर हाथ रख लेते थे। सरदार नमकखोर का खयाल था कि अमीर कहीं एक कोने में बैठे खुदा की इबादत करते होंगे। मगर उनको अपने मुकाबिले में देखकर उसके होश उड़ गये कि कहीं ऐसा न हो कि इस हार से हम अपनी सारी जीत खो बैठें और बरसों की मेहनत पर पानी फिर जाय। सबकी यही सलाह हुई कि वापस चलना ही ठीक है। उस वक्त शेख मखमूर ने कहा-ऐ सरदार नमकखोर ! तूने मुल्के जन्नतनिशॉँ को छुटकारा दिलाने का बीड़ा उठाया है। क्या इन्हीं हिम्मतों से तेरी आरजुएँ पूरी होंगी? तेरे सरदार और सिपाहियों ने कभी मैदान से कदम पीछे नहीं हटाया, कभी पीठ नहीं दिखायी, तीरों की बौछार को तुमने पानी की फुहार समझा और बन्दूकों की बाढ़ को फूलों की बहार। क्या इन चीजों से इतनी जल्दी तुम्हारा जी भर गया? तुमने यह लड़ाई सल्तनत को बढ़ाने के कमीने इरादे से नहीं छेड़ी है। तुम सच्चाई और इन्साफ की लड़ाई लड़ रहे हो। क्या तुम्हारा जोश इतनी जल्द ठंडा हो गया? क्या तुम्हारी इंसाफ की तलवार की प्यास इतनी जल्द बुझ गयी? तुम खूब जानते हो कि इंसाफ और सच्चाई की जीत जरूर होगी, तुम्हारी इन बहादुरियों का इनाम खुदा के दरबार से जरूर मिलेगा। फिर अभी से क्यों हौसले छोड़े देते हो? क्या बात है, अगर अमीर पुरतदबीर बड़ा दिलेर और इरादे का पक्का सिपाही है? अगर वह शेर है तो तुम शेर मर्द हो; अगर उसकी तलवार लोहे की है तो तुम्हारा तेगा फौलाद का है; अगर उसके सिपाही जान पर खेलनेवाले हैं तो तुम्हारे सिपाही भी सर कटाने के लिए तैयार हैं। हाथों में तेगा मजबूत पकड़ो और खुदा का नाम लेकर दुश्मन पर टूट पड़ो। तुम्हारे तेवर कहे देते हैं कि मैदान तुम्हारा है।
इस पुरजोश, तकरीर ने सरदारों के हौसले उभार दिये। उनकी आंखें लाल हो गईं, तलवारें पहलू बदलने लगीं और कदम बरबस लड़ाई के मैदान की तरफ बढ़े। शेख मखमूर ने तब फकीरी बाना उतार फेंका, फकीरी प्याले को सलाम किया और हाथों में वही तलवार और ढाल लेकर, जो किसी वक्त मसऊद से छीन गये थे, सरदार नमकखोर के साथ-साथ सिपाहियों और अफसरों का दिल बढ़ाते शेरों की तरह बिफरता हुआ चला। आधी रात का वक्त था, अमीर के सिपाही अभी मंजिलें मारे चले आते थे। बेचारे दम भी न लेने पाये थे कि एकाएक सरदार नमकखोर के आ पहुँचने की खबर पाई। होश उड़ गये और हिम्मतें टूट गईं। मगर अमीर शेर की तरह गरजकर खेमे से बाहर आया और दम के दम में अपनी सारी फौज दुश्मन के मुकाबले में कतार बॉँधकर खड़ी कर दी कि जैसे माली था कि आया और इधर-उधर बिखरे हुए फूलों को एक गुलदस्ते में सजा गया।
दोनों फौजें काले-काले पहाड़ों की तरह आमने-सामने खड़ी हैं। और तोपों का आग बरसाना ज्वालामुखी का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। उनकी धनगरज आवाज से बला का शोर मच रहा था। यह पहाड़ धीरे धीरे आगे बढ़ते गये। यकायक वह टकराये और कुछ इस जोर से टकराये कि जमीन कॉँप उठी और घमासान की लड़ाई शुरू हो गई। मसऊद का तेगा इस वक्त एक बला हो रहा था, जिधर पहुँचता लाशों के ढेर लग जाते और सैकड़ों सर उस पर भेंट चढ़ जाते।
पौ फटे तक तेगे यों ही खड़का किये और यों ही खून का दरिया बहता रहा। जब दिन निकला तो लड़ाई का मैदान मौता का बाजार हो रहा था। जिधर निगाह उठती थी, मरे हुओं के सर और हाथ-पैर लहू में तैरते दिखाई देते थे। यकायक शेख मखमूर की कमान से एक तीर बिजली बनकर निकला और अमीर पुरतबीर की जान के घोंसले पर गिरा और उसके गिरते ही शाही फौज भाग निकली और सरदारी फौज फतेह का झण्डा उठाये राजधानी की तरफ बढ़ी।

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जब यह जीत की लहर-जैसी फौज शहर की दीवार के अन्दर दाखिल हुई तो शहर के मर्द और औरत, जो बड़ी मुद्दत से गुलामी की सख्तियॉँ झेल रहे थे, उसकी अगवानी के लिए निकल पड़े। सारा शहर उमड़ आया। लोग सिपाहियों को गले लगाते थे और उन पर फूलों की बरखा करते थे कि जैसे बुलबुलें थीं जो बहेलिये के पंजे से रिहाई पाने पर बाग में फूलों को चूम रही थीं। लोग शेख मखमूर के पैरों की धूल माथे से लगाते थे और सरदार नमकखोर के पैरों पर खुशी के ऑंसू बहाते थे।
अब मौका था कि मसऊद अपना जोगिया भेस उतार फेंके और ताजोतख्त का दावा पेश करे। मगर जब उसने देखा कि मलिका शेर अफगन का नाम हर आदमी की जबान पर है तो खामोश हो रहा। वह खूब जानता था कि अगर मैं अपने दावे को साबित कर दूँ तो मलिका का दावा खत्म हो जायेगा। मगर तब भी यह नामुमकीन था कि सख्त मारकाट के बिना यह फैसला हो सके। एक पुरजोश और आरजूमन्द दिल के लिए इस हद जब्त करना मामूली बात न थी। जब से उसने होश संभाला, यह ख्याल कि मैं इस मुल्क का बादशाह हूँ, उसके रगरेशे में घुल गया था। शाह बामुराद की वसीयत उसे एक दम को भी न भूलती थी। दिन को यह बादशाहत के मनसूबे बाँधता और रात को बादशाहत के सपने देखता। यह यकीन कि मैं बादशाह हूँ उसे बादशाह बनाये हुए था। अफसोस, आज वह मंसूबे टूट गये और वह सपना तितर बितर हो गया। मगर मसऊद के चरित्र में मर्दाना जब्त अपनी हद पर पहुँच गया था। उसने उफ तक न की, एक ठंडी आह भी न भरी, बल्कि पहला आदमी, जिसने मलिका के हाथों को चूमा और उसको सामने सर झुकाया, वह फकीर मखमूर था। हॉँ, ठीक उस वक्त जब जोकि वह मलिका के हाथ को चूम रहा था, उसकी जिन्दगी भर की लालसाएं आँसू की एक बूँद बनकर मलिका की मेंहदी-रची हथेली पर गिर पड़ी कि जैसे मसऊद ने अपनी लालसा का मोती मलिका को सौंप दिया। मलिका ने हाथ खींच लिया और फकीर मखमूर के चेहरे पर मुहब्बत से भरी हुई निगाह डाली। जब सल्तनत के सब दरबारी भेंट दे चुके, तोपों की सलामियॉँ दगने लगीं, शहर में धूमधाम का बाजार गर्म हो गया और खुशियों के जलसे चारों तरफ नजर आने लगे।
राजगद्दी के तीसरे दिन मसऊद खुदा की इबादत में बैठा हुआ था कि मलिका शेर अफगन अकेले उसके पास आयी और बोली, मसऊद, मैं एक नाचीज तोहफा तुम्हारे लिए लायी हूँ और वह मेरा दिल है। क्या तुम उसे मेरे हाथ से कबूल करोगे? मसऊद अचम्भे से ताकता रह गया, मगर जब मलिका की आँखें मुहब्बत के नशे में डूबी हुई पायी तो चाव के मारे उठा और उसे सीने से लगाकर बोला—मैं तो मुद्दत से तुम्हारी बर्छी की नोक का घायल हूँ, मेरी किस्मत है कि आज तुम मरहम रखने आयी हो।



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मुल्के जन्नतनिशॉँ अब आजादी और खुशहाली का घर है। मलिका शेर अफगान को अभी गद्दी पर बैठे साल भर से ज्यादा नहीं गुजरा मगर सल्तनत का कारबार बहुत अच्छी तरह और खूबी से चल रहा है और इस बड़े काम में उसका प्यारा शौहर मसऊद, जो अभी तक फकीर मखमूर के नाम से मशहूर है, उसका सलाहकार और मददगार है।
रात का वक्त था, शाही दरबार सजा हुआ था, बड़े-बड़े वजीर अपने पद के अनुसार बैठे हुए थे और नौकर जर्क-बर्क वर्दियॉँ पहने हाथ बॉँधे खड़े थे कि एक खिदमतगार ने आकर अर्ज की-दोनों जहान की मलिका, एक गरीब औरत बाहर खड़ी है और आपके कदमों का बोसा लेने की गुजारिश करती है। दरबारी चौंके और मलिका ने ताज्जुब-भरे लहजे में कहा- अन्दर हाजिर करो। खिदमतगार बाहर चला गया और जरा देर में एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अपनी पिटारी से एक जड़ाऊ ताज निकालकर बोली तुम लोग इसे ले लो, अब यह मेरे किसी काम का नहीं रहा। मियॉँ ने मरते वक्त इसे मसऊद को देकर कहा था कि तुम इसके मालिक हो, मगर अपने जिगर के टुकड़े मसऊद को ढूँढूँ? रोते-रोते अंधी हो गयी, सारी दुनिया की खाक छानी, मगर उसका कहीं पता न लगा। अब जिंदगी से तंग आ गयी हूँ, जीकर क्या करूँगी? यह अमानत मेरे पास है, जिसका जी चाहे ले लो।
दरबार में सन्नाटा छा गया। लोग हैरत के मारे मूरत बन गये, कि जैसे एक जादूगर था जो उँगली के इशारे से सबका दम बन्द किए हुआ था। यकाएक मसऊद अपनी जगह से उठा और रोता हुआ जाकर रिन्दा के पैरों पर गिर पड़ा। रिन्दा अपने जिगर के टुकड़े को देखते ही पहचान गयी; उसे छाती से लगा लिया और वह जड़ाऊ ताज उसके सर पर रखकर बोली—साहबो, यही प्यारा मसऊद और शाहे बासुराद का बेटा है, तुम लोग इसकी रिआया हो, यह ताज इसका है, यह मुल्क इसका है और सारी खिलकत इसकी है। आज से वह अपने मुल्क का बादशाह है, अपनी कौम का खादिम।
दरबार में कयामत का शोर मचने लगा, दरबारी उठे और मसऊद को हाथों-हाथ ले जाकर तख्त पर मलिका शेर अफगन के बगल में बिठा दिया। भेंटें दी जाने लगीं, सलामियॉँ दगने लगीं, नफीरियों ने खुशी का गीत गाया और बाजों ने जीत का शोर मचाया। मगर जब जोश की यह खुशी जरा कम हुई और लोगों ने रिन्दा को देखा तो वह मर गयी थी। आरजुओं के पूरे होते ही जान निकल गयी। गोया आरजुऍं रूह बनकर उसके मिट्टी के तन को जिन्दा रखे हुए थीं।

 

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