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स्वांग प्रेमचंद svaang Premchand's Hindi story

स्वांग प्रेमचंद svaang Premchand's Hindi story

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स्वांग

 

गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जाएगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गांव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।
बोला—कोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहां से भाग जाना चाहिए।
‘नहीं, कोई बाता जरुर थी।’ 
‘आप पूछकर क्या करेंगे? मैं उसे जाहिर करके आपके आन्नद में विध्न ’नहीं डालना चाहता।’
‘जब तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली नहीं होगी। सारा गांव घबराया हुआ है।’
गजेन्द्र ने फिर सूफियों का-सा चेहरा बनाया, आंखें बन्द कर लीं, जम्हाइयां लीं और आसमान की तरफ देखकर- बोले –बात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ में ली, मुझे मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाजियां नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुरा—भला कहता रहा हूं। आज मैंने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ था। बस गजब ही तो हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी गर्दन झुक गई और मैं इसी हालत में वहां से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करें मैं आपको जशन में शरीक न हो सकूंगा।    
सूबेदारा साहब ने इस तरह गर्दन हिलाई कि जैसे उनके सिवा वहां कोई इस अध्यात्मा का रहस्य नहीं समझ सकता। उनकी आंखें कह रही थीं—आती हैं तुम लोगों की समझ में यह बातें? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ-कुछ ही समझते हैं।
होली तो नियत समय जलाई गई थी मगर आतिशबाजीयां नदी में डाल दी गईं। शरीर लड़को ने कुछ इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जाएंगे तो मजे से छुड़ाएंगे।
श्यामदुलारी ने एकान्त में कहा—तुम तो वहां से खूब भागो
गजेन्द्र अकड़ कर बोले-भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।
‘मेरी तो जान निकल गई कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आई। टोकीर-भर आतिशबाजी पानी में फेंक दी गई।’
‘यह तो रुपये को आग में फूकना है।’
‘यह तो रुपये को आग में फूंकना हैं।’
‘होली में भी न छोड़े तो कब छोड़े। त्यौहार इसीलिए तो आते हैं।’
‘त्यौहार में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजें पकाओ-खाओ, खैरात करो, या-दोस्तों से मिलों, सबसे मुहब्बत से पेश आओ, बारुद उड़ने का नाम त्यौहार नहीं है।’
रात को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाजे पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर पूछा—यह धक्का किसने मारा?
श्यामा ने लापरवाही से कहा-बिल्ली-बिल्ली होगी।
कई आदमियों के फट-फट करने की आवाजें आईं, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को कंपकंपी छूट गई, लालटेन लेकर दराज से झांक तो चेहरे का रंग उड़ गया—चार-पांच आदमी कुर्ते पहने, पगड़ियां बाधे, दाढ़ियां लगाये, कंधे पर बन्दूकें रखे, किवाड़ को तोड़ डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगा—
‘दोनों सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।’
‘और अगर दोनों जाग गए?’
‘औरत क्या कर सकती हैं, मर्द का चारपाई से बांध देंगे।’
‘सुनते है गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान हैं।’
‘कैसा ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द आदमियों के सामने क्या कर सकता है।’
गजेन्द्र के कोटो तो बदन में खून नहीं शयामदुलारी से बोले-यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या होगा, मेरे तो हाथ-पांव कांप रहे है
चोर-चोर पुकारो, जाग हो जाएगी, आप भाग जाएगे। नहीं मैं चिलाती हूं। चोर का दिल आधा।’
‘ना-ना, कहीं ऐसा गजब न करना। इन सबों के पास बन्दूके हैं। गांव में इतना सन्नाटा क्यों हैं? घर के आदमी क्या हुए?’
‘भइया और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गए हैं, काक दरवाजें पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप छूटे तब भी न जागेंगे।’
‘इस कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज पहुंचे। मकान है या कैदखाने’  
‘मै तो चिल्लाती हूं।’
‘अरे नहीं भाई, क्यों जान देने पर तुली हो। मैं तो सोचता हूं, हम दोनों चुपचाप लेट जाएं और आंखें बन्द कर लें। बदमाशों को जो कुछ ले जाना हो ले जांए, जान तो बचे। देखों किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जाएं। हे ईश्वर, कहां जाएं, इस मुसीबत में तुम्हारा ही भरोससा है। क्या जानता था कि यह आफत आने वाली हैं, नही आता ही क्यों? बसा चुप्पी ही साध लो। अगर हिलाएं-विलाएं तो भी सांस मत लेना।’
‘मुझसे तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।’
‘जेवर उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।’
‘जेवर तो न उतारुंगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।’
‘क्यों जान देने पर तुली हुई हो?’       
खुशी से तो जेवर न उतारुंगी, जबर्दस्त ओर बात हैं’
खामोशी, सुनो सब क्या बातें कर रहे हैं।’
बाहर से आवाज आई—किवाड़ खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जाएंगे।
गजेन्द्र श्यामदुलीरी की मिन्नत की—मेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूं बहूत जल्दी नये जेवर बनवा दूंगा।
बाहर से आवाज आई-क्यों, आई! बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।
गजेन्द्र ने श्यामदुलारी से पूछा—खोल दूं?
‘हा, बुला लो तुम्हारे भाई-बन्द हैं? वह दरवाजे को बाहर से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर को ठेली।’
‘और जो दरवाजा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच-पांच जवान हैं!’
‘वह कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।’
‘तुम पागल हो गई हो।’
‘चुन्नी दादा होते तो पांचों का गिरते।’
‘मैं लट्टाबाज नहीं हूं।’
‘तो आओ मुंह ढांपकर लेट जाओं, मैं उन सबों से समझ लूंगी।’
‘तुम्हें तो और समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जाएगी।’
‘मैं तो चिल्लाती हूं।’
‘तुम मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूं।’
उसने दरवाजा खोल दिया। पांचों चोर में भड़भड़कर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहा—मैं इस लौंडे को पकड़े हुए हूं तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा बोला-इसने तो आंखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आंखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा-यार, औरत तो हसीन है!
चौथा—सुनती है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला घोंट दूंगा।
गजेन्द्र दिल में बिगड़ रहे थे, यह चुड़ैल जेवर क्यों नही उतार देती।
श्यामादुलीरी ने कहा—गला घोंट दो, चाहे गोली मार दो जेवर न उतारूंगी।
पहला—इस उठा ले चलो। यों न मानेगी, मन्दिर खाली है।
दूसरा—बस, यही मुनासिब है, क्यों रे छोकरी, हामारे साथ चलेगी?
श्यामदुलारी—तुम्हारे मुहं में कालिख लगा दूंगी।
तीसरा—न चलेगी तो इस लौंडे को ले जाकर बेच डालेंगे।
श्यामा—एक-एक के हथकड़ी लगवा दूंगा।
चौथा—क्यों इतना बिगड़ती है महारानी, जरा हमारे साथ चली क्यो नहीं चलती। क्या हम इस लौंडें से भी गये-गुजरे है। क्या रा जाएगा, अगर हम तुझे जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। यों सीधी तरह नहीं मानती हो। तुम जैसी हसीन औरत पर जुल्म करने को जी नहीं चाहता।
पांचवां—या तो सारे जेवर उतारकर दे दो या हमारे साथ चालो।
श्यामदुलारी—काका आ आएंगे तो एक-एक की खाल उधेड़ डालेंगे।
पहला—यह यों न मानेगी,ख् इस लौंडें को उठा ले चलो। तब आप ही पैरों पड़ेगी।
दो आदमियों ने एक चादर से गजेन्द्र के हाथ-पांव बांधे। गजेन्द्र मुर्दे की तरह पड़े हुए थे, सांस तक न आती थी, दिल में झुंझला रहे थे—हाय कितनी बेवफा औरत है, जेवर न देगी चाहे यह सब मुझे जान से मार डालें। अच्छा, जिन्दा बचूंगा तो देखूंगा। बात तक तो पूछं नहीं।
डाकूओं ने गजेन्द्र को उठा लिया और लेकर आंगन में जा पहुंचे तो श्यामदुलारी दरवाजे पर खड़ी होकर बोली—इन्हें छोड़ दो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।
पहला—पहले ही क्यों न राजी हो गई थी। चलेगी न?
श्यामदुलारी—चलूंगी। कहती तो हूं
तीसरा—अच्छा तो चल। हम इसे इसे छोड़ देते है।
दोनों चोरों पे गजेन्द्र को लाकर चारपाई पर लिटा दिया और श्यामदुलारी को लेकर चले दिए। कमरे में सन्नटा छा गया। गजेन्द्र ने डरते-डरते आंखें खोलीं, कोई नजर ल आया। उठकर दरवाजे से झांका। सहन में भी कोई न था। तीर की तरह निकलकर सदर दरवाजे पर आए लेकिन बाहर निकलने का हौसला न हुआ। चाहा कि सूबेदार साहब को जगाएं, मुंह से आवाज न निकली।
उसी वक्त कहकहे की आवाज आई। पांच औरतें चुहल करती हुई श्यामदुलारी के कमरे में आईं। गजेन्द्र का वहां पता न था।
एक—कहां चले गए? 
श्यामदुलारी—बाहर चले गए होगें।            
दूसरी—बहुत शर्मिन्दा होंगे।
तीसरी—डरके मारे उनकी सांस तक बन्द हो गई थी।
गजेन्द्र ने बोलचाल सुनी तो जान में जान आई। समझे शायद घर में जाग हो गईं। लपककर कमरे के दरवाजें पर आए और बोले—जरा देखिए श्यमा कहां हैं, मेरी तो नींद ही न खुली। जल्द किसी को दौड़ाइए।
यकायक उन्हीं औरतों के बीच में श्यामा को खड़क हंसते देखकर हैरत में आ गए।
पांचों सहेलियों ने हंसना और तालियां पीटना शुरु कर दिया।
एक ने कहा—वाह जीजा जी, देख ली आपकी बहादुरी।
श्यामदुलारी—तुम सब की सब शैतानी हो।
तीसीर—बीवी तो चारों के साथ चली गईं और आपने सांस तक न ली!
गजेन्द्र समझ गए, बड़ा धोखा खाया। मगर जबान के शेर फौरन बिगड़ी बात बना ली, बाले—तो क्या करता, तुम्हारा स्वांग बिगाड़ देता! मैं भी इस तमाशे का मजा ले रहा था। अगर सबों को पकड़कर मूंछे उखाड़ लेता तो तुम कितन शर्मिन्दा होतीं। मैं इतना बेहरहम नहीं हूं।
सब की गजेन्द्र का मुंह देखती रह गईं।


---वारदात से

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