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त्रिया-चरित्र प्रेमचंद triya-charitr Premchand's Hindi story

त्रिया-चरित्र प्रेमचंद triya-charitr Premchand's Hindi story

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त्रिया-चरित्र

 

थी मगर उसके स्वभाव की मुसीवत और उदारहृयता से अकसर लोग अनुचित लाभ उठाते थे इन्साफपसन्द लोग तो स्वागत सत्कार से काम निकाल लेते और जो  लोग ज्यादा समझदार थे वे लगातार तकाजों का इन्तजार करते  चूंकि मगनदास इस फन को बिलकुल नहीं जानता था। बावजूद दिन रात की दौड़ धूप के गरीबी से उसका गला न छुटता। जब वह रम्भा को चक्की पीसते हुए देखता तो गेहूँ के साथ उसका दिल भी पिस जाता था ।वह कुऍं से पानी निकालती तो उसका कलेजा निकल आता । जब वह पड़ोस की औरत के कपड़े सीती तो कपड़ो के साथ मगनदास का दिल छिद जाता। मगर कुछ बस था न काबू।
मगनदास की हृदयभेदी दृष्टि को इसमें तो कोई संदेह  नहीं था कि उसके प्रेम का  आकर्षण बिलकुल बेअसर नही है वर्ना रम्भा की उन वफा से भरी हुई खातिरदरियों की तुक कैसा बिठाता वफा ही वह जादू है रुप के गर्व का सिर नीचा कर  सकता है। मगर। प्रेमिका के दिल में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था। कोई दूसरा मनचला प्रेमी अब तक  अपने वशीकरण  में कामायाब हो चुका होता लेकिन मगनदास ने दिल आशकि का पाया था और जबान माशूक की।
एक रोज शाम के वक्त चम्पा किसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह चारपाई पर पड़ा सपने देख रहा था। रम्भा अदभूत छटा के साथ आकर उसके समने खडी हो गई। उसका भोला चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था। और आखों से सहानुभूति का भाव झलक रहा था। मगनदास ने उसकी तरफ पहले आश्चर्य और फिर प्रेम की निगाहों  से देखा और दिल पर जोर डालकर बोला-आओं रम्भा, तुम्हें देखने को बहुत दिन से आँखें तरस रही थीं।
रम्भा ने भोलेपन से कहा-मैं यहां न आती तो तुम मुझसे कभी न बोलेते।
मगनदास का हौसला बढा, बोला-बिना मर्जी पाये तो कुत्ता भी  नही आता।
रम्भा मुस्कराई, कली खिल गई–मै तो आप ही चली आई।
मगनदास का कलेजा उछल पड़ा। उसने हिम्मत करके रम्भा का हाथ पकड़ लिया और भावावेश से कॉपती हुई आवाज मे बोला–नहीं रम्भा ऐसा नही है। यह मेरी महीनों की  तपस्या का फल है।
मगनदास ने बेताब होकर उसे गले से लगा लिया। जब वह चलने लगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम भरी दृष्टि से  देखकर बोली–अब यह प्रीत हमको निभानी होगी।
पौ फटने के वक्त जब सूर्य देवता के आगमन की तैयारियॉँ हो रही थी मगनदास की आँखे खुली रम्भा आटा पीस रही थी। उस शांत्तिपूर्ण सन्नाटे में चक्की की घुमर–घुमर बहुत सुहानी मालूम होती थी और उससे सूर मिलाकर आपने प्यारे ढंग से गाती थी।
झुलनियाँ मोरी पानी में गिरी
मैं जानूं पिया मौको मनैहैं
उलटी मनावन मोको पड़ी
झुलनियाँ मोरी पानी मे गिरी 
साल भर गुजर गया। मगनदास की  मुहब्बत और रम्भा के सलीके न मिलकर उस वीरान झोंपड़े को कुंज बाग बना दिया। अब वहां गायें थी। फूलों की क्यारियाँ थीं और कई देहाती ढंग के मोढ़े थे। सुख–सुविधा की अनेक चीजे दिखाई पड़ती थी।
एक रोज सुबह के वक्त मगनदास कही जाने के लिए तैयार हो रहा था कि एक सम्भ्रांत व्यक्ति अंग्रेजी पोशाक पहने उसे ढूढंता हुआ आ पहुंचा और उसे देखते ही दौड़कर गले से लिपट गया। मगनदास और वह दोनो एक साथ पढ़ा करते थे। वह अब वकील हो गया। था। मगनदास ने भी अब पहचाना और कुछ झेंपता और कुछ झिझकता  उससे गले लिपट गया। बड़ी देर तक दोनों दोस्त बातें करते रहे। बातें क्या थीं घटनाओं और संयोगो की एक लम्बी कहानी थी। कई महीने हुए सेठ लगन का छोटा बच्चा चेचक की नजर हो गया। सेठ जी ने दुख क मारे आत्महत्या कर ली और अब मगनदास सारी जायदाद, कोठी इलाके और मकानों का एकछत्र स्वामी था। सेठानियों में आपसी झगड़े हो रहे थे। कर्मचारियों न गबन को अपना ढंग  बना रक्खा था। बडी सेठानी उसे बुलाने के लिए खुद आने को तैयार थी, मगर वकील साहब ने उन्हे रोका था। जब मदनदास न मुस्काराकर पुछा–तुम्हों क्योंकर मालूम हुआ कि मै। यहाँ हूँ तो वकील साहब ने फरमाया-महीने भर से तुम्हारी टोह में हूँ। सेठ मक्ख्नलाल ने अता-पता बतलाया। तूम  दिल्ली पहुँचें और मैंने अपना महीने भर का बिल पेश किया।
रम्भा अधीर हो रही थी। कि यह कौन है और इनमे क्या  बाते हो रही है? दस बजते-बजते वकील साहब मगनदास से एक हफ्ते के अन्दर आने का वादा लेकर विदा हुए  उसी वक्त रम्भा आ पहुँची और पूछने लगी-यह कौन थे। इनका तुमसे क्या काम था?
मगनदास  ने जवाब दिया- यमराज का दूत।
रम्भा–क्या असगुन बकते हो!
मगन-नहीं नहीं रम्भा, यह असगुन नही है, यह सचमुच मेरी मौत का दूत था। मेरी खुशियों के बाग को रौंदने वाला मेरी हरी-भरी खेती को उजाड़ने वाला रम्भा मैने तुम्हारे साथ दगा की है, मैंने  तुम्हे अपने फरेब क जाल में  फाँसया है, मुझे माफ करो। मुहब्बत ने मुझसे यह सब करवाया मैं मगनसिहं ठाकूर नहीं हूँ। मैं सेठ लगनदास का बेटा और सेठ मक्खनलाल  का दामाद हूँ।
मगनदास को डर था कि  रम्भा यह सुनते ही चौक पड़ेगी ओर शायद उसे जालिम, दगाबाज कहने लगे। मगर उसका ख्याल गलत निकला! रम्भा ने  आंखो में ऑंसू भरकर सिर्फ इतना कहा-तो क्या तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे?
मगनदास ने उसे गले लगाकर कहा-हॉँ।
रम्भा–क्यों?
मगन–इसलिए कि इन्दिरा बहुत होशियार सुन्दर और धनी है।
रम्भा–मैं तुम्हें न छोडूँगी। कभी इन्दिरा की लौंडी थी, अब उनकी सौत बनूँगी। तुम  जितनी मेरी मुहब्बत करोगे। उतनी इन्दिरा की तो न करोगे, क्यों?
मगनदास इस भोलेपन पर मतवाला  हो गया। मुस्कराकर बोला-अब इन्दिरा तुम्हारी लौंडी बनेगी, मगर सुनता हूँ वह बहुत सुन्दर है। कहीं मै उसकी सूरत पर लुभा न जाऊँ। मर्दो का हाल तुम नही जानती मुझे अपने ही से डर लगता है।
रम्भा ने विश्वासभरी आंखो से देखकर कहा-क्या तुम भी ऐसा करोगे? उँह जो जी में आये करना, मै तुम्हें न छोडूँगी। इन्दिरा रानी बने, मै लौंडी हूँगी, क्या इतने पर भी मुझे छोड़ दोगें?
मगनदास की ऑंखे डबडबा गयीं, बोला–प्यारी, मैने फैसला  कर लिया है कि दिल्ली न जाऊँगा यह तो मै कहने ही न पाया कि सेठ जी का  स्वर्गवास  हो गया। बच्चा उनसे पहले ही चल बसा था। अफसोस सेठ जी के आखिरी दर्शन भी न कर सका। अपना बाप  भी इतनी मुहब्ब्त नही कर सकता। उन्होने मुझे अपना वारिस बनाया हैं। वकील साहब कहते थे। कि सेठारियों मे अनबन है। नौकर चाकर लूट मार-मचा रहे हैं। वहॉँ का यह हाल है और मेरा दिल वहॉँ जाने पर राजी  नहीं होता दिल तो यहाँ है वहॉँ कौन जाए।
रम्भा जरा देर तक सोचती रही, फिर बोली-तो मै तुम्हें छोड़ दूँगीं इतने दिन तुम्हारे साथ रही। जिन्दगी का  सुख लुटा अब  जब तक जिऊँगी इस सूख का ध्यान  करती रहूँगी। मगर तुम मुझे भूल तो न जाओगे? साल में एक बार देख लिया  करना  और इसी झोपड़े में।
मगनदास ने बहुत रोका मगर ऑंसू न रुक सके बोले–रम्भा, यह बाते ने करो, कलेजा  बैठा जाता है। मै तुम्हे छोड़ नही सकता  इसलिए नही कि तुम्हारे उपर कोई एहसान है। तुम्हारी खातिर नहीं, अपनी खातिर वह शात्ति वह प्रेम, वह आनन्द जो मुझे यहाँ मिलता है और कहीं नही मिल सकता। खुशी के साथ जिन्दगी बसर हो, यही  मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। मुझे ईश्वर ने यह खुशी यहाँ दे  रक्खी है तो मै उसे क्यो छोड़ूँ? धन–दौलत को मेरा सलाम है मुझे उसकी हवस नहीं है।
रम्भा फिर गम्भीर स्वर में बोली-मै तुम्हारे पॉव की बेड़ी न बनूँगी। चाहे तुम अभी  मुझे न छोड़ो लेकिन थोड़े दिनों में तुम्हारी यह मुहब्बत न रहेगी।
मगनदास को  कोड़ा लगा। जोश  से बोला-तुम्हारे सिवा  इस दिल में अब कोई और जगह नहीं पा सकता।
रात ज्यादा आ गई थी। अष्टमी का चॉँद  सोने  जा चुका था। दोपहर के कमल की तरह साफ आसमन में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बासुरी की आवाज, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे न सुरीलापन और अँधेरे ने आत्मिकता का  आकर्षण दे दिया। था। कानो  में आ जा रही थी  कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी  के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के  खामोश और अपनी तरफ खीचनेवाले पेड़ो से अपनी जिन्दगी  की गम की कहानी सुना रही है।
मगनदास सो गया मगर रम्भा की आंखों  में नीद  न आई।

 

6

 

सुबह हुई तो मगनदास उठा  और रम्भा  पुकारने  लगा। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के साथ वहां से कही चली गयी  मगनदास को उसे मकान के दरो दीवार पर एक हसरत-सी छायी हुई मालूम हुई कि जैसे घर की जान निकल गई हो। वह घबराकर उस कोठरी  में गया जहां  रम्भा रोज चक्की पीसती थी, मगर अफसोस आज चक्की एकदम निश्चल थी। फिर वह कुँए की  तरह दौड़ा गया लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि कुँए ने उसे निगल जाने के लिए  अपना मुँह खोल दिया है। तब वह बच्चो की तरह चीख उठा रोता हुआ फिर उसी झोपड़ी में आया। जहॉँ कल रात तक प्रेम का वास था। मगर आह, उस वक्त वह शोक का घर बना हुआ था। जब जरा ऑसू थमे तो उसने घर में चारों तरफ निगाह दौड़ाई। रम्भा की साड़ी अरगनी पर पड़ी हुई थी। एक पिटारी में वह कंगन रक्खा हुआ था। जो मगनदास ने उसे दिया था। बर्तन सब रक्खे हुए थे, साफ और सुधरे। मगनदास सोचने लगा-रम्भा तूने रात को कहा था-मै तुम्हे छोड़ दुगीं। क्या तूने वह बात दिल से कही थी।? मैने तो समझा था, तू  दिल्लगी कर रही हैं। नहीं तो मुझे कलेजे में छिपा लेता। मैं तो तेरे लिए सब कुछ छोड़े बैठा था। तेरा प्रेम मेरे लिए सक कुछ था, आह, मै यों बेचैन हूं, क्या तू बेचैन नही है? हाय तू रो रही है। मुझे यकीन है कि तू अब भी लौट आएगी। फिर सजीव कल्पनाओं का एक जमघट उसक सामने आया- वह नाजुक अदाएँ वह मतवाली ऑंखें वह भोली भाली बातें, वह अपने को भूली हुई-सी मेहरबानियॉँ वह जीवन दायी। मुस्कान वह आशिकों जैसी दिलजोइयाँ वह प्रेम का नाश, वह हमेशा खिला रहने वाला चेहरा, वह लचक-लचककर कुएँ से पानी लाना, वह इन्ताजार की सूरत वह मस्ती से भरी हुई बेचैनी-यह सब तस्वीरें उसकी निगाहों के सामने हमरतनाक बेताबी के साथ फिरने लगी। मगनदास ने एक  ठण्डी सॉस  ली और आसुओं  और दर्द की उमड़ती हुई नदी को  मर्दाना   जब्त  से रोककर उठ  खड़ा  हुआ। नागपुर जाने का पक्का फैसला हो गया। तकिये के नीच से सन्दूक  की कुँजी उठायी तो कागज का एक टुकड़ा निकल आया यह रम्भा की विदा की चिट्टी थी-
प्यारे,
मै बहुत रो रही हूँ मेरे पैर नहीं उठते मगर मेरा जाना जरूरी है। तुम्हे जागाऊँगी। तो तुम जाने न दोगे। आह कैसे जाऊं अपने प्यारे पति को कैसे छोडूँ! किस्मत मुझसे यह आनन्द का घर छुड़वा रही है। मुझे बेवफा न कहना, मै तुमसे फिर कभी मिलूँगी। मै जानती हूँ। कि तुमने मेरे लिए यह सब कुछ त्याग दिया है। मगर तुम्हारे लिए जिन्दगी में। बहुत कुछ उम्मीदे हैं मैं अपनी मुहब्बत की धुन में तुम्हें उन उम्मीदो से क्यों  दूर रक्खूँ! अब तुमसे जुदा होती हूँ। मेरी सुध मत भूलना। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूगीं। यह आनन्द  के लिए कभी न भूलेंगे। क्या तूम मुझे भूल सकोगें?

तुम्हारी प्यारी
रम्भा

7

 

मगनदास को दिल्ली आए हुए तीन महीने गुजर चुके हैं। इस बीच उसे सबसे बड़ा जो निजी अनुभव हुआ वह यह था कि रोजी की फिक्र और धन्धों की बहुतायत से उमड़ती हुई भावनाओं का जोर कम किया। जा सकता है। ड़ेढ साल पहले का बफिक्र नौजवान अब एक समझदार और सूझ-बूझ रखने वाला आदमी बन गया था। सागर घाट  के उस कुछ  दिनों के रहने  से उसे रिआया की  इन तकलीफो  का निजी ज्ञान हो गया, था जो कारिन्दों और मुख्तारो की सख्तियों की बदौलत  उन्हे उठानी पड़ती है। उसने उसे रियासत के  इन्तजाम में बहुत मदद दी और गो कर्मचारी दबी जबान से उसकी शिकायत करते थे। और अपनी किस्मतो और जमाने क उलट फेर को कोसने थे मगर रिआया खुशा थी। हॉँ, जब वह सब धंधों से फुरसत पाता तो एक भोली भाली सूरतवाली लड़की उसके खयाल के पहलू में आ बैठती और थोड़ी देर के  लिए सागर घाट का वह हरा भरा झोपड़ा और उसकी मस्तिया ऑखें के सामने आ जातीं। सारी बाते एक सुहाने सपने की तरह याद आ आकर उसके दिल को  मसोसने लगती लेकिन कभी कभी खूद बखुद-उसका ख्याल इन्दिरा की तरफ भी जा पहूँचता गो उसके दिल मे रम्भा की वही जगह थी मगर किसी तरह उसमे इन्दिरा के लिए भी एक कोना निकल आया था। जिन हालातो और आफतो ने उसे इन्दिरा से बेजार कर दिया था वह अब रुखसत हो गयी थीं। अब उसे इन्दिरा से कुछ हमदर्दी हो गयी । अगर उसके मिजाज में घमण्ड है, हुकूमत है तकल्लूफ है शान है तो यह उसका कसूर नहीं यह रईसजादो की आम कमजोरियां है यही उनकी शिक्षा है। वे बिलकुल बेबस और मजबूर है। इन बदते  हुए और संतुलित भावो के साथ जहां वह बेचैनी के साथ रम्भा की याद को ताजा किया करता था वहा इन्दिरा का स्वागत करने और उसे अपने दिल में जगह देने के लिए तैयार था। वह दिन दूर नहीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पड़ेगा। उसके कई आत्मीय अमीराना शान-शौकत के साथ इन्दिरा को विदा कराने के लिए नागपुर गए हुए थे। मगनदास की बतियत आज तरह तरह के भावो के कारण, जिनमें प्रतीक्षा और मिलन की उत्कंठा विशेष थी, उचाट सी हो रही थी। जब कोई नौकर आता तो वह सम्हल बैठता कि शायद इन्दिरा आ पहुँची आखिर शाम के वक्त जब दिन और रात गले मिले रहे थे, जनानखाने में जोर शारे के गाने की आवाजों ने बहू के पहुचने की सूचना दी।
सुहाग की सुहानी रात थी। दस बज गये थे। खुले हुए हवादार सहन में चॉँदनी छिटकी हुई थी, वह चॉँदनी जिसमें नशा है। आरजू  है। और खिंचाव है। गमलों में खिले हुए गुलाब और चम्मा के फूल  चॉँद की सुनहरी रोशनी में ज्यादा गम्भीर ओर खामोश नजर आते थे। मगनदास इन्दिरा से मिलने के लिए चला। उसके दिल से लालसाऍं जरुर थी मगर एक पीड़ा भी थी। दर्शन की उत्कण्ठा थी मगर प्यास से खोली। मुहब्बत नही प्राणों को  खिचाव था जो उसे खीचे लिए जाताथा। उसके दिल में बैठी हुई रम्भा शायद बार-बार बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी। इसीलिए दिल में धड़कन हो रही थी। वह सोने के कमरे के दरवाजे पर पहुचा रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था। उसने पर्दा उठा दिया अन्दर एक औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी। हाथ में चन्द खूबसूरत चूड़ियों के सिवा उसके  बदन पर एक जेवर भी न था। ज्योही पर्दा उठा और मगनदास ने अन्दरी हम रक्खा वह मुस्काराती हुई  उसकी तरफ बढी मगनदास ने उसे देखा और चकित होकर बोला। “रम्भा!“ और दोनो प्रेमावेश से लिपट गये। दिल में बैठी हुई रम्भा बाहर निकल आई थी।
साल भर गुजरने के वाद एक दिन इन्दिरा ने अपने पति से कहा। क्या रम्भा को बिलकुल भूल गये? कैसे बेवफा हो! कुछ याद है, उसने चलते  वक्त तुमसे या बिनती की थी?
मगनदास ने कहा- खूब याद है। वह आवाज भी कानों में गूज रही है। मैं रम्भा को भोली –भाली  लड़की समझता था। यह नहीं जानता था कि यह त्रिया चरित्र का जादू है। मै अपनी रम्भा का अब भी इन्दिरा से ज्यादा प्यार करता हूं। तुम्हे  डाह तो नहीं होती?
इन्दिरा ने हंसकर जवाब दिया डाह क्यों हो। तूम्हारी रम्भा है तो क्या मेरा गनसिहं नहीं है। मैं  अब भी उस पर मरती हूं।
दूसरे दिन दोनों दिल्ली से एक राष्ट्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गए और सागर घाट जा पहुचें। वह  झोपड़ा वह मुहब्बत का मन्दिर वह प्रेम भवन फूल और हिरयाली से लहरा रहा था चम्पा मालिन उन्हें वहाँ मिली। गांव के जमींदार उनसे मिलने के लिए आये। कई दिन तक फिर मगनसिह को घोड़े निकालना पडें । रम्भा कुए से पानी लाती खाना पकाती। फिर चक्की पीसती और गाती। गाँव की औरते फिर उससे अपने कुर्ते और बच्चो की लेसदार टोपियां सिलाती है। हा, इतना जरुर कहती कि उसका रंग कैसा निखर आया है, हाथ पावं कैसे मुलायम यह पड़ गये है किसी बड़े घर की रानी मालूम होती है। मगर स्वभाव वही है, वही  मीठी बोली है। वही मुरौवत, वही हँसमुख चेहरा।
इस तरह एक हफते इस सरल और पवित्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनो दिल्ली वापस आये और अब दस साल गुजरने  पर भी साल में एक बार उस झोपड़े के नसीब जागते हैं। वह मुहब्बत की दीवार अभी तक उन दोनो  प्रेमियों को अपनी छाया में आराम देने के लिए खड़ी है।

-- जमाना , जनवरी 1913

 

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