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शीतला अष्टमी व्रत

Shitala Ashtami Vrat

शीतला अष्टमी व्रत * शीतलाष्टक स्तोत्र * शीतला माता की आरती * श्री शीतला चालीसा * श्री शीतला कवच * शीतला महामंत्र
 
ShitalaAshtami

शीतला अष्टमी व्रत

आज के दिन बासी भोजन करना शास्त्र विहित है। अर्थात आज के दिन के लिए शास्त्रीय विधान है कि बासी भोजन करना है। चुल्हे पर आज तवा नहीं चढ़ाने का विधान है। नैवेद्य में यह विशेषता है कि चातुर्मासी व्रत हो तो - 1 चैत्रमें शीतल पदार्थ, 2 वैशाख में घी और शर्करा से युक्त सत्तू, 3 जेष्ठ में पूर्व दिन के बनाये हुए पूए और 4 आषाढ़ में घी और शक्कर मिली हुई खीर का नैवेद्य अर्पण करे।

शीतलाष्टमी व्रत पुरे देश में केवल चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह पूजा होली के 8 दिन बाद सप्तमी या अष्टमी तिथि के दिन होती है। किंतु स्कन्दपुराण में चैत्र, वैशाख ज्येष्ठ , आषाढ़ 4 महीन इस व्रत के करने का विधान है। शीतलाष्टमी में पूर्वविद्धा अष्टमी ली जाती है। शीतलाष्टमी व्रत को बसौड़ा के नाम से भी जानते हैं। शीतला माता जो ठंडक प्रदान करने वाली देवी हैं, को बासी शीतल पदार्थ (पहले दिन के बनाये हुए) का भोग लगता है। बासी खाने के भोग को बासूढ़ा भी कहा जाता है जिसका अर्थ है बासीपन (ठंडा) को धारण करने वाला।शीतलाष्टमी व्रत कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के साथ साथ किसी किसी माह में सप्तमी तिथि को भी मानते हैं।

शीतला माता को चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। शीतलास्तोत्र में शीतला का जो स्वरूप बतलाया है, वह शीतला के रोगीके लिये बहुत हितकारी है। उसमें बतलाया है कि 'शीतला दिगम्बरा है, गर्दभ पर आरूढ़ रहती है, शूप, मार्जनी (झाड़) और नीमके पत्तों से अलङ्कत होती है और हाथ में शीतल जल का कलश रखती है।' वास्तव में शीतला (चेचक) के रोगी के सर्वाङ्ग में दाहयुक्त फोड़े होने से वह बिलकुल नग्न हो जाता है। 'गर्दभपिण्डी' (गधे की लीद) की गन्ध से फोड़ों की पीड़ा कम होती है। शूप के काम (अन्नकी सफाई आदि) करने और झाडू लगाने से बीमारी बढ़ जाती है, अतः इन कामों को सर्वथा बंद रखने के लिये शूप और झाड़ू बीमार के समीप रखते हैं। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्तों से शीतला के फोडों को सड़ने नहीं देते। अत: रोगी के बिस्तर पर नीम के पत्ते बड़ी मात्रा में रखे जाते हैं। शीतल जल के कलश का रोगी के समीप रखना तो अति आवश्यक है, इससे भी शीतलता प्राप्त होती है ।

शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।कुछ लोग शताक्षी देवी को भी शीतला देवी कह कर संबोधित करते हैं ।

शीतला सप्तमी-अष्टमी या बसौड़े की पूजन विधि -

व्रती को चाहिये कि अष्टमी को शीतल जल से प्रातः स्नानादि करके शीतला माता के मंदिर या होलिका दहन वाली जगह अथवा घर हीं विधि-विधान के साथ पूजा करें। अब सबसे पहले निम्न संकल्प करें -

ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः । ॐ अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - (अपने नगर/गांव का नाम लें) - नगरे/ ग्रामे विक्रम संवत 2081 पिंगल नाम संवत्सरे चैत्र मासे कृष्ण पक्षे अष्टमी तिथौ ... वासरे (दिन का नाम जैसे रविवार है तो "रवि वासरे ")..(अपने गोत्र का नाम लें) ... गोत्रोत्पन्न ... (अपना नाम लें)... शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहम् गेहे शीतलारोगजनितोपद्रवप्रशमनपूर्वकायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमी-
व्रतं करिष्ये।।

(नोट - चैत्र मासे की जगह मासानुसार वैशाख ज्येष्ठ, आषाढ़ कर लेंगे। मुख्य रूप से यह चैत्र मास में मनाया जाता है इसलिए चैत्र मासे का उल्लेख किया गया है )

संकल्प के उपरांत सुगन्धयुक्त गन्ध-पुष्पादिसे शीतला माता का पूजन करके प्रत्येक प्रकार के मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल-भात, लपसी (गाढ़ा तरल हलुआ ) और रोटी सब्जी आदि कच्चे पक्के, सभी शीतल पदार्थ (पहले दिन के बनाये हुए) भोग लगाये और शीतला माता के लिए निम्न मंन्त्र को जपें और शीतलास्तोत्र का पाठ करके रात्रि में जागरण और दीपावली करे। इस प्रकार व्रत करने से व्रती के कुल में दाहंज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े, नेत्रों के समस्त रोग, शीतला की फुंसियों के चिह्न और शीतलाजनित सर्वदोष दूर होते हैं और शीतला सदैव संतुष्ट रहती है।

शीतला माता का मंत्र -

वन्देऽहंशीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।

बसौड़ा पूजते समय 3 बातों का खास ख्याल रखें।
1. माता शीतला को हमेशा ठंडे खाने का भोग ही लगाया जाता है।
2. माता शीतला की पूजा करते समय दीया, धूप या अगरबत्ती नहीं जलानी चाहिए।
3. शीतला माता की पूजा में अग्नि को किसी भी तरह से शामिल नहीं किया जाता है।
मंदिर या होलिका दहन स्थल पर पूजा करने के बाद अपने घर में आकर प्रवेश द्वार के बाहर स्वास्तिक जरूर बनाएं।

शीतला अष्टमी (बसौड़ा) व्रत कथा -

एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखूं कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर डुंगरी गाँव में आईं और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर नहीं है, और ना ही मेरी पूजा होती है।

माता शीतला गाँव की गलियों में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) नीचे फेंका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में फफोले/छाले पड गये। शीतला माता के पूरे शरीर में जलन होने लगी।

शीतला माता गाँव में इधर-उधर भाग-भाग के चिल्लाने लगी अरे मैं जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा है। कोई मेरी सहायता करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता की सहायता नही की। वहीं अपने घर के बाहर एक कुम्हारन महिला बैठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पूरे शरीर में तपन है। इसके पूरे शरीर में फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नहीं कर पा रही है।

तब उस कुम्हारन ने कहा हे माँ! तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खूब ठंडा पानी डाला और बोली हे माँ! मेरे घर में रात की बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी ज्वार के आटे की राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।

तब उस कुम्हारन ने कहा - आ माँ बैठजा तेरे सिर के बाल बहुत बिखरे हैं, ला मैं तेरी चोटी गूँथ देती हूँ। और कुम्हारन माई की चोटी गूथने हेतु कंगी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन की नजर उस बूढ़ी माई के सिर के पीछे पड़ी, तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख बालों के अंदर छुपी है।

यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उस बूढ़ी माई ने कहा - रुकजा बेटी तू डर मत। मैं कोई भूत-प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पूजा करता है। इतना कहकर माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।

माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब मैं गरीब इन माता को कहाँ बिठाऊं। तब माता बोली - हे बेटी! तुम किस सोच मे पड़ गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आँसू बहते हुए कहा - हे माँ! मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता बिखरी हुई है। मैं आपको कहाँ बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन ही।

तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर की दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेंक दिया। और उस कुम्हारन से कहा - हे बेटी! मैं तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हूँ, अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग लो।

तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा - हे माता मेरी इच्छा है अब आप इसी डुंगरी गाँव मे स्थापित होकर यहीं निवास करें और जिस प्रकार आपने मेरे घर की दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ कर दिया। ऐसे ही आपको जो भी भक्त होली के बाद की सप्तमी को भक्ति-भाव से पूजा कर, अष्टमी के दिन आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर की दरिद्रता को दूर करना एवं आपकी पूजा करने वाली महिला का अखंड सुहाग रखना, उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला अष्टमी को नाई के यहाँ बाल ना कटवाये, धोबी को कपड़े धुलने ना दें और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़ाकर, नरियल, फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार मे कभी दरिद्रता ना आये।

तब माता बोलीं तथास्तु! हे बेटी! जो तूने वरदान मांगे हैं मैं सब तुझे देती हूँ। हे बेटी! तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पूजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील की डुंगरी।

शील की डुंगरी भारत का एक मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी के दिन यहाँ बहुत विशाल मेला लगता है। साथ ही बिहार के पटना जिले के अगमकुआं में शीतला माता का काफी प्राचीन सिद्ध पीठ है जो अशोक कालीन है।

संतानाष्टमी व्रत -

विष्णुधर्मोत्तर नामक ग्रंथ में इस व्रत का वर्णन है कि चैत्र कृष्ण अष्टमी को ही संतानाष्टमी का व्रत किया जाता है। यह व्रत संतान के सौभाग्य और जीवन हेतु किया जाता है। इसमें प्रातः स्नानादि के बाद श्रीकृष्ण और देवकी का गन्धादि से पूजन करे और मध्याह्न में श्रीकृष्ण और देवकी को सात्विक पदार्थों का भोग लगाया जाता है।

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