विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story
विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story
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विक्रमादित्य का तेग़ा
गुस्से से प्रेमसिंह कांपने लगा, होंठ चबाकर बोला-यारो, हमने भी अपनी जिन्दगी फौज में ही काटी है मगर कभी.....
इस हंगामे में प्रेमसिंह की बात किसी ने न सुनी। एक नौजवान जाट ने, जिसकी आंखें नशे से लाल हो रही थीं, ललकारकर कहा-इस बुड्ढे की मूछें उखाड़ लो।
वृन्दा आंगन में पत्थर की मूरत की तरह खड़ी यह कैफियत देख रही थी। जब उसने दो सिपाहियों को प्रेमसिंह की मूंछ पकड़कर खींचते देखा तो उससे न रहा गया, वह निर्भय सिपाहियों के बीच में घुस आयी और ऊंची आवाज में बोली-कौन मेरा गाना सुनना चाहता है।
सिपाहियों ने उसे देखते ही प्रेमसिंह को छोड़ दिया और बोले-हहम सब तेरा गाना सुनेंगे।
वृन्दा-अच्छा बैठ जाओ, मैं गाती हूँ।
इस पर कई सिपाहियों ने जिद की कि इसे पड़ाव पर ले चलें, वहां खूब रंग जमेगा।
जब वृन्दा सिपाहियों के साथ पड़ाव की तरफ चली तो प्रेमसिंह ने कहा-वृन्दा, इनके साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना।
वृन्दा जब पड़ाव पर पहुंची तो वहॉँ बदमस्तियों का एक तूफान मचा हुआ था। विजय की देवी दुश्मन को बर्बाद करके अब विजेताओं की मानवता और सज्जनता को पॉव से कुचल रही थी। हैवानियत का खूखॉंर शेर दुश्मन के खून से तृप्त ने होकर अब मानवोचित भावों का खून चूस रहा था। वृन्दा को लोग एक सजे हुए खेमे में ले गये। यहाँ फर्शी चिराग रोशन थे और आग-जैसी शराब के दौर चल रहे थे। वृन्दा उस कौने पर सहमी हुई बैठी थी। वासना का भूत जो इस वक्त दिलो में अपनी शैतानी फौज सजाये बैठा था कभी आंखो की कमान से सतीत्व की नाश करने वाली तेज तीर चलाता और कभी मुहँ की कमान से मर्मवेधी बाणों की बौछार करता। जहरीली शराब में बुझे हुए तीर वृन्दा के कोमल और पवित्र ह्रदय को छेदते हुए पार हो जाते थे। वह सोच रही थी-ऐ द्रोपती की लाज रखने वाले कृष्ण भगवान्, तुमने धर्म के बन्धन से बँधे हुए पाँण्डवों के होते हुए द्रोपती की लाज रखी थी, मैंतो दुनिया में बिल्कुल अनाथ हूँ, क्या मेरी लाज न रखोगे ? यह सोचते हुए उसने मीरा का यह मशहूर भजन गाया:
सिया रघुवीर भरोसो ऐसो।
वृन्दा ने यह गीत बड़े मोहक ढ़ंग से गाया। उसके मीठे सुरो में मीरा का अन्दाज पैदा हो गया था। प्रकट रूप में वह शराबी सिपाहियों के सामने बैठी गा रही थी। मगर कल्पना की दुनिया में वह मुरलीवाले श्याम के सामने हाथ बॉँधे खड़ी उससे प्रार्थना कर रही थी।
जरा देर के लिए उस शोर से भरे हुए महल में निस्तब्धता छा गयी। इन्सान के दिल में बैठे हुए हैवान पर भी प्रेम की यह तडपा देने वाली पुकार अपना जादू चला गयी। मीठा गाना मस्त हाथी को भी बस में कर लेता है। पूरे घंटे भर तक वृन्दा ने सिपाहियो को मूर्तिवत् रखा। सहसा घडियाल ने पॉँच बजाये। सिपाही और सरदार सब चौंक पड़े। सबका नशा हिरन हो गया। चालीस कोस की मंजिल तय करनी है, फुर्ती के साथ रवानगी की तैयारियॉँ होने लगीं। खेमे उखड़ने लगे, सवारो ने घोडो को दाना खिलाना शुरु किया। एक भगदड़-सी मच गयी। उधर सूरज निकला इधर फौज ने कूच का डंका बजा दिया। शाम को जिस मैदान का एक-एक कोना आबाद था, सुबह को वहॉँ कुछ भी न था। सिर्फ टूटे-फूटे उखड़े चूल्हे की राख और खेंमो की कीलों के निशान उस शन-शौकत की यादगार मे रूप में रह गये थे।
वह खेमे से बाहर निकल आयी। कोई बाधक न हुआ। मगर उसका दिल धड़क रहा था कि कही कोई आकर फिर न पकड़ ले। जब वह पेडों के झुरमुट से बाहर पहुंची तो उसकी जान में जान आयी। बड़ा सुहाना मौसम था, ठंड़ी-ठंड़ी मस्त हवा पेड़ो के पत्तो पर धीमे-धीमे चल रही थी और पूरब के क्षितिज में सूर्य भगवान की अगवानी के लिए लाल मखमल का फर्श बिछाया जा रहा था। वृन्दा ने आगे कदम बढाना चाहा। मगर उसके पांव न उठे। प्रेमसिंह की यह बात कि सिपाहियों के साथ हो जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना, उसे याद आ गयी। उसने एक लम्बी सांस ली और जमीन पर बैठ गई। दुनिया में अब उसके लिए कोई ठिकाना न था।
उस अनाथ चिड़िया की हालत कैसी दर्दनाक है जो दिल में उड़ने की चाह लिए हुए बहेलिये की कैद से निकल आती है मगर आजाद होने पर उसे मालूम होता है कि उस निष्ठुर बहेलिये ने उसके परों को काट दिया है। वह पेड़ो की सायेदार डालियों की तरफ बार-बार हसरत की निगाहों से देखती है मगर उड़ नहीं सकती और एक बेबसी के आलम में सोचने लगती है कि काश, बहेलिया मुझे फिर पिंजरें मे कैद कर लेता! वृन्दा की हालत एक वक्त ऐसी ही दर्दनाक थी।
वृन्दा कुछ देर तक इस ख्याल में डूबी रही, फिर वह उठी और धीरे-धीरे प्रेमसिंह के दरवाजे पर आयी। दरवाजा खुला हुआ था मगर वह अन्दर कदम न रख सकी। उसने दरोदीवार को हसरत भरी निगाहों से देखा आरै फिर जंगल की तरफ चली गई।
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शहर लाहौर के एक शानदार हिस्से मे ठीक सड़क के किनारे एक अच्छा-सा साफ-सुथरा तिमंजिले मकान है। हरी-भरी फूलों वाली माधवी लताने उसकी दीवारों और मेहराबो को खूब सजा दिया है। इसी मकान में एक अमीराना ठाट-बाट से सजे हुए कमरो में फैली वृन्दा एक मखमली कालीन पर बैठी हुई अपनी सुन्दर रंगों और मीठी आवाज वाली मैना को पढ़ा रही है। कमरे की दीवारों पर हलके हरे रंग की कलई है-खुशनुमा दीवारगीरियाँ, खूबसूरत तस्वीरें उचित स्थानों पर शोभा दे रही है। सन्दल और खस की प्राणवर्द्वक सुगन्ध कमरे के अन्दर फैली हुई है। एक बूढ़ी बैठी हुई पंखा झल रही है। मगर इस ऐश्वर्य और सब सामग्रियों के होते हुए वृन्दा का चेहरा उदास है। उसका चेहरा अब और भी पीला नजर आता है। मौलश्री का फूल मुरझा गया है।
वृन्दा अब लाहौर की मशहूर गानेवालियों में से एक है। उसे इस शहर में तीन महीने से ज्यादा नहीं हुए, मगर इतने ही दिनों में उसने बहुत बड़ी शोहरत हासिल कर ली है। यहॉँ उनका नाम श्यामा मशहूर है। इतने बड़े शहर में जिससे श्यामा बाई का पता पूछो वह यकीनन बता देगा। श्यामा की आवाज और अन्दाज मे कोई मोहिनी है, जिसने शहर में हर को अपना प्रेमी बना रक्खा है। लाहौर में बाकमाल गानेवालियों की कमी नहीं है। लाहौर उस जमाने में हर कला का केन्द्र था मगर कोयलें और बुलबुलें बहुत थी। श्यामा सिर्फ एक थी। वह ध्रुपद ज्यादा गाती थी इसलिए लोग उसे ध्रुपदी कहते थे।
लाहौर में मियॉँ तानसेन के खानदान के कई ऊंचे कलाकार है जो राग और रागनियों में बातें करते है। वह श्यामा का गाना पसन्द नहीं करते। वह कहते है कि श्यामा का गाना अकसर गलत होता है। उसे राग ओर रागिनियों का ज्ञान नहीं। मगर उनकी इस आलोचना का किसी पर कुछ असर नहीं होता। श्यामा गलत गाये या सही वह जो कुछ गाती है उसे सुनकर लोग मस्त हो जाते है। उसका भेद यह है कि श्यामा हमेशा दिल से गाती है और जिन भावों को वह प्रकट करती है उन्हें खुद भी अनुभव करती है। वह कठपुतलियों की तरह तुली हुई अदाओं की नकल नहीं करती है। अब उसके बगैर महफिलें सूनी रहती है। हर पहफिल में उसका मौजूद होना लाजिमी हो गया है। वह चाहे श्लोक ही गाये मगर बगैर संगीत प्रेमियों का जी नहीं भरता। तलवार की बाढ की तरह वह महफिलों की जान है। उसने साधारणजनों के ह्रदय में यहॉँ तक घर लिया है कि जब अपनी पालकी पर हवा खाने निकलती है तो उस पर चारों तरफ से फूलों की बौछार होने लगती है। महाराज रणजीत सिंह को काबुल से लौटे हुए तीन महीने गुजर गए, मगर अभी तक विजय की खुशी में कोई जलसा नही हुआ। वापसी के बाद कई दिन तक तो महाराज किसी कारण से उदास थे, उसके बाद उनके स्वभाव में यकायक एक बड़ा परिवर्तन आया, उन्हे काबुल की विजय की चर्चा से घृणा-सी हो गई। जो कोई उन्हें इस जीत की बधाई देने जाता उसकी तरफ से मुंह फेर लेते थे। वह आत्मिक उल्लास जो मौजा महानगर तक उनके चेहरे से झलकता था, अब वहॉँ न था। काबुल को जीतना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी आरजू थी। वह मोर्चा जो एक हजार साल तक हिन्दू राजाओं की कल्पना से बाहर था, उनके हाथों सर हुआ। जिस मुल्क ने हिन्दोस्तान को एक हजार बरस तक अपने मातहत रक्खा वहॉँ हिन्दू कौम का झण्ड़ा रणजीत सिंह ने उड़ाया। गजनी और काबुल की पहाड़ियों इन्सानी खून से लाल हो गयी, मगर रणजीत सिंह खुश नही है। उनके स्वभाव की कायापलट का भेद किसी की समझ में नहीं आता । अगर कुछ समझती है तो वृन्दा समझती है।
तीन महीने तक महाराज की यही कैफियत रही। इसके बाद उनका मिजाज अपने असली रंग पर आने लगा। दरबार की भलाई चाहने वाले इस मौके के इन्तजार में थे। एक रोज उन्होनें महाराज से एक शानदार जलसा करने की प्रार्थना की। पहले तो वह बहुत क्रुद्व हुए मगर आखिरकार मिजाज समझाने वालों की घातें अपना काम कर गई।
जलसे की तैयारियॉँ बड़े पैमाने पर की जाने लगी। शाही नृत्यशाला की सजावट होने लगी। पटना, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर, दिल्ली और पूना की नामी वेश्याओं को सन्देश भेजे गये । वृन्दा को भी निमत्रण मिला। आज एक मुद्दत के बाद उसके चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी।
जलसे की तारीख निश्चित हो गई। लाहौर की सड़को पर रंग-बिरंगी झंडिया लहराने लगी। चारों तरफ से नबाब और राजे बड़ी शान के साथ सज-सजकर आने लगे। होशियार फर्राशों ने नृत्यशाला को इतने सुन्दर ढंग से सजाया था कि उसे देखकर लगता था कि विलास का विश्रामस्थल है।
शाम के वक्त शाही दरबार जमा। महाराजा साहब सुनहरे राजसिंहासन पर शोभायमान हुए। नबाब और राजे, अमीर और रईस, हाथी घोड़ों पर सवार अपनी सजधज दिखते हुए एक जलूस बनाकर महाराज की कदमबोसी को चले। सड़क पर दोनो तरफ तमाशाइयों का ठट लगा था। खुशी का रंगो से भी कोई गहरा संबंध है। जिधर आंख उठती थी। रंग ही रंग दिखायी देते थें। ऐसा मालूम होता था कि कोई उमड़ी हुई नदी रंग बिरंगे फूलों की क्यारियों से बहती चली आती है।
अपनी खुशी के जोश में कभी-कभी लोग अभद्रता भी कर बैठते थे। एक पण्डित जी मिर्जई पहने सर पर गोल टोपी रक्खे तमाशा देखने में लगे थे। किसी मनचले ने उनकी तोंद पर एक चमगादड़ चिमटा दी। पंडित जी बेतहाशा तोंद मटकाते हुए भागे। बडा कहकहा पड़ा। एक और मौलवी साहब नीची अचकन पहने हुए दुकान पर खड़े थे। दुकानदार ने कहा-मौलवी साहब, आपको खड़े-खड़े तकलीफ होती है, यह कुर्सी रक्खी है, बैठ जाइए। मौलवी साहब बहुत खुश हुए, सोचने लगे कि शायद मेरे रूप-रंग से रौब झलक रहा है। वर्ना दुकानदार कुर्सी क्या देता ? दुकानदार आदमियों के बड़े पारखी होते हे। हजारों आदमी खड़े है, मगर उसने किसी से बैठने की प्रार्थना न की। मौलवी साहब मुस्कराते हुए कुर्सी पर बैठे, मगर बैठते ही पीछे की तरफ लुढ़के और नीचे बहती हुई नाली में गिर पड़े। सारे कपड़े लथपथ हो गये। दुकानदार को हजारों खरी-खोटीं सुनायीं। बड़ा कहकहा पड़ा। कुर्सी तीन ही टांग की थी।
एक जगह कोई अफीमची साहब तमाशा देखने आये हुए थे। झुकी हुई कमर पोंपला मुंह, छिदरे-छिदरे सर के बाल और दाढी के बाल, मेंहदी से रगे हुए थे। आंखो में सुरमा भी था। आप बड़े गौर ये सैर करने में लगे थे। इतने में एक हलवाई सर पर खोमचा रक्खे हुए आया और बोला-खॉँ साहब, जुमेरात की गुलाबवाली रेवड़ियॉँ हैं। आज पैसे की आध पांव लगा दीं, खा लीजिए वर्ना पछताइएगा। अफीमची साहब ने जेब में हाथ ड़ाला मगर पैसे न थे। हाथ मल कर रह गये, मुँह मे पानी भर आया। गुलाबवाली रेवड़ियॉँ पैसे में आध पाव! न हुए पैसे नहीं तो सेरो तुला लेता। हलवाई ताड़ गया, बोला- आप पैसे की कुछ फिक्र न करें, पैसे फिर मिल जाएंगे। आप कोई ऐसे वैसे आदमी थौडे ही है। अफीमची साहब की बॉँछे खिल गयीं। रूह फड़क उठी। आपने पाव भर-रेवड़ियाँ लीं और जी में कहा। अब पैसा देने वाले पर लानत है। घर से निकलूँगा ही नही, तो पैसे क्या लोगे ? अपने रूमाल में रेवडियॉँ लीं। आशिक के दिल में सब्र कहॉँ ? मगर ज्यो ही पहली रेवड़ी जबान पर रक्खी कि तिलमिला गये। पागल कुत्ते की तरह पानी की तलाश में इधर-उधर दौड़ने लगे। ऑंख और नाक से पानी बहने लगा। आधा मुँह खोलकर ठंडी हवा से जबान की जलन बुझाने लगे। जब होश ठीक हुए तो हलवाई को हजारों गालियां सुनायीं, इस पर लोग खूब हंसे। खुशी के मौके पर ऐसी शरारतें अकसर हुआ करती है। और इन्हें लोग खूब मुआफी के काबिल समझते है क्योंकि वह खौलती हुई हांडी के उबाल है।
रात के नौ बजे संगीतशाला से जमघट हुआ। सारा महल नीचे से ऊपर तक रंग-बिरंगी हांड़ियों और फानूसों से जगमगा रहा था। अन्दर झांड़ों की बहार थी। बाकमाल कारीगर ने रंगशाला के बीचों-बीच अधर में लटका हुआ एक फव्वारा लगाया था। जिसके सूराखों से खस और केवड़ा, गुलाब और सन्दल का अरक हलकी फुहारों में बरस रहा था। महफिल में अम्बर की बौछार करने वाली तरावट फैली हुई थी। खुशी अपनी सखियों-सहेलियों के साथ खुशियां मना रही थी।
दस बच्चे महाराजा रणजीतसिंह तशरीफ लाये। उनके बदन पर तंजेब की एक सफेद अचकन थी और तिरछी पगड़ी बँधी हुई थी। जिस तरह सूरज क्षितिज की रंगीनियों से पाक रहकर अपनी पूरी रोशनी दिखा सकता है। उसी तरह हीरे और जवाहरात, दीवा1 और हरीर1 की पुस्तकल्लुफ सजावट से मुक्त रहकर भी महाराजा रणजीतसिंह का प्रताप पूरी तेजी के साथ चमक रहा था।
चन्द्रनामी शायरों ने महाराज की शान में इसी मौके के लिए कासीदे कहे थे। मगर उपस्थित लोगों के चेहरों से उनके दिलों में जोश खाता हुआ संगीत-प्रेम देखकर महाराज ने गाना शुरू करने का हुक्म कर दिया। तबले पर थाप पड़ी, साजिन्दों ने सुर मिलाया, नींद से झपकती हुई आंखें खुल गयीं और गाना शुरू हो गया।
-----१.रेशमी कपड़ो के नाम
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उस शाही महफिल में रात भर मीठे-मीठे गानों की बौछार होती रही। पीलू और पिरच, देस और विभाग के मदभरे झोंके चलते रहे। सुन्दरी नर्तकियों ने बारी-बारी से अपना कमाल दिखाया। किसी की नाजभरी अदाएँ दिलों में खुब गयीं, किसी का थिरकना कत्लेआम कर गया, किसी की रसीली तानों पर वाह-वाह मच गई। ऐसी तबियत बहुत कम थीं जिन्होनें सच्चाई के साथ गाने का पवित्र आनन्द न उठाया हो।
चार बजे होगे श्यामा की बारी आयी तो उपस्थित लोग सम्हल बैठे। चाव के मारे लोग आगे खिसकने लगे। खुमारी से भरी हुई आंखें चौंक पड़ी। वृन्दा महफिल में आई और सर झुकाकर खड़ी हो गई। उसे देखकर लोग हैरत में आ गये। उसके शरीर पर न आबदार गहने थे, खुशरंग, भड़कीली पेशवाज। वह सिर्फ एक गेरूए रंग की साड़ी पहने हुए थी। जिस तरह गुलाब की पंखुरी पर डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरण चमकती है, उसी तरह उसके गुलाबी होठों पर मुस्कराहट झलकती थी। उसका आडम्बर से मुक्त सौंदर्य अपने प्राकृतिक वैभव की शान दिखा रहा था। असली सौदर्य बनाव-सिंगार का मोहताज नहीं होता। प्रकृति के दर्शन से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है वह सजे हुए बगीचों की सैर से मुमकिन नहीं। वृन्दा ने गाया:
सब दिन नाहीं बराबर जात।
यह गीत इससे पहले भी लोगो ने सुना था मगर इस वक्त का–सा असर कभी दिलों पर नहीं हुआ था। किसी के सब दिन बराबर नहीं जाते यह कहावत रोज सुनते थे। आज उसका मतलब समझ में आया। किसी रईस को वह दिन याद आया जब खुद उसके सिर पर ताजा था, आज वह किसी का गुलाम है। किसी को अपने बचपन की लाड़-प्यार की गोद याद आई, किसी को वह जमाना याद आया, जब वह जीवन के मोहक सपने देख रहा था। मगर अफसोस अब वह सपना तितर-बितर हो गया। वृन्दा भी बीते हुए दिनों को याद करने लगी। एक दिन वह था कि उसके दरवाजे पर अताइयों और गानेवालों की भीड रहती थी। औरखुशियों की और आज! इसके आगे वृन्दा कुछ सोच न सकीं। दोनों हालातों का मुकाबिला बहुत दिल तोड़नेवाला था,
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