विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story
विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story
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विक्रमादित्य का तेग़ा
निराशा से भर देने वाला। उसकी आवाज भारी हो गई और रोने से गला बैठ गया।
महाराजा रणजीतसिंह श्यामा के तर्ज व अन्दाज को गौर से देख रहे थे। उनकी तेज निगाहें उसके दिल में पहुँचने की कोशिश कर रही थीं। लोग अचम्भे में पड़े हुए थे कि क्यों उनकी जबान से तारीफ और कद्रदानी की एक बात भी न निकली। वह खुश न थे, वह ख्याल में डूबे हुए थे। उन्हें हुलिये से साफ पता चल रहा था कि यह औरत हरगिज अपनी अदाओं को बेचनेवाली औरत नहीं है। यकायक वह उठ खडे हुए और बोले –श्यामा, बृहस्पति को मैं फिर तुम्हारा गाना सुनूँगा।
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वृन्दा के चले जाने के बाद उसका फूल-सा बच्चा राजा उठा और आंखें मलता हुआ बोला-अम्मां कहॉँ है ?
प्रेमसिंह ने उसे गोद में लेकर कहा-अम्मॉँ मिठाई लेने गई है।
राजा खुश हो गया, बाहर जाकर लड़कों के साथ खेलने लगा। मगर कुछ देर के बाद फिर बोला-अम्मॉँ मिठाई।
प्रेमसिंह ने मिठाई लाकर दी। मगर राजा रो-रोकर कहता रहा, अम्मा मिठाई। वह शायद समझ गया था कि अम्माँ की मिठाई इस मिठाई से ज्यादा मीठी होगी।
आखिर प्रेमसिंह ने उसे कंधे पर चढ़ा लिया और दोपहर तक खेतों में घूमता रहा। राजा कुछ देर तक चुप रहता और फिर चौंककर पूछने लगता-अम्मा कहॉँ है ?
बूढ़े सिपाही के पास इस सवाल का कोई जबाब न था। वह बच्चे के पास से एक पल को कहीं न जाता और उसे बतों में लगाये रहता कि कहीं वह फिर न पूछ बैठै, अम्मा कहॉँ है? बच्चों की स्मरणशक्ति कमजोर होती है। राजा कई दिनों तक बेकार रहा, आखिर धीरे-धीरे मॉँ की याद उसके दिल से मिट गई।
इस तरह तीन महीने गुजर गये। एक रोज शाम के वक्त राजा अपने दरवाजे पर खेल रहा था कि वृन्दा आती दिखाई दी। राजा ने उसकी तरफ गौर से देखा, जरा झिझका, फिर दौड़कर उसकी टॉगो से लिपट गया और बोला-अम्मा, आयी, अम्मा आयी।
वृन्दा की आंखों से आंसू जारी हो गए। उसने राजा को गोद में उठा लिया और कलेजे से लगाकर बोली- बेटा, अभी मैं नहीं आयी, फिर कभी आऊँगी।
राजा इसका मतलब न समझा। वह उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ घर की तरफ चला। मॉँ की ममता वृन्दा को दरवाजे तक ले गयी। मगरचौखट से आगे न ले जा सकी। राजा ने बहुत खीचा मगर वह आगे न बढ़ी। तब राजा की बड़ी-बड़ी आंखों में ऑंसू भर आये । उसके होठ फैल गये और वह रोने लगा।
प्रेमसिंह उसका रोना सुनकर बाहर निकल आया, देखा तो वृन्दा खड़ी है। चौंककर बोला-वृन्दा मगर वृन्दा कुछ जबाब न दे सकीं।
प्रेमसिंह ने फिर कहा- बाहर क्यों खड़ी हो, अन्दर आओ। अब तक कहॉँ थीं ?
वृन्दा ने आंसूँ पोछते हुए जबाब दिया- मैं अन्दर नहीं आऊँगी।
प्रेमसिंह ने फिर कहा-आओ आओ, अपने बूढ़े बाप की बातों का बुरा न मानों।
वृन्दा – नहीं दादा, मैं अन्दर कदम नहीं रख सकती।
प्रेमसिंह – क्यों ?
वृन्दा-कभी बताऊँगी। मैं तुम्हारे पास वह तेगा लेने आयी हूँ।
प्रेमसिंह ने अचरज में जाकर पूछा- उसे लेकर क्या करोगी ?
वृन्दा- अपनी बेइज्जती का बदला लूँगी।
प्रेमसिंह किससे-रणजीतसिंह से।
प्रेमसिंह जमीन पर बैठ गया और वृन्दा की बातों पर गौर करने लगा, फिर बोला– वृन्दा, तुम्हें मौका क्योंकर मिलेगा ?
वृन्दा – कभी-कभी धूल के साथ उड़कर चींटी आसमान तक पहुँचती है।
प्रेमसिंह – मगर बकरी शेर से क्योंकर लड़ेगी ?
वृन्दा- इस तेगे की मदद से।
प्रेमसिंह – इस तेगे ने कभी छिपकर खून नहीं किया।
वन्दा – दादा, यह विक्रमादित्य का तेगा है। इसने हमेशा दुखियारों की मदद की है।
प्रेमसिंह ने तेगा लाकर वृन्दा के हाथ में रख दिया। वृन्दा उसे पहलू में छिपाकर जिस तरह से आयी थी उसी तरह चली गई। सूरज डूब गया था। पश्चिम के क्षितिज में रोशनी का कुछ-कुछ निशान बाकी था और भैंसे अपने बछडे को देखने के लिए चरागाहों से दौड़ती हुई आवाज से मिमियाती चली आती थीं और वृन्दा को रोता छोड़कर शाम के अँधेरे डरावने जंगल की तरफ जा रही थी।
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वृहस्पति का दिन था। रात के दस बज चुके है। महाराजा रणजीतसिंह अपने विलास-भवन में शोभायमान हो रहे है। एक रात बत्तियों वाला झाड़ रोशन हे। मानों दीपक-सुंदरी अपनी सहेलियों के साथ शबनम का घूँघट मुंह पर ड़ाले हुए अपने रूम में गर्व में खोई हुई है। महाराजा साहाब के सामने वृन्दा गेरूए रंग की साड़ी पहने बैठी है। उसके हाथ में एक बीन है, उसी पर वह एक लुभावना गीत अलाप रही है।
महाराज बोले-श्यामा, मैं तुम्हारा गाना सुनकर बहुत खुश हुआ, तुम्हे क्या इनाम दूँ ?
श्यामा ने एक विशेष भाव से सिर झुकाकर कहा-हुजूर के अख्तियार में सब कुछ है।
रणजीतसिंह-जागीर लोगी ?
श्यामा – ऐसी चीज दीजिए, जिससे आपका नाम हो जाए।
महाराजा ने वृन्दा की तरफ गौर से देखा। उसकी सादगी कह रही थी कि वह धन-दौलत को कुछ नहीं समझती। उसकी दृष्टि की पवित्रता और चेहरे की गम्भीरता साफ बता रही है कि वह वेश्या नही है जो अपनी अदाओं को बेचती है। फिर पूछा – कोहनूर लोगी ?
श्यामा – वह हुजूर के ताज में अधिक सुशोभित है।
महाराज ने आश्चर्य में पड़कर कहा-तुम खुद मॉँगो।
श्यामा मिलेगा - ?
रणजीत सिंह – हॉँ
श्यामा – मुझे इन्साफ के खून का बदला दिया जाय।
महाराज रणजीतसिंह चौंक पड़े। वृन्दा की तरफ फिर गौर से देखा और सोचने लगे, इसका क्या मतलब है। इन्साफ तो खून का प्यासा नहीं होता, यह औरत जरूर किसी जालिम रईस या राजा की सताई हुई है। क्या अजब है कि उसका पति कहीं का राजा हो। जरूर ऐसा ही है। उसे किसी ने कत्ल कर दिया है। इन्साफ को खून की प्यास इसी हालत में होती है; इसी वक्त इन्साफ खूंखार जानवर हो जाता है। मैंने वायदा किया कि वह जो मॉँगेगी वह दूँगा। उसने एक बेशकीमती चीज मॉँगी है, इन्साफ के खूँन का बदला। वह उसे मिलना चाहिए। मगर किसका खून ? राजा ने फिर पहलू बदलकर सोचा-किसका खून ? यह सवाल मेरे दिल में पैदा न होना चाहिए। इन्साफ जिसका जिसका खूंन मॉँगे उसका खून मुझे देना चाहिए। इन्साफ के सामने सबका खून बराबर है। मगर इन्साफ को खून पाने का हक है, इसका फैसला कौन करेगा ? बैर के बुखार से भरे हुए आदमी के हाथ मे इसका फैसला नहीं होना चाहिए। अकसर एक कड़ी बात; एक दिल जला देने वाला ताना इन्साफ के दिल में खून की प्यास पैदा कर देता है। इस दिल जलादेने वाले ताने की आग उस वक्त् तक नहीं बुझती जब तक उस पर खून के छीटे न दिये जाऍं। मैंने जबान दे दी है तो गलती हुई । पूरी बात सुने बगैर, मुझे इन्साफ के खून का बदला देने का वादा हरगिज न करना चाहिए था। इन विचारों ने राजा को कई मिनट तक अपने में खोया हुआ रक्खा। आखिर वह बोला-श्यामा, तुम कौन हो ?
वृन्दा – एक अनाथ औरत।
राजा- तुम्हारा घर कहॉँ है ?
वृन्दा – माहनगर में ।
रणजीतसिंह ने वृन्दा को फिर गौर से देखा। कई महीने पहले रात के समय माहनगर में एक भोली-भाली औरत की जो तसवीर दिल में खिंची थी वह इस औरत से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी। उस वक्त आंखें इतनी बेधड़क न थीं। उस वक्त ऑंखों में शर्म का पानी था, अब शोखी की झलक है। तब सच्चा मोती था, अब झूठा हो गया।
महाराज बोले – श्यामा, इन्साफ किसका खून चाहता है .?
वृन्दा – जिसे आप दोषी ठहरायें । जिस दिन हुजूर ने रात को माहनगर में पड़ाव किया था उसी रात को आपके सिपाही मुझे जबरदस्ती खींचकर पड़ाव पर लाये ओर मुझे इस काबिल नहीं रक्खा कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। मुझे उनकी नापाक निगाहों का निशाना बनना पड़ा। उनकी बेबाक जवानों ने उनके शर्मनाक इशारों ने मेरी इज्जत खाक में मिला दी। आप वहॉँ मौजूद थे और आपकी बेकस रैयत पर यह जुल्म किया जा रहा था। कौन मुजरिम है ? इन्साफ किसका खून चाहता है ? इसका फैसला आप करें।
रणजीतसिंह जमीन पर आंखें गड़ाये सुनते रहे। वृन्दा ने जरा दम लेकर फिर कहना शुरू किया-मैं विधवा स्त्री हूँ। मेरी इज्जत और आबरू के रखवाले आप है। पति-वियोग के साढे तीन साल मैंने तपस्विनी बनकर काटे थे। मगर आपके आदमियों ने मेरी तपस्या धूल में मिला दी। मैं इस योग्य नहीं रही कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। अपने बच्चों के लिए मेरी गोद अब नहीं खुलती। अपने बूढे बाप के सामने मेरी गर्दन नहीं उठती। मैं अब अपने गॉँव की औरतों से आंखें चुराती हूँ। मेरी इज्जत लुट गई। औरत की इज्जत कितनी कीमती चीज है, इसे कौन नहीं जानता ? एक औरत की इज्जत के पीछे लंका का शानदार राज्य मिट गया। एक ही औरत की इज्जत के लिए कौरव वंश का नाश हो गया। औरतों की इज्जत के लिए हमेशा खून की नदियां बही हैं और राज्य उलट गये है। मेरी इज्जत आपके आदमियों ने ली है, इसका जबाबदेह कौन है। इन्साफ किसका खून चाहता है, इसका फैसला आप करें।
वृन्दा का चेहरा लाल हो गया। महाराजा रणजीत सिंह एक गँवार देहाती औरत का यह हौसला, यह ख्याल और जोशीली बात सुनकर सकते में आ गये। कांच का टुकड़ा टूटकर तेज धारावाला छुरा हो जाता है वहीं कैफियत इन्सान के टूटे हुए दिल की है।
आखिर महाराज ने ठंडी सॉँस ली और हसरतभरे लहजे में बोले-श्यामा, इंसाफ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ।
इतना कहने के साथ महाराज रणजीतसिंह का चेहरा भभक उठा और दिल बेकाबू हो गया। तत्काल भावनाओं के नशे में आदमी का दिल आसमान की बुलंदियों तक जा पहुंचता है। कांटे के चुभने से कराहनेवाला इन्सान इसी नशे में मस्त होकर खंजर की नोक कलेजे में चुभो लेता है। पनी की बौछार से डरनेवाला इन्सान गले-गले पानी में अकड़ता हुआ चला जाता है। इस हालत में इन्सान का दिल एक साधारण शक्ति और असीम उत्साह अनुभव करने लगता है। इसी हालात में इन्सान छोटे-से-छोटे जलील से जलील काम करता है और इसी हालात में इन्सान अपने वचन और कर्म की ऊंचाई से देवताओं को भी लज्जित कर देता है। महाराजा रणजीतसिंह अद्विग्न होकर उठ खड़े हुए और ऊंची आवाज में बोले-श्यामा, इन्साफ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ ! तुम्हारे साथ जो जुल्म हुआ है उसका जबाबदेह मैं हूँ। बुजुर्गो ने कहा है कि ईश्वर के सामने राजा अपने नौकरों की सख्ती और जबरदस्ती का जिम्मेदार होता है।
यह कहकर राजा ने तेजी के साथ अचकन के बन्द खोल दिये और वृन्दा के सामने घुटनों के बल, सीना फैलाकर बैठते हुए बोले – श्यामा, तुम्हारे पहलू में तलवार छिपी हुई है। वह विक्रमादित्य की तलवार है। उसने कितनी ही बार न्याय की रक्षा की है। आज एक अभागे राजा के खून से उसकी प्यास बुझा दो बेशक वह राजा अभागा है जिसके राज्य में अनाथों पर अत्याचार होता है।
वृन्दा के दिल में अब एक जबरदस्त तब्दीली पैदा हुई, बदले की भावना ने प्रेम और आदर को जगह दी। रणजीतसिंह ने अपनी जिम्मेदारी मान ली, वह उसके सामने मुजरिम की हैसियत मे इन्साफ की तलवार का निशाना बनने के लिए खड़े है, उनकी जान अब उसकी मुट्ठी में है। उन्हें मारना या जिलाना अब उसका अख्तियार है।
यह खयाल उसकी बदले की भावना को ठंडा कर देने के लिए काफी थे। प्रताप ओर ऐश्वर्य जब अपने स्वर्ण-सिंहासन से उतरकर दया की याचना करने लगता है तो कौन ऐसा ह्रदय है जो पसीज न जाएगा ? वृन्दा ने दिल पर सब्र करके पहलू से खंजर निकाला मगर वार न कर सकीं। तलवार उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी।
महाराज रणजीतसिंह समझ गये कि औरत की हिम्मत दगा दे गई । वह बड़ी तेजी से लपके और तेगे को हाथ में उठा लिया। यकायक दाहिना हाथ पागलों जैसे जोश के साथ ऊपर को उठा। वह एक बार जोर से बोले ‘वाह गुरूकी जय’ और करीब था कि तलवार सीने में डूब जाय, बिजली कौंधकर बादल के सीने में घुसने ही वाली थी कि वृन्दा एक चीख मारकर उठी और राजा के ऊपर उठे हुए हाथ को अपने दोनों हाथों से मजबूत पकड़ लिया। रणजीतसिंह ने झटका देकर हाथ छुड़ाना चाहा मगर कमजोर औरत ने उनके हाथ को इस तरह जकड़ा था कि जैसे मुहब्बत दिल को जकड़ लेती है। बेबस होकर बोले-श्यामा, इन्साफ को अपनी प्यास बुझाने दो।
श्यामा ने कहा-महाराज उसकी प्यास बुझ गई। यह तलवार इसकी गवाह है।
महाराज ने तेगे को देखा। इस वक्त उसमें दूज के चॉँद की चमक थी। सत्य और न्याय के चमकते हुए सूरज ने उस चॉँद को अलोकित कर दिया था।
-जमाना, फरवरी १९११
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