सामा चकेवा
Sama Chakeva, the folk festival
॥ श्रीहरिः ॥
सामा चकेवा
Sama Chakeva, the folk festival
आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
स्कंद पुराण में वर्णित लोक पर्व सामा चकेवा भाई बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक लोक पर्व है जो छठ के पारण दिन से शुरु होकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है। मिथिलांचल समेत उत्तर बिहार से बंगाल की सीमा तक यह मनाया जाता है। बहनें 8 दिनों तक, देर शाम खेत-खलिहान में लोकगीत गाते हुए अपने भाई की दीर्घायु होने और उनकी समृद्धि की कामना करती हैं।
सामा किसकी बेटी है?
स्कंद पुराण में वर्णित कथा के अनुसार सामा द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा तथा उसके पति का नाम चक्रवाक था।
स्कंद पुराण के इस पर्व से संबंधित यह श्लोक है जिसके आधार पर यह लोक पर्व मनाया जाता है -द्वारकायाण्च कृष्णस्य पुत्री सामातिसुंदरी।
साम्बस्य भगिनी सामा माता जाम्बाबती शुभा ।
इति कृष्णेन संशप्ता सामाभूत् क्षितिपक्षिणी।
चक्रवाक इति ख्यातः प्रियया सहितो वने।।
सामा चकेवा की कथा -
उक्त पुराण में वर्णित सामा (श्यामा) की कथा का संक्षिप्त वर्णन इस तरह है कि सामा नाम की द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा तथा उसके पति का नाम चक्रवाक था जो ऋषि कुमार था।
सामा को घूमने में मन लगता था। सामा रात में अपनी दासी डिहुली के साथ वृन्दावन में भ्रमण करने के लिए और ऋषि मुनियों की सेवा करने उनके आश्रम में जाया करती थी। इस बात की जानकारी डिहुली के द्वारा भगवान श्री कृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुड़क को लग गई। उसे यह नहीं भाता था। उसने राजा भगवान श्री कृष्ण को सामा के ख़िलाफ़ कान भरना शुरु कर दिया। क्रोधित होकर भगवान श्री कृष्ण ने सामा को वन में विचरण करने वाली पक्षी बन जाने का शाप दे दिया। इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में उड़ने लगी। सामा को पंछी रूप में देख कर उसका पति चक्रवाक (चारूदत्त) ने भी भगवान महादेव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया और उसके साथ भटकने लगा।
सामा का भाई साम्ब जो इस अवसर पर कहीं और रहने के कारण अनुपस्थित था जब लौट कर आया तो इस समाचार को सुन बहन के बिछोह से बहुत दुखी हुआ। परंतु श्रीकृष्ण का शाप तो व्यर्थ होनेवाला नहीं था। इसलिए उसने कठोर तपस्या कर अपने पिता श्रीकृष्ण को फिर से खुश किया।
श्रीकृष्ण ने शाम्भ से वरदान मांगने को कहा। तब पुत्र शाम्भ ने अपनी बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस लाने का वरदान मांगा। तब जाकर भगवान श्री कृष्ण को पूरी सच्चाई का पता लगा। उन्होंने श्यामा के शाप-मुक्ति का उपाय बताते हुए कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाए जाएं और चुड़क की मूर्ति बनाकर चुड़क की कारगुजारीयों को उजागर किया जाए, तो दोनों पुनः अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे। और साथ ही श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर नौ दिनों के लिए बहन को उसके पास आने का वरदान दिया।
जनश्रुति के अनुसार सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ीयां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गई थीं। भाई शाम्भ भी उसे खोजते हुए मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को शाप से मुक्त करने के लिए सामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया। उनके आग्रह को मिथिला की महिलाओं ने माना और इस प्रकार शाम्भ ने बहन-बहनोई का उद्धार किया। सामा ने उसी दिन से अपने भाई की दीर्घ आयु की कामना लेकर बहनों को पूजा करने का आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि द्वापर युग से आज तक इस खेल का आयोजन होता आ रहा है।
इस अवसर पर एक पंक्ति में बैठे सात पंक्षियों की मूर्तियां भी बनायी जाती है, जो सतभैया कहलाते हैं। ये सप्त ऋषि के बोधक हैं. इस समय तीन तीन पंक्तियों में बैठी छह पार्थिव आकृतियों की मूर्तियां भी बनाई जाती है, जिन्हें शीरी सामा कहते हैं। वे षडऋतुओं के प्रतीक माने जाते हैं। महिलाएं नये खड के तिनकों से वृंदावन तथा लंबी लंबीं सन की मूंछों से युक्त चूडक का प्रतीक उसकी प्रतिमा भी बनाई जाती है। सबके अंत में दो विपरित दिशाओं की ओर मुखातिब दो पंक्षियों की मूर्तियां एक ही जगह बैठी बनाई जाती है, जो बाटो-बहिनों कहलाती है। यह सामा और उसके भाई का प्रतीक माना जाता है। इसके अतिरिक्त सामा चकेवा की भोजन सामग्री को रखने के लिए उपर एक ढंकन के संग मिट्टी की एक छोटी हंडी के आकार का बर्तन भी बनाया जाता है, जिसे सामा पौति कहते हैं, जिन्हें महिलाएं अपने हाथों से अनेक रंगों के द्वारा निम्य श्लोक के अनुसार रंगती हैं और जो बड़े ही आकर्षक दिखते हैं।
इस पर्व में सामा-चकेवा के खेल से बहनें भाई की सुख-समृद्धि और दीर्घायु होने की कामना करती हैं।
राम भइया चलले अहेरिया बेला, बहिनी देलन असीस हे ...
इसके बाद खड़ से बने वृन्दावन में आग लगाया और बुझाया जाता है। साथ ही यह गीत भी गाया जाता है
वृन्दावन में आगि लागल क्यो न बुझाबै हे ....,
हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे ....
हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे ....
इसके बाद महिलाएं संठी से बने हुए चुगला को गालियां देती हुई और उसकी दाढी में आग लगाते हुए गाती हैं-
चुगला करे चुगलपन बिल्लाई करे म्याऊं ... धला चुगला के पांसी दींउ
सामा-चकेवा का विशेष श्रृंगार किया जाता है। उसे खाने के लिए हरे-हरे धान की बालियां दी जाती है। सामा-चकेवा को रात में युवतियों द्वारा खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिए छोड़ दिया जाता है।
भाई-बहन के अटूट प्रेम का यह पर्व कार्तिक मास की पूर्णिमा के रोज़ परवान चढता है। इस दिन भाई केला के वीर का पालकी बनाता है, जिसे फूल-पात्तियों एवं अन्य चीज़ों से सजाकर आकर्षक रूप दिया जाता है। समापन से पूर्व भाइयों द्वारा सामा-चकेवा की मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है। आकर्षक रूप से सजे झिझरीदार मंदिरनुमा बेर में रखकर उसे नदी, तालाब, पोखर या खुले खेतों में परम्परागत लोकगीत के साथ विसर्जन कर दिया जाता है। महिलाएं अपने भाइयों को उसके धोती या गमछा से बने फार में मुढी और बतासा खाने के लिए देती हैं। भाई भी बहन के भेंट कर उसकी लंबी उम्र की कामना करता है।
विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करती हैं और गाती हैं-
साम-चक हो साम चक हो अबिह हे
जोतला खेत में बैसिह हे
सब रंग के पटिया ओछबिइह हे
भैया के आशीष दिह हे
विसर्जन के बाद ये महिलाएं चुगलखोर प्रकृति वाले लोगों को शाप भी देती हैं।