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गणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी व्रत -भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी- स्यमन्तक मणि की कथा

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गणेश चतुर्थी Ganesh Chaturthi
 

गणेश चतुर्थी Ganesh Chaturthi

आलेख © कॉपीराइट - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

गणेश चतुर्थी 7 सितंबर 2024 शनिवार को है

गणेश चतुर्थी 7 सितंबर 2024 शनिवार को है। मूर्ति स्थापना का शुभ मुहूर्त सुबह 11.04 बजे से शुरू होकर दोपहर 1.34 बजे तक रहेगा। गणेश उत्सव दस दिनों तक चलेगा और यह 17 सितंबर, मंगलवार को अनंत चतुर्दशी पर समाप्त होगा।

गणेश चतुर्थी व्रत एवं कथा -भाद्रपद शुक्ल पक्ष - स्यमन्तक मणि की कथा

गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार भारत के विभिन्न भागों में मनाया जाता है किन्तु महाराष्ट्र, कर्नाटका में बडी़ धूमधाम से मनाया जाता है जो भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी को पड़ता है। इसके अलावा प्रत्येक माह के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी का व्रत और उस माह का विशेष गणेश चतुर्थी व्रत कथा का विधान है। गणेश चतुर्थी गणेश चतुर्थी को गणेश चौथ, डण्डा चौथ के नाम से भी जानते हैं। इस दिन बालक छोटे-छोटे डण्डों को बजाकर खेलते हैं।
गणेश पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेश जी का जन्म हुआ था। शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है। इस दिन गणेशजीका मध्याह्न में जन्म हुआ था, अतः इसमें मध्याह्रव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि वह दो दिन हो या दोनों दिन न हो तो 'मातृविद्धा प्रशस्यते' के अनुसार पूर्वविद्धा लेनी चाहिये। इस दिन रवि या भौमवार हो तो यह 'महाचतुर्थी' हो जाती है। इस दिन रात्रिमें चन्द्रदर्शन करनेसे मिथ्या कलङ्क लग जाता है। उसके निवारणके निमित्त स्यमन्तककी कथा श्रवण करना आवश्यक है। भाद्रपद कृष्णपक्ष पर गणेश चतुर्थी व्रत कथा में राजा नल की कथा श्रवण करने का विधान है तथा भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी को स्यमन्तक मणि की कथा श्रवण करने का विधान है। यह कथा भगवान् श्रीकृष्ण से जुड़ी हुई है। गणेश जी का यह पूजन करने से विद्या, बुद्धि की तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।

गणपति 'गण' और 'पति' शब्द का संधि है। 'गण' का अर्थ है समूह और 'पति' का अर्थ है स्वामी ।
वैदिक मान्यता के अनुसार सृष्टि मूल में अव्यक्त स्रोत से प्रवृत्त हुई है। वह एक था, उस एक का बहुधा भाव या गण रूप में आना ही विश्व है। सृष्टिरचना के लिए गणतत्व की अनिवार्य आवश्यकता है। नानात्व से ही जगत् बनता है। बहुधा, नाना, गण इन सबका लक्ष्य अर्थ एक ही था। वैदिक सृष्टिविद्या के अनुसार मूलभूत एक प्राण सर्वप्रथम था, वह गणपति कहा गया। उसी से प्राणों के अनेक रूप प्रवृत्त हुए जो ऋषि, पितर, देव कहे गए। ये ही कई प्रकार के गण है। जो मूलभूत गणपति था वही पुराण की भाषा में गणेश कहा जाता है। शुद्ध विज्ञान की परिभाषा में उसे ही समष्टि (युनिवर्सल) कहेंगे। उससे जिन अनेक व्यष्टि भावों का जन्म होता है, उसकी संज्ञा गण है। गणपति या गणेश को महत्ततत्व भी कहते हैं। जो निष्कलरूप से सर्वव्यापक हो वही गणपति है। उसका खंड भाव में आना या पृथक् पृथक् रूप ग्रहण करना गणभाव की सृष्टि है। वस्तुत: गणपति तत्व मूलभूत रुद्र का ही रूप है। जिसे महान कहा जाता है उसकी संज्ञा समुद्र भी थी। उसे ही पुराणों ने एकार्णव कहा है। वह सोम का समुद्र था और उसी तत्व के गणभावों का जन्म होता है। सोम का ही वैदिक प्रतीक मधु या अपूप था, उसी का पौराणिक या लोकगत प्रतीक मोदक है जो गणपति को प्रिय कहा जाता है। यही गण और गणपति की मूल कल्पना थी।

भगवान गणेश का जन्म एवं उसकी कथा -

गणेश का अर्थ होता है गणों का ईश और आदि गणेश का अर्थ होता है सबसे पुराना यानी सनातनी।
शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वार पाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।
शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गज मुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

गणेश चतुर्थी व्रत

भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी से प्रारंभ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चंद्रोदयव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत करने पर विघ्नेश्वरगणेश प्रसन्न होकर समस्त विघ्न और संकट दूर कर देते हैं। इस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर सोने, तांबे, मिट्टी अथवा गोबर की गणेश जी की प्रतिमा बनाई जाती है। गणेश जी की इस प्रतिमा को कोरे कलश में जल भरकर, मुंह पर कोरा कपड़ा बांधकर उस पर स्थापित किया जाता है। फिर गणेश जी की मूर्ति पर सिन्दूर चढ़ाकर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।
गणेश जी को 21 लड्डूओं का भोग लगाने का विधान है। इनमें से 5 लड्डू गणेश जी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बांट देने चाहिए। गणेश जी की आरती और पूजा किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले की जाती है और प्रार्थना करते हैं कि कार्य निर्विघ्न पूरा हो । गणेश जी का पूजन सायंकाल के समय करना चाहिए। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को स्यमंतक मणि की कथा श्रवण करने का विधान है। स्यमंतक मणि की कथा पाठ जरूर करें। पूजनोपरांत दृष्टि नीची रखते हुए चंद्रमा को अर्घ्य देकर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा भी देनी चाहिए। इस प्रकार चंद्रमा को अर्घ्य देने का तात्पर्य है कि जहां तक संभव हो आज के दिन चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए। क्योंकि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से कलंक का भागी बनना पड़ता है । फिर वस्त्र से ढका हुआ कलश, दक्षिणा तथा गणेश जी की प्रतिमा आचार्य को समर्पित करके गणेश जी के विसर्जन का विधान उत्तम माना गया है। गणेश जी का यह पूजन करने से विद्या, बुद्धि की तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।

गणेश चतुर्थी व्रत का संकल्प

ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे नमः । ॐ अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - (अपने नगर/गांव का नाम लें) - नगरे/ ग्रामे विक्रम संवत 2081 पिंगल नाम संवत्सरे भादौ मासे कृष्ण पक्षे चतुर्थी तिथौ ... वासरे (दिन का नाम जैसे शनिवार है तो "शनि वासरे ")..(अपने गोत्र का नाम लें) ... गोत्रोत्पन्न ... (अपना नाम लें)... शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहम् यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः भादौ मासे चतुर्थी तिथौ मम सर्वकर्मसिद्धये सिद्धिविनायकपूजनमहं करिष्ये।

गणेश चतुर्थी व्रत कथा -भाद्रपद शुक्ल पक्ष - स्यमन्तक मणि की कथा

एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि अट्ठासी हजार ऋषियों ने शास्त्रवेत्ता सूतजी से पूछा कि हे सूतजी महाराज! सभी कार्यों की निर्विघ्न समाप्ति किस प्रकार से हो? धनोपार्जन में कैसे सफलता मिल सकती है। और मनुष्यों की पुत्र, सौभाग्य एवं सम्पत्ति की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है ? पति-पत्नी में कलह भाव से बचाव, भाई-भाई में परस्पर वैमनस्य से अलगाव तथा उदासीनता से अनुकूलता कैसे मिल सकती है? विद्योपार्जन, वाणिज्य व्यापार, कृषि कर्म एवं शासकों को अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने में कैसे सफलता मिल सकती है? किस देवता के पूजन अर्चन से मनुष्यों को अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है? हे सूतजी महाराज! इन सब बातों की आप विस्तृत विवेचना कीजिए। सूतजी कहते हैं कि हे ऋषियों! प्राचीनकाल में जब कौरव पाण्डवों की सेना युद्ध के लिए सन्नद्ध हुई तो उसी समय कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण जी से पूछा था। हे कृष्णजी! आप यह बतलाइये कि हमारी निर्विघ्न विजय किस प्रकार होगी? किस देवता की आराधना से हम अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकेंगे? श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे वीर पार्वती जी के मेल से उत्पन्न गणेश जी की पूजा कीजिए। उनकी पूजा से आप अपने राज्य को पा जायेंगे, यह निश्चित है।

युधिष्ठिर ने प्रश्न किया कि हे देव! गणेश पूजन का क्या विधान है? किस तिथि को पूजा करने से वे सिद्धि देते हैं? श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे महाराज! भादों महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को इनकी पूजा करनी चाहिए अथवा श्रावण, अगहन एवं माघ मास की चतुर्थी को भी पूजा जा सकती है। की हे राजन युधिष्ठिर! यदि आप में श्रद्धा भाव हो तो भादों शुक्ल चतुथीं से ही गणेश जी की पूजा प्रारम्भ कर दीजिए। व्रती को चाहिए कि प्रातः काल उठकर सफेद तिल से स्नान करें। दोपहर में सोने की मूर्ति चार तोले दो तोले, एक तोले या आधा तोले की अपनी सामर्थ्य के अनुसार बनवावें । यदि सम्भव न हो तो चांदी की प्रतिमा ही बनवा लें। यदि ऐस न कर सकें तो मिट्टी की मूर्ति बनवा लें। परन्तु अर्थ सम्पन्न होते हुए कृपणता न करें। ये ही 'वरविनाशक' और ये ही 'सिद्धिविनायक' है। मनोवांछा की सिद्धि के लिए भादों शुक्ल चौथ को इनकी पूजा करें। इनकी पूजा करने से सम्पूर्ण आकांक्षाएँ पूर्ण होती हैं, एतदर्थं भूमण्डल इन्हें 'विनायक' कहा जाता है। ध्यान की विधि एक दांत वाले, सूर के समान विस्तृत कान वाले, हाथी के समान मुख वाले, चार भुजाधारी, हाथ में पाश एवं अंकुश धारण किए हुए 'सिद्धविनायक' गणेश जी का हम ध्यान करते हैं। एकाग्रचित्त से पूजन करें। पंचामृत से स्नान कराने के बाद शुद्ध जल से स्नान करावें। तदनन्तर भक्ति पूर्वक गणेश जी को गन्ध चढ़ावें, आवाहन करके पाद्य, अर्घ्य आदि देने के बाद दो लाल वस्त्र चढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। फिर पान के ऊपर कुछ मात्रा में सोना रखकर (अथवा रुपया, अठन्नी आदि) बढ़ायें इसके बाद गणेश जी को इक्कीस दूव चढ़ावें। निम्नांकित नामों द्वारा भक्तिपूर्वक गणेश जी की पूजा दूर्वा से करें। हे गणाधिप ! हे उमापुत्र ! हे पाप के नाशक! हे विनायक! हे ईशनन्दन! हे सर्वसिद्धिदाता ! हे एकदन्त! हे गजमुख! हे मूषकवाहन! हे स्कन्दकुमार के ज्येष्ठ भ्राता ! हे गजानन महाराज! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। रोली, पुष्प एवं अक्षत के साथ दो-दो दूब लेकर प्रत्येक नाम का उच्चारण करते हुए अलग-अलग नामों से दूब अर्पित करें। हे देवाधिदेव! आप मेरे दूब को स्वीकार करें, मैं आपकी बारम्बार विनती कर रहा हूँ। इसी प्रकार भुना हुआ गेहूँ और अर्थात गुड़ धनिया, जो गणेश जी को परमप्रिय है, चढ़ावें। इसके बाद शुद्ध घी से निर्मित इक्कीस लड्डू हाथ में लेकर है कुरुकुल प्रदीप ! कहकर गणेश जी के आगे रख दें। उनमें से दस लड्डू ब्राह्मण को दान कर दें और दस लड्डू अपने भोजन के निमित्त रख लें। शेष लड्डू को गणेश जी के सामने नैवेद्य के रूप में पड़ा रहने दें। सुवर्ण प्रतिमा भी ब्राह्मण को दान दे दें। सभी कर्म करने के बाद अपने इष्ट देव का पूजन करें। तदनन्तर ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें। स्मरण रहे कि उस दिन मूंगफली, वनस्पति, बर्रे आदि के तेल का उपयोग न करें । अधोवस्त्र और उत्तरीय वस्त्र के सहित गणेश जी की मूर्ति को सम्पूर्ण विघ्न निवारण के लिए विद्वान ब्राह्मण को दान कर दें। हे धर्मराज युधिष्ठिर ! इस प्रकार गणेश जी की पूजा करने से आप सभी पाण्डवों की विजय होगी। इसमें सन्देह की कोई बात नहीं है, यह मैं बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ। गुरु से दीक्षा लेने के समय वैष्णव आदि प्रारम्भ में गणेश पूजन करते हैं। गणेश जी की पूजा करने से विष्णु, शिव, सूर्य, पार्वती (दुर्गा), अग्नि आदि विशिष्ट देवों की भी पूजा हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं है। इनके पूजन से चण्डिका आदि मातृगण सभी प्रसन्न होते हैं। हे ऋषियों! भक्तिपूर्वक सिद्धिविनायक गणेश जी की पूढ़ा करने से, उनकी कृपा के फलस्वरूप मनुष्यों के सभी कार्य पूर्ण होते हैं।

भाद्र शुक्ल गणेश चतुर्थी की पूजा शिव लोक में हुई है। इस दिन स्नान, दान, उपवास, पूजन आदि करने से गणेश जी की अनुकम्पा से शताधिक फल होता है। हे युधिष्ठिर! इस दिन चन्द्र दर्शन को निषेध किया गया है। इसलिए अपने कल्याण की कामना से दोपहर में ही पूजा कर लेनी चाहिए। सिंह राशि की संक्रान्ति में, शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्र दर्शन करने से (चोरी, व्यभिचार, हत्या आदि का) मिथ्या कलंकित होना पड़ता है। इसलिए आज के दिन चन्द्र दर्शन करना वर्जित है। यदि भूल से चन्द्र दर्शन हो जाय तो ऐसा कहें- 'सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला और जाम्बवान ने सिंह को यमालय भेज दिया। हे बेटा! रोओ मत, तुम्हारी स्यमन्तक मणि यह है।

स्यमन्तक मणि का उपाख्यान

नन्दिकेश्वर कहते हैं कि आप लोग दत्तचित्त होकर इस कथा को श्रवण करें। भादों शुक्ल चतुर्थी को सदैव सावधानी पूर्वक गणेश जी के शुभदायक व्रत को करें।

हे विप्रवर! नर अथवा नारी जो भी इस व्रत को करते हैं वे तुरन्त ही कष्टों से छुटकारा पा जाते हैं। उनके सभी कलंकों का शमन एवं विघ्ननिवारण होता है। सुनसान वन में विषम परिस्थिति में, अदालत सम्बन्धी मामलों में, सम्पूर्ण कार्यों में सफलता देने वाला यह व्रत सम्पूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ है। यह वत विश्व विश्रुत एवं गणेश जी को परम प्रिय है। सनत्कुमार जी पूछते हैं कि प्राचीनकाल में इस व्रत को किसने किया, इसका प्रचार मृत्युलोक में किस तरह हुआ? आप गणेश जी के व्रत को विस्तारपूर्वक कहिए। नन्दिकेश्वर ने कहा कि इस व्रत को सर्वप्रथम प्रतापवान भगवान वासुदेव जगन्नाथ (कृष्ण) जी ने किया था जब उन पर झूठा दोषारोपण हुआ तो उसके शमनार्थ नारद जी ने उनसे इस व्रत को करने के लिए कहा था। सनत्कुमार ने आश्चर्यचकित होकर पुनः प्रश्न किया कि हे नन्दिकेश्वर ! श्रीकृष्ण जी सर्वगुण सम्पन्न ऐश्वर्य युक्त भगवान हैं।

सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारक हैं, अव्यय, अप्रेमय, निर्गुण एवं सगुण हैं। ऐसे घट-घट वासी भगवान कृष्ण को मिथ्या कलंक किस प्रकार लग गया? यह बात बहुत ही विस्मयकारी है। हे नन्दिकेश्वर ! आप इस उपाख्यान का वर्णन कीजिए। नन्दिकेश्वर कहने लगे-पृथ्वी का भार हरण करने के लिए भगवान मनाम (विष्णु) और हलधर बलरामजी ने, वसुदेव के पुत्ररूप में अवतार धारण किया। मगध सम्राट जरासन्ध के बार-बार आक्रमण करने के कारण कृष्ण जी ने विश्वकर्मा द्वारा समुद्र में स्वर्ण निर्मित द्वारिकापुरी बनवाई। उस पुरी में सोलह हजार रानियों के लिए सोलह हजार सुन्दर महलों को निर्मित कराया। उन रानियों के निवास के उपभोग के निमित्त पारिजात वृक्ष का आरोपण कराया। इसके अतिरिक्त छप्पन करोड़ यादवों के लिए छप्पन करोड़ भवनों की व्यवस्था की और अन्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रादि) लोगों के निवास का भी प्रबन्ध करवाया, जहां जनता शान्ति पूर्वक बसती थी। त्रैलोक्य में उपलब्ध होने वाली जितनी वस्तुएँ थीं सभी का वहाँ संग्रह किया गया था।

उस द्वारिकापुरी में उग्र नामक यादव के सत्राजित और प्रसेन नामक दो पुत्र हुए। समुद्र तट पर स्थित भाव से सूर्य नारायण को प्रसन्न करने के लिए वीर्यवान सत्राजित तपस्या करने लगे । वे निराहार रहकर सूर्य की ओर टकटकी बांधकर आराधना करने लगे। भगवान सूर्य प्रसन्न होकर सत्राजित के समक्ष प्रकट हुए। सत्राजित भी अपने आराध्य के दर्शन से बहुत प्रसन्न हुए । सत्राजित स्तुति करने लगे कि हे तेज पुंज! हे स्वतः प्रकाशवान ! हे काश्यपेय ! हे हरिदश्व! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। हे ग्रहराज ! हे चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाले! हे वेदत्रयी स्वरूप! हे सम्पूर्ण देवों के अधिपति! आपको मेरा नमस्कार है। हे देवराज! आप मेरे पर प्रसन्न हों। हे दिवाकर! आपकी कृपा दृष्टि मरे ऊपर हो जाये। सत्राजित की ऐसी स्तुति से भगवान सूर्य ने सत्राजित से शान्त, गम्भीर एवं मधुर वाणी में कहा कि हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। तुम्हारी जो अभिलाषा हो वह हमसे माँग लो। हे महाभाग्यशाली सत्राजित! हम तुम्हारी आराधना से सन्तुष्ट हैं। अब तुम इस सुन्दर रत्न को ले लो यह देवों को भी अप्राप्य है। ऐसा कहकर प्रसन्न मन से भगवान ने अपने कण्ठ से मणि उतारकर उसे दे दी। भगवान सूर्य ने उससे कहा कि यह प्रतिदिन आठ भार अर्थात २४ मन सोना प्रदान करती है। अतः मणि धारण करने के समय पवित्र रहना चाहिए। हे सत्राजित! अशौचावस्था में धारण करने से धारक का मरण हो जाता है। इतना कहकर तेजवान भगवान सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। उस मणि को धारण करके सत्राजित ऐसे सुशोभित हुए मानो वह सूर्य नारायण ही हैं। हे राजन! उनके द्वारिकापुरी में प्रवेश करने पर उस तेज के कारण किसी को मालूम न हुआ कि कौन आ रहा है। उस कान्तिमान मणि को कण्ठ में धारण किये हुये वह कृष्ण जी की द्वारिका में तुरन्त ही चले आये। उस मणि की चमक से देखने वालों ने समझा कि साक्षात सूर्य भगवान ही आये हैं। जब लोगों ने समीप आकर स्पष्ट रूप से देखा तो उनकी समझ में आया कि यह सूर्य नहीं है ये तो सत्राजित हैं जो कंठ में मणि धारण करने के कारण सुशोभित हो रहे हैं। सत्राजित के कंठ में स्यमन्तक मणि को देखकर भगवान कृष्ण का मन लालायित हो उठा, परन्तु उन्होंने उसे लेने की चेष्टा नहीं की। इधर सत्राजित के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया कि कहीं कृष्णजी मुझसे यह मणि मांग न लें। इस भय से उसने उस मणि को अपने भाई प्रसेनजित को दे दिया साथ ही उसे पवित्र रहकर पहनने के लिए सावधान भी कर दिया।

एक समय की बात है कि प्रसेनजित उस मणि को पहने हुए ही कृष्णजी के साथ वन में आखेट के लिए गए। अशुचिता के कारण अश्वारूढ़ प्रसेनजित को एक शेर ने मार डाला। उस सिंह को रत्न लेकर जाते देखकर जाम्बवान ने मार डाला। जाम्बवान ने उस मणि को गुफा में लाकर अपने बेटे को दे दिया। इधर श्रीकृष्ण जी अपने सहयोगी शिकारियों के साथ द्वारिका में लौट आये।
समस्त द्वारिकावासियों ने अकेले कृष्ण को आया देखकर ऐसा अनुमान लगाया कि मणि के लोभ में कृष्ण ने प्रसेनजित की हत्या कर डाली है। ऐसा कौन-सा अधर्म है जो लोभी के लिए करणीय न हो। लोभी तो अपने गुरुजनों का भी वध कर डालता है इसी प्रकार की चर्चा सब लोग करने लगे। झूठे दोषारोपण से कृष्ण जी के मन में दुःख हुआ बहुत ही और वे किसी से बिना कुछ कहे सुने लोगों को साथ लेकर नगर से बाहर चले गये। वन में जाकर कृष्ण ने देखा कि एक स्थान पर प्रसेनजित सिंह द्वारा मृत होकर पड़े हैं। सवारी के साथ प्रसेनजित के पदचिन्हों के सहारे वहाँ गए जहाँ ऋक्ष ने सिंह को मारा था। रक्तबिन्दु के आधार पर श्रीकृष्ण उसकी गुफा में घुस गये। ऋक्षराज की गुफा बहुत ही भयंकर थी और उसमें गहन अंधेरा था। अतः प्रजाजनों को गुफा द्वार पर छोड़कर भगवान कृष्ण अकेले ही उसमें प्रविष्ट हो गए। अपने तेज से अन्धकार निवारण करते हुए भगवान उस गुफा में चार सौ कोस तक चले गए। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने स्थान एवं महल को देखा। वहाँ पर जाम्बवान का पुत्र सुन्दर पालने में झूल रहा था और पालने में मणिरत्न लटक रहे थे। बालक के उस खिलौना स्वरूप मणि को लेने के लिए भगवान कृष्ण उसके निकट खड़े हो गये ।
रूप लावण्य से पूर्ण कमलनयनी किशोरी उस पालने को झुला रही थी। वह मन्द मुस्कान भी बिखेर रही थी ऐसी नवयुवती बाला को देख कर कृष्ण जी विस्मित हो गये। वह कमल मुखी बाला धीरे-धीरे कह रही थी कि लाड़ले! तुम क्यों रो रहे हो? देखो, प्रसेनजित को सिंह ने मार डाला और सिंह को हमारे पिता जी ने मारकर, यह स्यमन्तक मणि तुझे खेलने के लिए ला दी है। कमल नयन भगवान कृष्ण को देखकर वह बाला कामातुर होकर धीरे-धीरे प्यार भरी बात कहने लगी कि मेरे पिता की दृष्टि पड़ने से पहले ही आप यहाँ चले जाइए। यह सुनकर प्रतापवान कृष्ण जी हंसकर अपना पांचजन्य शंख बजाने लगे। उस शंखनाद से ऋक्षराज घबड़ाकर उठ बैठा और उनके पास चला आया। फलस्वरूप भगवान कृष्ण और जाम्बवान में परस्पर तुमुल युद्ध होने लगा। इस दृश्य से सभी नारियाँ चीत्कार करने लगीं और गुफा के नागरिक आश्चर्य में पड़ गये। उधर गुफा द्वार पर कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे पुरजन उन्हें मृत समझकर सातवें दिन द्वारिका लौट गये। वहाँ पहुँच कर उन लोगों ने उनका मृतक कर्म कर डाला। इधर गुफा के अन्दर भगवान कृष्ण और ऋक्षराज में इक्कीस दिनों तक लगातार मल्लयुद्ध होता रहा। भगवान कृष्ण ने ऋक्षराज के युद्धोन्माद को क्षीण कर दिया। त्रेतायुग की बातों का स्मरण कर जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया। जाम्बवान कहने लगे कि मैं सभी देवों, दैत्यों, यक्षों, नागों, गन्धर्वों, पिशाचों और मरूदगणों से अपराजेय हूँ वे लोग मेरे पराक्रम के समक्ष नहीं टिक सकते। हे देवाधिदेव! आपने मेरे पर विजय पायी है, इससे आपका देवाधिपति होना निश्चित है। मैं समझ गया कि आप में भगवान विष्णु का तेज है, किसी अन्य में इतना बल नहीं हो सकता। जिसके किंचित कृपाकटाक्ष से चारों पदार्थ सुलभ हो जाते हैं, उसके किंचित रोष से घड़ियाल, मगरमच्छ आदि जीव व्याकुल हो गये और अथाह सागर भी विक्षुब्ध हो उठा। उस सागर ने अपनी धृष्टता के लिए क्षमा याचना की सेना के लिए मार्ग प्रदान किया। आपने सेतु बांध कर अपने यश को उज्जवल किया और सैन्यदल के साल लंका पर आक्रमण करके राक्षसों का अपने बाणों द्वारा शिरच्छेदन किया। आप त्रेतायुग के वही राम हैं। हे जब जाम्बवान ने पहचान लिया तो उससे देवकी नन्दन श्रीकृष्ण जी कहने लगे ।

भगवान कृष्ण ऋक्षराज के मस्तक पर अपना कल्याणकारी हाथ फेरते हुए उससे प्रेमपूर्वक कहने लगे। हे ऋक्षराज! इस मणि के कारण मुझे झूठा कलंक लगा है। उसी कलंक के निवारणार्थ मणि प्राप्त करने के लिए मैं तुम्हारी गुफा में आया हूँ। भगवान की बात सुनकर जाम्बवान ने प्रसन्नता पूर्वक अपनी कन्या जाम्बवती को उन्हें समर्पित करके, दहेज स्वरूप मणि भी दे दी। भगवान कृष्ण ने कन्या और मणि ग्रहण कर जाम्बवान के ज्ञान का उपदेश देकर जाने का विचार किया। भगवान कृष्ण के जाने से पहले जाम्बवान ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण साथ कर दिया। जाम्बवती के साथ मणि लेकर भगवान कृष्ण प्रसन्न मन से द्वारिका आये। जिस प्रकार किसी मृतक के पुनरुज्जीवित होने पर उसके परिवार वालों के हर्ष की सीमा नहीं रहती, वही अवस्था कृष्ण को देखकर द्वारिकावासियों की हुई। श्रीकृष्ण को धर्मपत्नी के साथ मणि लेकर लौटा देखकर सभी लोग उत्सव मनाने लगे। भगवान कृष्ण प्रसन्न होकर मित्र वर्ग के साथ सुधर्मा सभा अर्थात यादवों की राज्यसभा में आये। वहां उन्होंने मणि के गायब होने और उसकी पुनः प्राप्ति की सारी घटना को कह सुनाया। भगवान कृष्ण ने राज्यसभा में उपस्थित सत्राजित को अपने पास बुलाकर उसे वह मणि दे दी। यादव संसद सदस्यों के सामने मणि देकर भगवान झूठे कलंक के दोष से मुक्त हो गये। सत्राजित बुद्धिमान थे। मणि पाकर उन्हें लज्जा आई जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। इसके बाद शतधन्वा, अक्रूर आदि दूषित हृदय वाले यादव मणि प्राप्ति के लिए सत्राजित से शत्रुता करने लगे। एक बार की बात है कि श्रीकृष्ण जी कहीं गये हुए थे। उनकी अनुपस्थिति में पापात्मा शतन्धवा ने सत्राजित की हत्या करके मणि अपने कब्जे में कर ली ।

श्रीकृष्ण के लौटने पर सत्यभामा ने उन्हें सारी बातें बतलाई। एक बार नगर में पुनः चर्चा उठी कि ये कृष्ण भीतर से तो काले अर्थात कलुषित हृदय वाले हैं और ऊपर से सीधे दीखते हैं। तब भगवान कृष्ण ने बलदेव जी से कहा कि भैया, शतधन्वा ने सत्राजित का वध कर डाला है। अतः अब वह मणि के साथ पलायन करने वाला है। शतधन्वा ने सत्राजित की हत्या करके हम लोगों की मणि का अपहरण कर लिया है। वह मणि हम लोगों के लिए भोग्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह बात जब शतधन्वा को मालूम हुई तो उसने भयभीत होकर मणि को अक्रूर को दे दिया। मणि देने के पश्चात वह एक घोड़ी पर आरूढ़ होकर दक्षिण की ओर भाग गया। इधर रथारूढ़ होकर बलराम और श्रीकृष्ण उसका पीछा करने लगे। सौ योजन के बाद उसकी घोड़ी मार डाली गई, तब वह पैदल ही भागा। श्रीकृष्ण जी ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और उसका वध कर डाला। मणि के लिए इच्छुक कृष्ण जी ने रथारूढ़ बलदेव से कहा कि भैया! इसके पास से तो मणि नहीं मिली। कृष्ण की बात से बलराम जी ने रुष्ट होकर कहा-कृष्ण! तुमने सदैव से कपट का व्यवहार किया है। तुमसे बढ़कर लोलुप और पापी कोई अन्य व्यक्ति नहीं होगा। जब तुम धन के लोभ में पड़कर अपने सगे सम्बन्धियों की हत्या करने में भी नहीं चूकते तो ऐसा कौन भाई बन्धु होगा जो तुम्हारा साथ दे। तदनन्तर बलराम जी की तुष्टि के लिए श्रीकृष्ण ने शपथ के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया। ऐसे मिथ्यापवाद के क्लेश को सहन करना धिक्कार है-ऐसा कहकर बलदेव जी बरार (विदर्भ) देश की ओर चले गये और कृष्ण जी रथ में सवार होकर द्वारकापुरी में वापस लौट आये। कृष्ण के लौटने पर द्वारकावासी पुनः चर्चा करने कि कृष्ण ने अपने बड़े भाई बलराम जी को द्वारका से बाहर निकालकर अच्छा काम नहीं किया। मणि के लोभ में उन्हें ऐसा करना उचित नहीं था। इस लोकापवाद से श्रीकृष्ण के मन में बहुत ही खेद हुआ और उनका चेहरा मुरझा गया। इधर अकर भी तीर्थाटन के लिए द्वारका से निकल पड़े। उन्होंने काशीपुरी में आकर यज्ञपति भगवान के लिए विष्णुयोग किया। अक्रूर ने उस मणि द्वारा दैनिक स्वर्ण प्राप्ति के द्वारा सभी लोगों को दक्षिणा देकर सन्तुष्ट नगर में विभिन्न देवों के मन्दिरों का निर्माण कराया। सूर्य द्वारा प्रदत्त उस मणि को सदैव अक्रूर पवित्रता के साथ धारण करते थे। फलस्वरूप वे जहां भी रहते, वहाँ न तो कभी अकाल ही पड़ता था और न व्याधिजनित किसी रोग का ही प्रकोप होता था। भगवान कृष्ण सर्वज्ञ थे, वे सभी बातों को जानते थे। मनुष्य देहधारी होने के कारण लोकाचार के लिए, मायाविष्टता में अपनी अज्ञानता प्रकट करते थे। देखो तो मणि के कारण भाई बलराम जी से विरोध हुआ, बार-बार तरह-तरह के अभियोग लगते रहे । अतः इतना कलंक कहाँ तक सहा जाय? कृष्ण जी की इस चिन्तातुरावस्था में ही वहाँ नारद जी आ पहुँचे। भगवान द्वारा अभ्यर्थित होकर, आसन पर सुखपूर्वक बैठकर मुनि कहने लगे।

नारद ने कहा कि हे भगवान! आप खिन्न क्यों दिखाई पड़ रहे हैं। आप किस चिन्ता में पड़े हुए हैं। हे केशव ! आप सम्पूर्ण वृत्तान्त मुझसे कहें। श्रीकृष्ण जी ने कहा कि हे देवर्षि नारद! मुझे बार-बार अकारण कलंक लग रहा है, इस कारण मुझे अत्यन्त पश्चाताप है। मैं आपकी शरण में हूँ, आप मुझे चिन्ता रहित कीजिए।
नारद जी ने कहा कि हे देव! आप पर लगने वाले कलंक का कारण मैं जानता हूँ। आपने भादों सुदी चतुर्थी को चन्द्रदर्शन किया है। इसीलिए आपको बार-बार कलंकित होना पड़ रहा है। नारद जी की बात सुनकर भगवान कृष्ण सारगर्भित वाणी में कहने लगे कि हे देवर्षि नारद जी ! चतुर्थी के चन्द्रदर्शन से कैसे दोष लगता है, जबकि द्वितीया के चांद का लोग दर्शन करते हैं और उसका सुन्दर फल पाते हैं।
नारद जी ने कहा कि स्वयं गणेश जी ने दर्शनीय रूप वाले अर्थात सुन्दरतम रूप पर गर्व करने वाले चन्द्रमा को श्राप दिया है कि आज के दिन जो लोग तुम्हारे दर्शन करेंगे, समाज में उन्हें व्यर्थ ही निन्दा का पात्र होना पड़ेगा।
श्रीकृष्ण जी ने पूछा कि हे मुनिवर ! अमृत की वृष्टि करने वाले चन्द्रमाको गणेश जी ने क्यों शाप दिया? आप इस सर्वोत्तम उपाख्यान का विस्तृत वर्णन कीजिए। नारद जी ने उत्तर दिया कि प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने मिलकर गणेश जी को अष्टसिद्धि तथा नवनिधि को पत्नी स्वरूप प्रदान किया। तदनन्तर शास्त्रोक्त विधि से गणेश जी की पूजा करके, उन्हें सम्पूर्ण देवों में अग्रणी बनाकर प्रजापति ब्रह्मा जी उनकी स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा जी ने कहा कि हे हाथी सदृश मुख वाले ! हे गणपति ! हे लम्बोदर ! हे वरदायक! हे समस्त विद्याओं के अधिपति! हे देवताओं के अधिनायक! हे सृष्टिकर्ता, पालक एवं संहारकर्ता गणेश जी जो लोग भक्तिपूर्वक आपको लड्डू चढ़ाकर पूजन करेंगे, उनके सभी विघ्न दूर हो जायेंगे और दुर्लभ सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं, जो देवता या दानव आपकी पूजा किए बिना सफलता की कामना करते हैं, उन्हें अरबों कल्प तक भी सिद्धि नहीं मिलती। हे गणाध्यक्ष! आपके कृपा कटाक्ष के बल पर सदा विष्णु पालन करते हैं तथा शिवजी संहार करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरी सामर्थ्य नहीं है जो मैं आपकी स्तुति कर सकूँ? ब्रह्मा जी के मुख से ऐसी स्तुति सुनकर गणेश जी ने विश्व के अधिपति ब्रह्मा जी से प्रेम पूर्वक कहा- गणेश जी ने कहा कि हे जगत के रचियता ब्रह्मा जी ! मैं आपकी भक्ति निश्छल स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । आपकी जो इच्छा हो मुझसे वर के रूप में मांग लीजिए, मैं उसे पूर्ण करूँगा ।

ब्रह्मा जी ने कहा कि हे प्रभु! सृष्टि के रचनाकाल में मुझे किसी प्रकार की बाधा न हो। यह सुनकर गणेश जी ने प्रसन्न मन से मुस्कराते हुए कहा- ऐसा ही होगा अर्थात आपका कार्य निर्विघ्न रूप से चलता रहेगा। ब्रह्मा जी अभीष्ट वरदान पाकर अपने लोक को चले गये। इधर स्वेच्छा से भ्रमण करने वाले गणेश जी ने सत्यलोक से चलकर, अपना अद्वितीय स्वरूप धारण किया, आकाश मार्ग से चन्द्रलोक में जा पहुँचे। रूपशाली चन्द्रमा ने गणेश जी के ऐसे हास्य योग्य स्वरूप को देखा जिसमें उनकी लम्बी सूँड, सूप के समान कान, लम्बे दांत, भारी भरकम तोंदीला पेट और चूहे के वाहन पर आसीन हैं। ऐसे विस्मयकारी रूप को देखने से रूपगर्वित चन्द्रमा को हँसी आ गई। चन्द्रमा के हंसने से गणेश जी कुपित हो गये, उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गई। उन्होंने चन्द्रमा को शाप दिया कि तुम दर्शनीय एवं सुन्दर रूप वाले मुझको देखकर हंस रहे हो ।
गणेश जी ने कहा कि चन्द्रमा-तुम मददर्पित हो रहे हो। इसका फल तुम्हें बहुत जल्द भोगना होगा। आज से शुक्ल चतुर्थी के दिन कोई भी व्यक्ति तुम्हारे पापी मुंह को नहीं देखेगा। जो व्यक्ति भूल से भी तुम्हारे मुख को देख लेगा उसे अवश्य कलंकित होना पड़ेगा। नारद जी कहते हैं। कि हे कृष्ण जी ! ऐसा भीषण शाप सुनकर विश्व में हाहाकार मच गया और चन्द्रमा का मुख मलिन हो गया तथा वे जल में प्रविष्ट हो गए।
उसी दिन से चन्द्रमा अपना स्थान जल में बनाकर रहने लगे। इधर देवता, ऋषि और गन्धयों को बड़ी निराशा हुई और वे सब दुखी होकर देवराज इन्द्र के नेतृत्व में पितामह ब्रह्मा जी के लोक में गये। ब्रह्मा जी का दर्शन करने के बाद उन लोगों ने चन्द्रमा के वृत्तान्त का वर्णन कर दिया, कि आज गणेश जी ने चन्द्रमा को शाप दे दिया है। तब ब्रह्मा जी ने सोचकर उन देवताओं से कहा कि हे देवताओं! गणेश जी के शाप को कोई काट नहीं सकता है। न तो मैं ही काट सकता हूँ और न विष्णु, इन्द्रादि देवता ही। ऐसा निश्चय जानिए। इसलिए हे देवों! आप उन्हीं की शरण में जायें। वे ही चन्द्रमा को शाप मुक्त कर सकते हैं।

देवताओं ने पूछा कि हे पितामह। हे अतीव बुद्धिशाली हे प्रभु किस 'उपाय से गजानन प्रसन्न होकर वर देंगे? आप उसी उपाय को बतलाइए। ब्रह्मा जी ने कहा कि गणेश जी का पूजन विशेषतया कृष्ण चतुर्थी को रात्रि में यत्न पूर्वक करना चाहिए। शुद्ध घी में उन्हें मालपूआ, लड्डू आदि बनाकर भोग लगाना चाहिए। स्वयं भी इच्छापूर्वक मिष्ठान्न, हलुवा, पूरी, खीर आदि का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मणों को दान स्वरूप गणेश जी की स्वर्ण प्रतिमा देनी चाहिए। शक्ति के अनुसार दक्षिणा दें, धन रहते हुए कृपणता नहीं करनी चाहिए। पूजन व्रतादि की विधि जानकर सब देवताओं ने देवगुरु बृहस्पति को भेजा और उन्होंने चन्द्रमा के पास जाकर ब्रह्मा जी की बताई हुई विधि सुनाई। चन्द्रमा ने ब्रह्मा जी की बताई हुई विधि के द्वारा गणेश जी का व्रत एवं पूजन किया। जिसके फलस्वरूप प्रसन्न होकर भगवान गणेश जी प्रसन्न हो गए। अपने सम्मुख गणेश जी को क्रीड़ा करते हुए देखकर चन्द्रदेव उनकी स्तुति करने लगे। चन्द्रमा ने कहा- हे विभो ! आप समस्त कारणों में आदि कारण हैं, आप सर्वज्ञ एवं सबके जानने योग्य हैं, आप मुझ पर प्रसन्न होइए। हे देवाधिपति! हे जगनिवास हे लम्बोदर हे वक्रतुण्ड हे गणेश जी है ब्रह्मा विष्णु से पूजित! मैंने गर्व के कारण आपका उपहास किया था, उसके लिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होइए। हे गणेश जी! जो आपकी पूजा न करके अर्थ सिद्धि की इच्छा रखते हैं। वे वास्तव में मूर्ख और संसार में अभागे हैं। मुझे अब आपके सम्पूर्ण प्रभाव का ज्ञान हो गया है। जो पापात्मा आपकी पूजा से विमुख रहते हैं, उन्हें नर्क में भी स्थान नहीं मिलता। चन्द्रमा द्वारा ऐसी स्तुति सुनकर गणेश जी हँसते हुए मेघ के समान गुरु गर्जना में बोले।

गणेश जी ने कहा कि हे चन्द्रमा! मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वह तुम मुझसे वरदान के रूप में मांग लो। मैं तुम्हें देने के लिए तैयार हूँ। चन्द्रमा ने कहा कि मेरा दर्शन सभी लोग पुनः पूर्ववत् करने लगे। चन्द्रमा ने कहा कि हे गणेश्वर! आपकी कृपा से मेरे पाप शाप दूर हो जायें । यह सुनकर गणेश जी ने कहा कि हे चन्द्र! मैं तुम्हें इसके बदले दूसरा वरदान दे सकता हूँ। किन्तु यह नहीं दे सकता। विघ्नेश्वर गणेश जी के ऐसे वचन को सुनकर ब्रह्मादि देवगण अत्यन्त भयभीत होकर भक्तवत्सल गणेश जी की प्रार्थना करने लगे।

देवता लोग निवेदन करने लगे कि हे देवाधिदेव ! आप चन्द्रमा को शाप मुक्त कर दें, यही वरदान हम सभी आपसे चाहते हैं। आप ब्रह्मा जी के बड़प्पन का विचार कर चन्द्रमा को शापामुक्त कर दें। देवताओं की बात सुनकर जी ने बड़े ही आदर के साथ कहा कि आप लोग मेरे भक्त हैं, अतः मैं आप लोगों को अभीष्ट वर प्रदान करता हूँ। गणेश जी ने कहा कि जो लोग भादों सुदी चौथ को चन्द्रमा का दर्शन करेंगे उन्हें मिथ्या कलंक तो अवश्य ही लगेगा, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है किन्तु महीने के आरम्भ में, शुक्ल द्वितीया के दिन जो व्यक्ति हर महीने में निरन्तर तुम्हारा दर्शन करते रहेंगे, उन्हें भादों सुदी चौथ के दर्शन का दुष्परिणाम नहीं भोगना होगा। नारद जी कहते हैं कि हे कृष्ण ! तभी से द्वितीया के दिन सब लोग आदर पूर्वक चन्द्र दर्शन करने लगे। स्वयं गणेश जी ने द्वितीया के चन्द्रदर्शन की महत्ता का वर्णन किया है। दूज के चन्द्रमा का दर्शन करने वाले जो पापात्मा भाद्र शुक्ल को तुम्हारा दर्शन करेंगे उन्हें एक वर्ष के भीतर ही मिथ्या कलंक का भागी होना पड़ेगा। इसके पश्चात् चन्द्रमा ने गणेश जी से पुनः पूछा कि यदि ऐसी घटना घटित हो जाये तो हे देवाधिपति! आप किस उपाय से प्रसन्न होंगे, यह बताने की कृपा कीजिए।

श्री गणेश जी ने कहा कि कृष्ण पक्ष की प्रत्येक चतुर्थी को जो लोग लड्डू का भोग लगाकर मेरा पूजन करेंगे और विधि पूर्वक रोहिणी के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे। जो लोग मेरी स्वर्ण प्रतिमा का पूजन करके कथा श्रवण करेंगे एवं ब्राह्मण भोजन करा कर उन्हें दान देंगे तो मैं सदैव उनके कष्टों का निवारण करता रहूँगा। यदि स्वर्ण प्रतिमा निर्मित कराने की क्षमता न हो तो मिट्टी की प्रतिमा का विविध सुगन्धित फूलों से मेरी पूजा करें, फिर प्रसन्न मन से ब्राह्मण को भोजन कराकर विधिपूर्वक पूजन के बाद कथा सुनकर वर्णित द्वारा ब्राह्मण को समर्पण करें कि हे देवदेव गणेश जी ! आप हमारे इस दान से प्रसन्न होइए और सदैव सभी समय हे देव! आप हमारे कार्यों को निर्विघ्न पूरा करें। आप सम्मान, उन्नति, धन धान्य, पुत्र-पौत्रादि देते रहें। हमारे वंश में विद्वान, गुणी और आपके भक्त पुत्र उत्पन्न होते रहें। तदनन्तर ब्राह्मण को यथाशक्ति दान की दक्षिणा दें। नमकीन पदार्थों से विरहित होकर लड्डू, मालपूआ, खीर आदि मीठे पदार्थों का ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं इच्छानुसार भोजन करें तथा प्रकार व्रत रहकर पूजन करें तो मैं सदा विजय, कार्य में सिद्धि, धन-धान्य, विपुल सन्तति देता रहूँगा। इस प्रकार कह कर सिद्धिविनायक गणेश जी अन्तर्धान हो गये।

नारद जी ने कहा कि हे कृष्ण जी ! आप भी इस व्रत को कीजिए । आपका कलंक छूट जाएगा। तब नारद जी के आदेशानुसार भगवान कृष्ण ने अनुष्ठान किया । इस व्रत के करने से श्रीकृष्ण कलंक से मुक्त हो गये।
नारद जी कहते हैं कि जो कोई आपके स्यमन्तक मणि के उपाख्यान को सुनेंगे, चन्द्रमा के चरित्र का कथानक सुनेंगे, उन्हें भाद्रशुक्ल चतुर्थी के चन्द्र का दोष नहीं लगेगा। जब भी मानसिक संकट या किसी तरह का संशय उत्पन्न हो. चन्द्रमा का दर्शन भल से हो जाय तो उसके निमित्त इस कथा को सुनना चाहिए। ऐसा देवताओं ने वर्णन किया है कि कृष्ण जी ने गणेश जी की आराधना करके व्रत और पूजन से उन्हें प्रसन्न किया। अतः मनुष्यों को चाहिए कि इस क्लेशापहारक कथा को अवश्य ही सुनें। नर अथवा नारी पर किसी प्रकार का संकट आने पर इस व्रत के करने से उनके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। विघ्नविनाशक गणेश जी की प्रसन्नता से मनुष्य को संसार में सभी पदार्थ सुलभ हो जाते हैं।

चंद्र दर्शन दोष से बचाव

प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात्‌ व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है। जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-

'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'

भगवान् गणेश सब की मनोकामना पूर्ण करें

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गणेश चतुर्थी भाद्रशुक्ल गणेश चतुर्थी व्रत कथा स्यमन्तक मणि की कथा Ganesh Chaturthi