अन्नप्राशन संस्कार
Annaprashan ceremony
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आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
अन्नप्राशन-संस्कार -
जब बालक छः-सात महीने का होता है, दाँत निकलने लगते हैं, पाचन शक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है। पाचन शक्ति की वृद्धि हो जानेके कारण केवल माता के दूध से बालक का भरण-पोषण पूरा हो नहीं पाता, ऐसी अवस्था में यदि अन्न न खिलाया जायगा तो बालक के रक्त और मांस को ही जठराग्नि जलाने लग जायगी, जिससे बालक दुबला होता जायगा तथा क्षुधा-निवृत्तिके लिये मिट्टी आदि अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने लगेगा, जिससे नाना प्रकारके पाण्डु आदि रोग उत्पन्न हो जायेंगे। दाँतों का निकलना यह सूचित कर देता है कि बालकका भोजन अब दूध नहीं, अपितु उसे दाँत से खाने योग्य अन्न देना चाहिये।
अथर्ववेद कहता है कि हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों; क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।
शिवौ ते स्तां एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः ॥
व्रीहियवावबलासावदोमधौ ।
(अथर्व० ८।२।१८)
इस मन्त्र को बोलकर घर के दादा-दादी, माता-पिता आदि सोने की मोहर से या चाँदी के सिक्के से या चाँदी-सोने की चम्मचों अथवा शलाकाओं से बालक को खीर आदि अन्न चटाते हैं। सोना-चाँदी रसायन होनेसे जीवनशक्ति बढ़ाते हैं। प्रारम्भ में अन्न खिलाने का ही विधान करके यह सूचित कर दिया गया है कि अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है।