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गर्भाधान संस्कार

Garbhaadhaan Sanskar

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आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

गर्भाधान संस्कार Garbhaadhaan Sanskar

'गर्भाधान' संस्कार से माता पिता के रक्त शुक्र संबंधित दोषों को दूर कियाजाता है। शरीर का आरम्भ गर्भाधान के पवित्र और श्रेष्ठ संस्कार से शुरू होता है।

हमारे ऋषियों ने कहा है कि श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति हेतु गर्भाधान संस्कार किया जाता है जिसमें कम से कम 16 वर्ष की कन्या और 25 वर्ष का पुरुष की सहभागिता हो। बिना सोलहवें वर्ष के गर्भाशय में बालक के शरीर को यथावत् बढ़ने के लिये अवकाश और गर्भ के धारण-पोषण का सामर्थ्य कभी नहीं होता और 25 पच्चीस वर्ष के बिना पुरुष का वीर्य भी उत्तम नहीं होता। कन्या में संतान उत्पत्ति का सबसे उचित समय 24 वर्ष है और माध्यम समय 20 वर्ष की आयु होती है। पुरुष में संतान उत्पत्ति का उत्तम समय 25 से 40 वर्ष है।

गर्भाधान संस्कार विवाह के उपरांत किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में हीं होना चाहिए क्योंकि गर्भाधान संस्कार में सिर्फ श्रेष्ठ मुहूर्त हीं नहीं देखा जाता बल्कि कन्या और पुरुष के मन और तन दोनों के संस्कार होते हैं जो गर्भधारण से कम से कम तीन महीने पूर्व शुरू होते हैं। गर्भाधान संस्कार की शुरुआत विधिवत पूजा अनुष्ठान से शुरू कर ईश्वर की कृपा इस कार्य हेतु प्राप्त की जाती है।

गर्भाधान संस्कार :-

गोभिल गृह्य सूत्र नामक ग्रंथ के अनुसार विवाह होने के पश्चात् तीन रात्रि तक पति-पत्नी ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें। तीनों दिन तक पति-पत्नी हविष्यान्न व्रतपूर्वक संयम करें। अन्य ग्रंथों कुछ आचार्यों का कहना है कि पति के घर में पत्नी के आने पर जब तक वह रजस्वला नहीं हो जाती, तब तक ब्रह्मचर्य पूवर्क रजोधर्म की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

गर्भाधान मुहूर्त :-

निर्णय सिन्धु ग्रन्थ के अनुसार गर्भाधान मलमास गुरु तथा शुक्र के अस्त में भी हो सकता है। चतुर्थी-षष्ठी-अष्टमी पूर्णिमा-अमावास्या-दोनों पक्ष की चतुर्दशी को गर्भाधान में त्यागना चाहिये। सोमवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा बुधवार के दिन गर्भाधान में श्रेष्ठ है। श्रवण, रोहिणी, हस्त, अनुराधा, स्वाती, रेवती, तीनों उत्तरा, शतभिषा गर्भाधान में श्रेष्ठ है। पुष्य-धनिष्ठा-मृगशिर अश्विनी चित्रा और पुनर्वसु ये मध्यम नक्षत्र हैं। अन्य नक्षत्र नेष्ट (अग्राह्य) हैं।

गर्भाधान विधि -

एक कन्या के रजोदर्शन दिन से लेके 16 सोलहवें दिन तक ऋतुसमय है। उनमें से प्रथम की चार रात्रि अर्थात् जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से लेके चार दिन प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रात्रि में पुरुष स्त्री का स्पर्श और स्त्री पुरुष का सम्बन्ध कभी न करे। निर्णय सिन्धु के अनुसार यद्यपि चतुर्थ दिन स्त्री शुद्ध होती है। पर देवकर्म और पितृकर्म के लिए पांचवें दिन शुद्ध होती है। चतुर्थ दिवस में, विशेष परिस्थिति में गर्भाधान के योग्य होती है।

पुरुष के लिए कहा गया है कि वह हमेशा ऋतुकाल में स्त्री का समागम करे, और जब ऋतुदान देना हो, तब ऋतुदान के 16 सोलह दिनों में पौर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी वा अष्टमी पड़ें उस में स्त्री-पुरुष रतिक्रिया कभी न करें। ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि भी रतिक्रिया कभी न करें।

जिन को पुत्र की इच्छा हो, वे छठी आठवीं दशवीं बारहवीं चौदहवीं और सोलहवीं ये छः रात्रि रतिक्रिया करें। श्रेष्ठ संतान हेतु सोलहवाँ दिन सबसे श्रेष्ठ फिर चौदहवीं, बारहवीं , दशवीं आदि है।

जिनको कन्या की इच्छा हो वे पांचवीं सातवीं नववीं और पन्द्रहवीं ये चार रात्रि में रतिक्रिया करें।

पुरुष के अधिक वीर्य होने से पुत्र और स्त्री के आर्त्तव अधिक होने से कन्या, बराबर होने से नपुंसक पुरुष वा बन्ध्या स्त्री, क्षीण और अल्पवीर्य से गर्भ का न रहना वा रहकर गिर जाता है ।

निर्णय सिन्धु एवं व्यास स्मृति के अनुसार जिस समय गर्भाधान करना हो तो ऋतुमयी स्त्री के रजस्वला होने के पश्चात् चौथी रात्रि में गर्भाधान करने से पुत्र होता है किन्तु वह अल्पायु या निर्धन होता है। पांचवीं रात्रि में गर्भाधान करने से बहुत कन्या को जन्म देने वाली कन्या होती है। छटवीं रात्रि में गर्भाधान से मध्यम कोटिवाला पुत्र, सातवीं रात्रि के गर्भाधान से सन्तान हीन कन्या, आठवीं रात्रि में गर्भाधान से सुन्दर पुत्र, नवमीं रात्रि में गर्भाधान से ऐश्वर्य शालिनी कन्या, दशवीं रात्रि में उत्तम पुत्र, ग्यारहवीं रात्रि में धर्महीन कन्या, बारहवीं रात्रि में उत्तम पुत्र, तेरहवीं रात्रि में पापिनी कन्या, चौदहवीं रात्रि में धर्मज्ञ- कृतज्ञ-आत्मज्ञानी और दृढ़व्रती पुत्र होता है।

निर्णय सिंधु एवं हेमाद्रि निर्णय के अनुसार यदि एकादश स्थान में चंद्रमा हो तो अति श्रेष्ठ लक्षण वाला पुत्र उत्पन्न होता है। बुद्धिमान व्यक्ति को एक रात्रि में एक बार ही मैथुन करना चाहिये। दिन में दोनों सन्ध्याओं में सायंकाल तथा ब्रह्म मुहूर्त में, श्राद्ध के दिन-ग्रहण में संक्रान्ति में, रात्रि के प्रथम प्रहर में गर्भाधान कभी न करें। उपद्रवी चरित्रहीन सन्तान होगी।

धर्म सिन्धु के अनुसार गर्भाधान में चन्द्रबल - लग्न में चन्द्र, अन्न-धन का नाश, द्वितीय में सुख, तृतीय चंद्र रोग, चतुर्थ में कार्य हानि, पांचवें स्थान में चंद्र लक्ष्मी, छटवें में स्त्री, सातवें में मृत्यु, आठवें में राज भय, नवम में सुख, दशवें में राज्य, ग्यारहवें में आय, बारहवें में अनावश्यक व्यय होता है।

लघु आश्वलायन स्मृति गर्भाधान जिस दिन गर्भाधान मुहूर्त है उस दिन प्रातः नित्य कर्म से निवृत्त होकर निम्न मंत्र से संकल्प करें -
ममास्यां भार्यायां संस्कारातिशय द्वारा अस्यां जनिस्य माण सर्वगर्भाणां बीज गर्भ
समुद्भवैनो निर्वर्हण द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं गर्भाधानाख्यं कर्म करिष्ये।

फिर स्वस्ति वाचन समुद्भवणेश-गोरी, पुण्याहवाचन-मातृकापूजन नांदीश्राद्ध विष्णु को 6, आहुति, प्रजापति को 1 आहुति घृत से देवे। अश्वगंध के रस को पत्नी के दक्षिण नासिका छिद्र में 'उदीर्ष्यात' मंत्र के द्वारा डाले। पूर्व मुख बैठी हुई पत्नी का सिर हाथ से छुए और 'अपनश्च' और 'बधेन च' इन दो सूक्तों को जपे 'अनिस्तु' और 'विश्रवस्तम्' और 'सूर्यो नो दिव' इत्यादि पाँच मंत्रों से सूर्य की स्तुति करें। इसके पश्चात् स्विष्टकृत होम करके पुरुष स्त्री की गोद में बिजोरा-नींबू- नारियल-केला-खजूर-सुपारी-नारंगी आदि फल देवे। ब्राह्मणों को दक्षिणा तथा भोजन करावे। अपने बंधु-बांधवों के साथ स्निग्ध भोजन करें।

गर्भाधानकर्ता गर्भाधान के पूर्व इष्टदेवता-कुलदेवता का स्मरण कर तीन बार योनि का स्पर्श इस मंत्र से करे-

ऊँ विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रुपाणि पिंशतु ।
आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु में।
गर्भ धेहि सिनीवाली गर्भ धेहि सरस्वति ।
गर्भ ते अश्विनौ देवावा धत्ता पुस्करस्रजा।
हिरण्ययी अरिणीं यं निर्मन्थतो अश्विना ।
तं ते गर्भ हवामहे दशमे मासि सूनवे ॥


तब रात्रि में गर्भाधान कर्म करे।

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