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वानप्रस्थ संस्कार

Vanaprastha Sanskar

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आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

वानप्रस्थ संस्कार -

वानप्रस्थ संस्कार तब किया जाता है जब व्यक्ति की आयु 50 वर्ष के आसपास हो और उसके संतानें भी वंश के साथ आगे बढ़ने के योग्य हो जाएं और परिवार चलाने में सक्षम हो जाए। तब व्यक्ति अपनी गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारियों को धीरे-धीरे अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अपने को सामाजिक और पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह लगाने के लिए सामान्यत: गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। यह जीवन का तीसरे चरण है। यह संस्कार आत्म-ज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति जंगल, वन, या प्रकृति के निकट निवास करता है। यदि पत्नी साथ न चले तो उसे ज्येष्ठ पुत्र को सौंप दिया जाता है और उसे उसकी देखभाल करने के लिए कहा जाता है। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद व्यक्ति साधना, स्वाध्याय, और सेवा के ज़रिए जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है।

वानप्रस्थ संस्कार विधि -

वानप्रस्थी इस संस्कार हेतु पीला वस्त्र धारण करता है। यज्ञोपवीत, पंचगव्य पान कराने के लिए छोटे पात्र जैसे- छोटी कटोरियाँ, मेखला-कोपीन (कमर बंद सहित लंगोटी), पीले दुपट्टे और धर्म-दंड (हाथ में लेने योग्य गोल दंड) आदि रखता है। साथ हीं एक पात्र में पंचगव्य, पीले कपड़े में लपेटकर वेद पुस्तक या कोई पवित्र पुस्तक, ऋषि पूजन के लिए सात कुशाओं को एक साथ बांध कर रखता है। पूजन के लिए कलावा लपेटा हुआ नारियल यज्ञपुरुष रखें। पांच से लेकर पच्चीस स्वच्छ लोटे अभिषेक के लिए कन्याओं या सम्माननीय साधकों के साथ तैयार रखा जाता है। पीले वस्त्र पहनकर वानप्रस्थ संस्कार के लिए आने वाले व्यक्तियों के प्रवेश पर और आसान ग्रहण करते वक्त मंगलाचरण के साथ और पुष्प, अक्षत वृष्टि की जाती है। संस्कार ग्रहण करने वाले व्यक्ति जब आसान ग्रहण कर लेता है तो उन्हें संस्कार का महत्व और उत्तर-दायित्वों के बारे में बताया जाता है।

वानप्रस्थ संस्कार कर्मकाण्ड -

वानप्रस्थ संस्कार हेतु संकल्प -

मंत्र- "ॐ तत्सदद्य श्रीमद् भवगतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवत्तर्मानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे भूलोर्के जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आयार्वत्तैर्क – देशान्तगर्ते ……… क्षेत्रे……… मासानां मासोत्तमेमासे……… पक्षे……… तिथौ……… वासरे……… गोत्रोत्पन्नः……… नामाऽहं स्वजीवनं व्यक्तिगतं न मत्वा सम्पूर्ण- समाजस्य एतत् इति ज्ञात्वा, संयम-स्वाध्याय-उपासनेषु विशेषतश्च लोकसेवायां निरन्तरं मनसा वाचा कमर्णा च संलग्नो भविष्यामि इति संकल्पं अहं करिष्ये।"

यज्ञोपवीत परिवर्तन -

वानप्रस्थ संस्कार के द्वारा व्यक्ति नए जीवन की तरफ पहला कदम उठाता है। पहला कदम पवित्रता, त्याग और तेजस्विता के प्रतीक व्रत-बंधन यज्ञोपवीत की स्वछता और नवीनता के साथ किया जाता है। यज्ञोपवीत का सिंचन और पूजन करने के बाद और पांच देव शक्तियों के आवाहन के उपरांत पुराने यज्ञोपवीत को उतार कर नए को धारण कर लिया जाता है। इस दौरान भी मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।

यज्ञोपवीत सिंचन -

ज्ञोपवीत पर जल छिड़कें, प्रणाम करें और निम्न मंत्र का उच्चारण करें -

ॐ प्रजापतेयर्त्सहजं पवित्रं, कापार्ससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्॥
ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं, जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्र॥"

यज्ञोपवीत में पंचदेवों का आवाहन -

अब निम्न मन्त्रों से पंचदेवों का आवाहन करें -

ब्रह्मा–

ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्याऽउपमाऽ अस्यविष्ठाः, सतश्चयोनिमसतश्च विवः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१३.३

विष्णु –

ॐ इदं विष्णुविर्चक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५

शिव –

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽ, उतो तऽइषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१६.१

यज्ञपुरुष –

यज्ञोपवीत को खोल दें। दोनों हाथों की कनिष्ठ और अँगूठे से फँसा कर यज्ञोपवीत को सीने की सीध में करें, इसके बाद फिर यज्ञ भगवान का आवाहन मन्त्र बोलते हुए यज्ञ पुरुष पूजा करें।

"ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धमार्णि प्रथमान्यासन्। तेह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूवेर् साध्याः सन्ति देवाः॥ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥" -३१.१६

सूर्य –

दोनों हाथों को ऊपर उठाकर भगवान सूर्य का आवाहन करें और नीचे दिए गए मंत्र उच्चारित करें।

"ॐ आकृष्णेन रजसा वत्तर्मानो, निवेशयन्नमृतं मत्यर्ं च। हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ॐ सूयार्य नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।" -३३.४३

यज्ञोपवीतधारण -

इसके बाद निम्नलिखित मंत्र के जाप के साथ यज्ञोपवीत धारण करें।

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥…..पार०गृ०सू० २.२.११

जीर्णोपवीत विसर्जन -

नवीन यज्ञोपवीत धारण करने के बाद पुराने यज्ञोपवीत को निम्न मंत्र द्वारा विसर्जित करें -

ॐ एतावद्दिन पयर्न्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीणर्त्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथासुखम्॥

पंचगव्यपान -
पिछले जीवन में हुई भूल चूकों के प्रायश्चित के लिए पंचगव्य का पान करवाया जाता है। इस दौरान संस्कार ग्रहण करने वाला एक पंचगव्य से भरा हुआ पात्र अपने बाएँ हाथ में लेकर और दाहिने हाथ की मध्यम अंगुली से मंत्रोच्चार के साथ इस भावना के साथ कि इन गौ द्रव्यों को हम अपनी दिव्य चेतना से अभिमंत्रित कर रहे हैं, उस पंचगव्य को घोलता है।

ॐ यत्त्वगस्थिगतंपापं, देहे तिष्ठति मामके।
प्राशनात्पंचगव्यस्य, दहत्वग्निरिवेन्धनम्॥

इसके उपरांत पंचगव्य के पात्र को दाहिने हाथ में लेकर मंत्रों के उच्चारण के साथ उसका पान करता है। साथ ही यह भावना करता है कि दिव्य संस्कारों से पाप की जड़ समाप्त हो रही है और पुण्य के जन्म का क्रम शुरू हो रहा है। साथ ही मन में यह भाव भी रखें कि आप पुण्य कर्मों को श्रद्धा पूर्वक चलाते रहेंगे और साथ ही समाज का भला भी करेंगे।

मंत्र- 

ॐ यत्त्वगस्थिगतंपापं, देहे तिष्ठति मामके।
प्राशनात्पंचगव्यस्य, दहत्वग्निरिवेन्धनम्॥

मेखला-कोपीन धारण -
ऊपर दिए गए कर्मकाण्डों के उपरांत वानप्रस्थ लेने वालों के हाथों में मेखला-कोपीन और धर्मदण्ड का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। कोपीन धारण करने का अर्थ होता है कि वानप्रस्थ अब इंद्रिय संयम बरतेगा। सांसारिक मोह-माया से अब वो दूर हो जाएगा। कमर में रस्सी को बांधा जाना कोपीन धारण के लिए तो ज़रूरी है ही साथ ही इसके द्वारा यह संदेश भी दिया जाता है कि अब वानप्रस्थ धारण करने वाला व्यक्ति समाज सेवा के लिए कमर कसेगा। वानप्रस्थ धारण करने वाला आलस्य से दूर रहने, शारीरिक और मानसिक स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए भी कमर कसता है।

क्रिया- मेखला-कोपीन को हाथों के सम्पुट में लेकर मंत्रों के उच्चारण के साथ यह भावना की जानी चाहिए कि अब हम संयम, समर्पण और सक्रियता का वरन करेंगे। जब मंत्र पूरा हो जाए तो उसके बाद मेखला कोपीन को कमर पर बांध देना चाहिए।

मंत्र- 

ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमानां, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात्।
प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसा देवी सुभगा मेखललेयम्॥"…..पार० गृ०सू० २.२.८

धर्मदण्डधारण -
वानप्रस्थ संस्कार ग्रहण करने वाले को हाथ में लाठी दी जाती है जिसे दण्ड कहा जाता है। जो वानप्रस्थी वन्य प्रदेशों में विचरण करते हैं उनके लिए यह लाठी काफी उपयोगी भी साबित होती है। इसकी सहायता से मार्ग में आने वाली परेशानियों से वानप्रस्थी निकल सकता है। इसके अलावा धर्मदण्ड का महत्व यह भी है कि जिस प्रकार राज्याभिषेक के दौरान राजा को प्रतीक स्वरूप राज-दण्ड के रूप में एक छोटा लकड़ी का डंडा हाथ में विधिवत रूप से दिया जाता है ताकि वो अपनी प्रजा को न्याय दिला सके उसी प्रकार वानप्रस्थी को भी धर्मदण्ड दिया जाता है जिससे वो संसार में धर्म की व्यवस्था को कायम कर सके और इसके साथ ही अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति भी जागरूक रहे।

क्रिया- दोनों हाथों से इस धर्मदण्ड को पकड़े। भूमि के समानांतर हृदय की सीध में इसे स्थिर रखें। साथ ही मंत्र का उच्चारण करें और जब मंत्र समाप्त हो जाए तो दण्ड को मस्तक से लगाएँ और अपनी बायीं ओर इसे रख लें।

भावना- अपने मन में यह भाव रखें कि आप धर्म स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हो रहे हैं और अपने उत्तरदायित्व को पूरी तरह से स्वीकार कर रहे हैं और दिव्य शक्तियां आपको ऐसा करने की प्रेरणा दे रही हैं।

मंत्र- "

ॐ यो मे दण्डः परापतद्, वैहायसोऽधिभूम्याम्।
तमहं पुनराददऽआयुषे, ब्रह्मणे ब्रह्मवचर्साय॥"…..पार०गृ०सू० २.२.१२

पीतवस्त्रधारण -

अब वानप्रस्थी वीरता का और त्याग का प्रतीक पीले रंग के दुपट्टे को पूरी श्रद्धा और दायित्व के साथ अपने दोनों हाथों में लें। अब निम्न मंत्र बोलते हुए दुप्पटे को अपने कन्धों पर धारण कर लें।

ॐ सूर्यो मे चक्षुवार्तः, प्राणो३न्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम्।
अस्तृतो नामाहमयमस्मि स, आत्मानं नि दधे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय॥…. अथवर्० ५.९.७

ऋषिपूजन -
अब इसके बाद ऋषिपूजन करें। ऋषिपूजन के द्वारा वानप्रस्थी उन तेजस्वी महात्माओं को याद करते हैं जिन्होंने समाज में सुधार किये और मानवीय मूल्यों को बचाए रखे जिन्हें हम परंपरा के रूप में पाए। पूजन हेतु अपने हाथों में पुष्प, अक्षत लेकर ऋषियों का ध्यान मंत्रोच्चारण के साथ करें -

ॐ इमावेव गोतमभरद्वाजा, वयमेव गोतमोऽयं भरद्वाजऽ,
इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी, अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निः,
इमावेव वसिष्ठकश्यपौ, अयमेव वस्ष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिवार्चाह्यन्नमद्यतेऽत्तिहर् वै,
नामैतद्यत्रिरिति सवर्स्यात्ता भवति, सवर्मस्यान्नं भवति य एवं वेद॥ -बृह० उ० २.२.४

ॐ सप्तऋषीनभ्यावतेर्।
ते मे द्रविणं यच्छन्तु, ते मे ब्राह्मणवचर्सम्।
ॐ ऋषिभ्यो नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -अथवर्० १०.५.३९

वेद पूजन -
अब निम्न मंत्रों से वेद पूजन करें -

ॐ वेदोऽसि येन त्वं देव वेद, देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः।
देवा गातुविदो गातुं, वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पतऽ इमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः।
ॐ वेदपुरुषाय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -२.२१

यज्ञपुरुष पूजन -

अब अपने भीतर देवत्व और धर्म के मुख्य कारक को अंगीकार करते हुए उसे पुष्ट करने हेतु निम्न मंत्र का उच्चारण करें -

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धमार्णि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूवेर् साध्याः सन्ति देवाः।
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि।

व्रत धारण -

वानप्रस्थ संस्कार ग्रहण करते हुए दैविये शक्तियों को साक्षी मानकर व्रत लेते हैं -

अग्निदेव का मंत्र -

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ अग्नये नमः॥१॥

वायुदेव का मंत्र -

ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ वायवे नमः॥२॥

सूर्यदेव का मंत्र -

ॐ सूयर् व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ सूयार्य नमः॥३॥

चंद्रदेव का मंत्र -

ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ चन्द्राय नमः॥४॥

इंद्रदेव का मंत्र -

ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ इन्द्राय नमः॥५॥

वानप्रस्थी का अभिषेक -

अब मंत्रोच्चारण के साथ कन्याओं या संस्कारवान व्यक्तियों द्वारा वानप्रस्थी का अभिषेक निम्न मंत्रों से करें -

ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः ता न ऽऊजेर् दधातन।
महे रणाय चक्षसे।
ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः।
उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा अरंगमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः।

विशेष आहुति -
अभिषेक किये जाने के बाद अग्नि स्थापना कर विधि पूर्वक यज्ञ होता है। स्विष्टकृत के पहले सात विशेष आहुतियां ज़रूर दी जानी चाहिए। इसके साथ ही वानप्रस्थी मन में यह भाव रखें कि देवगण एक विशाल यज्ञ चला रहे हैं और उस यज्ञ में समिधा, दिव्य बनकर हम भी उपस्थित हैं। देवगणों के संपर्क में हमारा जीवन भी धन्य होगा और जीवन को सही लक्ष्य प्राप्त होगा। निम्न मंत्र का उच्चारण करें -

ॐ ब्रह्म होता ब्रह्म यज्ञा, ब्रह्मणा स्वरवो मिताः।
अध्वयुर्ब्रर्ह्मणो जातो, ब्रह्मणोऽन्तहिर्तं हविः स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम।"….अथवर्० १९.४२.१

प्रव्रज्या -

अब वानप्रस्थी व्यक्ति यज्ञ वेदी की चार परिक्रमाएं चरैवेति मंत्रों के साथ करें -

ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा। चरैवेति चरैवेति॥

पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः। चरैवेति चरैवेति॥

आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः। चरैवेति चरैवेति॥

कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन्। चरैवेति चरैवेति॥

चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम्।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्। चरैवेति चरैवेति॥

इसके बाद यज्ञ समापन पूर्णाहुति आदि कार्य किये जाते हैं।
इस प्रकार वानप्रस्थ संस्कार पूर्ण हुआ॥

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