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पुंसवन संस्कार

Punsavan Sanskar

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Punsavan-Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

पुंसवन संस्कार

पुंसवन संस्कार से जहां तक संभव हो पुरुष संतान ही हो इसका यत्न और कन्या संतान के उत्पादन करने वाले दोष का मार्जन किया जाता है।

गर्भाधान के पश्चात् तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार करना चाहिये। पुंसवन संस्कार से पुत्र की प्राप्ति हो, इसका विधान किया जाता है। इसी माह में अंग प्रत्यंगों का निश्चय होता है यानी भ्रूण का लिंग तय होता है।

आश्वलायन स्मृति के गर्भ प्रकरण में बताया गया है कि पुंसवन संस्कार पुरुष नक्षत्रों -पुष्य, पुनर्वसु, अश्विनी, हस्त, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिर, श्रवण रेवती और अनुराधा में किया जाता है। रिक्ता तिथियों ( 4-14-9 ) को ग्रहण न करे।

निर्णय सिंधु इस संस्कार में पति पत्नी का चंद्रबल भी देखेने को कहता है। ज्योतिर्निबन्ध में वसिष्ठ ने कहा है शानिवार को पुंसवन से मृत्यु, सोमवार को तन हानि, बुधवार को पुंसवन करने से सन्तान की मृत्यु, शुक्रवार को पुंसवन करने से काकबन्ध्या (एक सन्तान वासी बन्ध्या) होती है। रविवार-मंगलवार-गुरुवार को पुंसवन करने में स्त्री को पुत्र लाभ होता है। यही मत निर्णय सिंधु का भी है।

पुंसवन संस्कार विधि -

पुंसवन संस्कार संकल्प -

अस्याः मम भार्यायाः उत्पत्स्यमान गर्भस्य बैजिक गार्भिक दोष परिहारार्थ श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थ पुंसवन करिष्ये।

अब गणपति-मातृका-कलश पुण्याहवाचन- नांदी श्राद्ध करे। फिर उत्तराग्र कुशा वाली आसन पर तृतीय मास गर्भवती वधू को बिठावे। पति भी उसको गोद में लेकर बैठे अथवा पीछे बैठे। पति अपने दाहिने हाथ से वधू के दाहिने कंधे के ऊपर से हाथ ले जाकर वधू की नाभि को अच्छे प्रकार से स्पर्श करे।

तब प्रार्थना करे कि मेरी स्त्री के गर्भ में मांस-रुधिर भक्षिका अलक्ष्मी रूपी राक्षासी तथा उसके गणों का दूर कीजिये। कल्याण और संपूर्ण सौभाग्य देने वाली महालक्ष्मी वे इसमें प्रवेश करें। फिर पवमान अग्नि की स्थापना करके प्रजापति को चरु को आहुति देवे।

नीचे लिखे हुए दोनों मन्त्रों से दो आहुति घृत की दें -

ओम् आ ते गर्भो योनिमेतु पुमान् बाण इवेषुधिम् ।
आ वीरो जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः स्वाहा ॥ १॥

ओम् अग्निरैतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्यु- पाशात् ।
तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमधं न रोदात् स्वाहा ॥२॥

इन दोनों मन्त्रों को बोलके दो आहुति किये पश्चात् एकान्त में पत्नी के हृदय पर हाथ धरके यह निम्नलिखित मन्त्र पति बोले-

ओं यत्ते सुसीमे हृदये हितवन्तः प्रजापतौ ।
मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं माहं पौत्रमचं नियाम् ॥ २॥


ईशान कोण में जो वटवृक्ष हो उस वृक्ष के स्वामी को कुछ मूल्य देकर फिर उस वृक्ष से एक डाली का अग्र भाग जिसमें नुकीला शुंग होता है वह तोड़े। परंतु उसके दोनों ओर फल होना चाहिये। उसका निरीक्षण करे कि उसमें कीड़े न हों, सूखा न होवे स्वस्थ हो। फिर शुंग (वटवृक्ष के अग्रभाग) से प्रार्थना करें -

'हे शुंगे त्वं यदि 'सौमी' सोम देवतायाः प्रिया असि तर्हि सोमाया राज्ञे सोमराज प्रीत्यर्थ मेव 'त्वां' परिक्रीणामि। त्वं यदि वारुणी वरुणदेवतायाः प्रिया असि तर्हि तस्मै वरुणाय राज्ञे एव त्वां परिक्रीणामिशात्वं यदि वसुभ्यः वस्वष्ट कानां प्रीत्यर्थ-मेवोत्पन्ना 'असि' तर्हि 'वसुभ्यः' एवं त्वां परिक्रीणामि । ३ ।' त्वं यदि रुद्रेभ्यः रुद्राणामेकादशानां प्रीत्यर्थ मेवोत्पन्ना असि तर्हि रुद्रेभ्यः एव त्वां परिक्रीणामि । ४। त्वं यदि आदित्येभ्यः द्वादशादित्यानां प्रीत्यर्थ मेवोत्पन्ना असि तर्हि आदित्येभ्यः एव त्वा परिक्रीणामि । ५ । त्वं यदि मरुदभ्यः एकोनपंचाशतां मरुतां प्रीत्यर्थ मेवोत्पन्ना असि तर्हि मरुदभ्यः एव त्वां परिक्रीणामि ।६। यदि विश्वेभ्यो देवेभ्यः सर्व देव प्रीत्यर्थमेवोत्पन्ना असि तर्हि विश्वेभ्यो देवेभ्यः एवत्वा परिक्रीणामि । ७। (गोभिल सूत्र २/६/५-१०)

उस शुंग को वृक्ष से उखाड़ या तोड़ कर प्रार्थना करे हे औषधि गण। तुम सब प्रसन्न होकर इस वधू में वीर्य साधन करो। जिससे यह कष्टरहित प्रसव करे। इस वट शुंग की तृण से ढंककर रक्षा करे। फिर पत्थर की शिला को अति स्वच्छ करे किसी ब्रह्मचारी से या पतिव्रता या ब्राह्मण कुमारी से उसे शिला पर पिसवावे। शीघ्रता से पीस के लाकर कुशासन पर पूर्व की ओर सिर करके लेटी हुई वधू के दाहिने नाक में वह पिसा हुआ रस डाले या सुंघा देवे। तत्पश्चात् -
हिरण्यगर्भः सर्मवर्तताये॑ भूतस्य॑ जातः पतिरेक॑ऽ आसीत् ।
स दोधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै दे॒वाय॑ ह॒विर्षा विधेम ॥१॥
तस॒ त्वष्टवा॑ वि॒दध॑द्रूपमे॑ति॒ तन्मर्त्यस्य देव॒न्यमानान॒मये॑ ॥२॥।

इन दो मन्त्रों को बोलके पति अपनी भिणी पत्नी के गर्भाशय पर हाथ धरके यह मन्त्र बोले-
सुप॒र्गोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते॒ शिरों गाय॒त्रं चक्षुर्वृहद्रथन्त॒रे प॒क्षौ ।
स्तोम॑ऽ आत्मा छन्दुार्थस्यङ्गानि यज॑प॒ नाम॑ ।
साम॑ ते त॒नूर्वी व्यं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं पुच्छ्रे धिष्ण्यया॑ः शुफाः ।
सुपर्णोऽसि गुरुमान् दिवं गच्छ स्वः पत ।।

इसके पश्चात् स्त्री सुनियम युक्ताहार-विहार करे। विशेषकर गिलोय, ब्राह्मी ओषधि और सुंठी को दूध के साथ थोड़ी-थोड़ी खाया करे । और अधिक शयन और अधिक भाषण, अधिक खारा खट्टा तीखा कड़वा रेचक हरड़ें आदि न खावे, सूक्ष्म आहार करे। क्रोध द्वेष लोभादि दोषों में न फंसे। चित्त को सदा प्रसन्न रखे, इत्यादि शुभाचरण करे ।।

इस प्रकार पुंसवन कर्म करें। पीछे देव विसर्जन करे। यदि पुंसवन काल में पति की उपस्थिति किसी कारण से न हो तो ऐसी परिस्थिति में पुरोहित या देवर के द्वारा यह कर्म करें या वंश कुटुम्ब का कोई अन्य व्यक्ति इस कर्म को संपन्न करे। पुंसवन पश्चात् सुयोग्य ब्राह्मणों करावें।

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