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निष्क्रमण संस्कार

Nishkraman Sanskar

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Nishkraman-Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

निष्क्रमण संस्कार

निष्क्रमण संस्कारके सम्बन्ध में आचार्य पारस्करजी ने चौथे मास में इसे करने का विधान दिया है 'चतुर्थे मासि निष्क्रमणिका ।'

किंतु व्यवहारकी सुविधाके लिये शिष्टजन प्रायः नामकरण-संस्कारके अनन्तर ही अपकृष्ट करके इस कर्मको भी सम्पन्न कर लेते हैं-'द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्' (भविष्योत्तरपुराण) ।

निष्क्रमण-संस्कार बालक के जन्म के बाद चौथे मास में करना चाहिये,
इस संस्कार में मुख्य रूप से शिशु को सूतिकागृह से बाहर लाकर सूर्यका दर्शन कराया जाता है- 'अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथम-निर्गमः' (बृहस्पति)।

इसका तात्पर्य यह है कि निष्क्रमणकर्म के पूर्व शिशुको घर के अन्दर ही रखना चाहिये। इसमें कारण यह है कि अभी शिशु की आँखें कोमलतावश कच्ची रहती हैं, यदि शिशु को शीघ्र ही सूर्यके तीव्र प्रकाश में लाया जायगा तो उसकी आँखों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, भविष्य में उसकी आँखोंकी शक्ति या तो मन्द रहेगी या उसका शीघ्र ही ह्रास होगा। इस कारण भारतीय नारियाँ बच्चे को शीशा भी नहीं देखने देतीं; क्योंकि शीशे की चमक भी कच्ची आँखों को चौंधिया देती हैं, सूतिकागृह में तेज रोशनी भी इसी कारण नहीं रखी जाती। धीरे-धीरे शिशुमें शक्तिसंचय हो जानेसे क्रम-क्रमसे घर के दीपक की ज्योति देखने में अभ्यस्त होकर तब उसकी आँखें बाह्य प्रकाश में गमन के योग्य होती हैं। यद्यपि बिना संस्कार के भी यह लाभ उसे प्राप्त होना सम्भव है, किंतु मन्त्रों के साथ होनेपर इनका प्रभाव अमोघ और दीर्घकालीन होता है तथा शास्त्रकी मर्यादाका भी रक्षण होता है। अतः संस्कार विहित विधिके अनुसार ही करना चाहिये।


इस कर्ममें दिग्देवताओं, दिशाओं, चन्द्र, सूर्य, वासुदेव तथा गगन (आकाश) - इन देवताओंका किसी जलपूर्ण पात्रमें आवाहन करके उनके नाम-मन्त्रों से पूजन होता है और पूजन के अनन्तर उनकी प्रार्थना की जाती है।

तदनन्तर शंख-घण्टानादपूर्वक शान्तिपाठ करते हुए बालकको लेकर घरसे बाहर आँगनमें, जहाँसे सूर्यदर्शन हो सके, ऐसे स्थानमें आकर किसी ताम्रपात्र में सूर्य की स्थापना-प्रतिष्ठा कर उनका पूजन करना चाहिये और सूर्यार्घ्य प्रदान कर 'ॐ तच्च्क्षुर्देवहितं०' इस मन्त्रका पाठ करते हुए बालक को सूर्यका दर्शन कराना चाहिये और ब्राह्मणोंको दक्षिणा-भोजन आदि कराकर कर्म सम्पन्न करना चाहिये।

निष्क्रमण-संस्कार के उपांग कर्म -

(क) भूमि-उपवेशन कर्म -

पारस्करगृह्यसूत्र (१।१७।६) के भाष्य में आचार्य गदाधर ने प्रयोगपारिजात का उद्धरण देते हुए बताया है कि जन्मके पाँचवें मास में भूमि-उपवेशन कर्म होता है, जिसमें भूमिपूजन करके पहली बार बालक को भूमि का स्पर्श कराया जाता है। 'पञ्चमे च तथा मासि भूमौ तमुपवेशयेत्।'
उपर्युक्त वचन से भूम्युपवेशन कर्म पाँचवें मास में विहित है, किंतु समाचार से सुविधा की दृष्टि से नामकर्म-संस्कार के दिन निष्क्रमणकर्म करके यह संस्कार कर लेने की परम्परा भी है।

बालक के लिये भूम्युपवेशन-संस्कार का अत्यन्त महत्त्व है। इसे करने से पृथ्वीमाता जीवनपर्यन्त उसकी रक्षा करती हैं और मृत्युके अनन्तर भी अपनी गोद में धारण करती हैं। शास्त्रों में मनुष्यों का पृथ्वीमाता की गोद में मरने का विशेष महत्त्व है, इसीलिये मरणासन्न व्यक्ति को भूमिपर लिटा दिया जाता है। मृत्यु के समय पलंग आदि पर मरनेसे सद्गति नहीं होती, ऐसा शास्त्रीय नियम है।

(ख) दोलारोहण - पर्वकारोहण -

शिशु के लिये नया दोला (झूला, पर्यंक, हिंडोला) आदि बनवाया जाता है और प्रथम बार माता की गोद से उस दोला पर बैठाने का मांगलिक कर्म दोलारोहण कहा जाता है। इसे कब करना चाहिये, इसके विषयमें बताया गया है कि नामकरण संस्कारके दिन, सोलहवें दिन अथवा २२वें दिन अथवा किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्तमें कुलदेवता का पूजन करके हरिद्रा, कुमकुम आदि से सुसज्जित डोले में माता, सौभाग्यवती स्त्रियाँ योगशायी भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए मंगल गीत वाद्योंकी ध्वनिके साथ भली प्रकारसे अलंकृत किये शिशुको नवीन वस्त्रसे आच्छादित पर्यंकपर पूर्वकी ओर सिर करके सुलाती हैं और मांगलिक कार्योंको सम्पन्न करती हैं।

(ग) गोदुग्धपान -

अभी तक बालक माता के दूध पर ही आश्रित था, अब उसे विशेष दूध की भी आवश्यकता होने लगती है। अतः जन्मके ३१वें दिन अथवा किसी शुभ दिनमें शुभ मुहूर्तमें कुलदेवताका पूजन करनेके अनन्तर बालककी माता अथवा कोई सौभाग्यशालिनी स्त्री शंखमें गोदुग्ध भरकर धीरे-धीरे बच्चेको प्रथम बार पान कराती है। आयुर्वेदशास्त्रमें गोदुग्ध के गुणों तथा उसकी उपयोगिता को बताते हुए कहा गया है कि गाय का दूध स्वादिष्ट, शीतल, मृदु, स्निग्ध, बहल (गाढ़ा), श्लक्ष्ण, पिच्छिल, गुरु, मन्द और प्रसन्न- इन दस गुणों से युक्त रहता है। यह जीवनीशक्ति प्रदान करनेवाले द्रव्यों में सबसे श्रेष्ठ और रसायन है- 'प्रवरं जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम्' (चरकसंहिता सूत्रस्थान २७। २१८)। माता के दूध के विषयमें बताया गया है कि यह शरीर में जीवनी शक्ति को देनेवाला होता है, बृंहण होता है, जन्मसे ही प्रत्येक मनुष्यके लिये अनुकूल होता है तथा शरीरमें स्निग्धता लाता है-' जीवनं बृंहणं सात्म्यं स्नेहनं मानुषं पयः।' (चरकसंहिता, सूत्रस्थान २७। २२४)

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