नामकरण संस्कार
Naming Sanskar
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आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
नामकरण संस्कार
नामकरण संस्कार - नामकरण संस्कार कब करना चाहिए इस पर भिन्न भिन्न शास्त्रों में अलग अलग मत है परन्तु व्यवहार में जन्म के दशवें या बारहवें दिन नामकरण संस्कार करना ज्यादा प्रचलित है।
मनु स्मृति के अनुसार नामकरण संस्कार जन्म के दशवें या बारहवें दिन करना चाहिये। अथवा किसी श्रेष्ठ नक्षत्रादि में करना चाहिए। पारस्कर ग्रह्य सूत्र में दशवें दिन ही नामकरण करने का विधान बताया गया है। परन्तु याज्ञकल्क्य स्मृति के अनुसार सूतक समाप्ति पर कभी नामकरण संस्कार कर सकते है। मदन रत्न में ब्राह्मण को 10वें, 12वें, 13वें, 16वें दिन क्षत्रिय को, 20वें दिन वैश्य को, शूद्र को 22वें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिये। धर्म सिन्धु के पूर्वार्द्ध परिच्छेद में ब्राह्मणों के लिए जन्म से 12वें, क्षत्रिय को 13वें दिन, वैश्य को16वें या 20वें दिन, शूद्रों के लिए 22वें दिन या मासान्त में नामकरण करना चाहिये। ग्रह्य परिशिष्ट में कहा है कि जन्म के दशरात्रि व्यतीत होने पर सौ रात्रि या संवत्सरान्त पर्यन्त भी नामकरण हो सकता है।
आश्वलायन ग्रह्यसूत्रानुसार बालक के दो अक्षर के नाम से प्रतिष्ठा तथा चार अक्षर से नाम से ब्रह्मवर्चस की वृद्धि होती है।
'द्वयक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामो।' (आश्व. गृह्य.)
कुछ आचार्यों ने नक्षत्र नाम के केवल उपनयन संस्कार तक ही उपयुक्त बताया है। जिसे माता पिता ही जाने अन्य नहीं। व्यवहार नाम ही प्रचलन में होना चाहिये।
नामकरण संस्कार मुहूर्त -
नामकरण संस्कार स्थिर लग्न में होनी चाहिये। नक्षत्रों में अनुराधा, पुनर्वसु, मघा, तीनों उत्तरा, शतभिषा, स्वाती धनिष्ठा, श्रवण, रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा, रेवती, हस्त और पुष्य नक्षत्र में नामकरण करे।
दिन में बुध-चंद्र-रविवार-गुरुवार अच्छा है। अमावास्या - संक्रांति-भद्रा-ग्रहण-गुरु, शुक्र का अस्त या बाल बृद्धत्व में नामकरण नहीं करना चाहिये। छिद्रतिथि ६-८-१२-१४-९-१५ छोड़कर लग्न से अष्टम की शुद्धि शुक्र-बुध और गुरुवार में मध्यान्ह के पूर्व नामकरण संस्कार करे। नामकरण में मलमास-गुरु, शुक्रास्त, सिंहस्थ गुरु देवशयन-दक्षिणायन का दोष नहीं है।
नामकरण विधि -
बालक तथा माता-पिता पंचगव्य डालकर स्नान कर, नूतन वस्त्र धारण करें। पूर्वमुख बैठकर संकल्प करें-
अस्य शिशोः बीजगर्भ समुद्भवै नो निबर्हणायुरभि बृद्धि द्वारा परमेश्वर प्रीत्यर्थ नामकरणं करिष्ये।
फिर गणपति-गौरी-पुण्याहवाचन मातृ का पूजा-नांदी श्राद्ध करें। तब पत्नी बालक को नूतन वस्त्र में ढाककर लावे। पति की दक्षिण दिशा से बालक को उत्तर की ओर सिर करके पिता को देवे। फिर पिता माता की गोद में बालक को देकर अग्नि के संस्कार पूर्वक प्रजापति आदि व्याहृति होम के पश्चात् एक आहुति प्रजापति को दूसरी जिस तिथि में जन्म हुआ उसको, तृतीयाहुति जन्म नक्षत्र को देवे। पिता अपने हाथ धोवे फिर उन हाथों में मक्खन लगाकर अग्नि में तपाऐ और निम्न मंत्र पढ़कर ब्राह्मण से आज्ञा लेकर बालक का स्पर्श करे।
'ॐ अग्नेष्ट्वावा तेजसा सूर्यस्य वर्चसां विश्वेषां त्वा देवानां क्रतुनाभिमृशयमि।'
उसके बाद बालक के मुख तथा नासिका के श्वांस पर हाथ लगावे
पारसकर सूत्र में कहा कि पुत्र नाम समाक्षरों में कन्यानाम विषमाक्षरों में। नाम का अन्तिम अक्षर दीर्घ एवं कृदन्त हो तद्धितान्त न होवे। कन्या का नाम सुकोमल-मनोहारी-मंगलकारी दीर्घवर्णान्त होना चाहिये। यथा-रमा-उमा-यशोदा-मंगला-भद्रा आदि । कन्या का नाम नदी तथा पर्वतों पर न रखें।
यद्यपि देव परक नाम रखने का विधान तो है किन्तु विष्णु हरि-नारायण-राम कृष्णादि न रखे। अपितु हरिदत्त, रामदास, नारायणदत्त, कृष्ण प्रसाद इस प्रकार से इन्द्रदत्त आदि देवताओं के साथ कृपा का संकेत अवश्य रखना चाहिये।
व्यवहार नाम पृथकतः रखने का एक और रहस्य है। यह राशि नाम पर अभिचार तथा तंत्रादि क्रियायें चल जाती है। व्यवहार नाम पर नहीं चलतीं।
दूसरा पिता को पुत्र के राशि नाम उच्चारण से 'ज्येष्ठापत्यकलत्र' का नाम नहीं लेना लिखा है उससे श्री नष्ट होती है। इसलिए व्यवहार नाम, प्रचलित नाम भी होना चाहिये।
नामकरण के पश्चात् दश ब्राह्मणों का भोजन तथा दक्षिणा भी करें।