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अन्त्येष्टि संस्कार

Antiyoshthi Sanskar

सनातन संस्कार -

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Antiyoshthi-sanskaar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

अन्त्येष्टि संस्कार

जीव की सद्गति के उद्देश्य से मरणासन्न अवस्था में किया जानेवाला दानादि कृत्य तथा मृत्यु के तत्काल बाद का दाहादि कर्म और षपिण्डदान- अन्त्येष्टि संस्कार कहलाता है। अन्त्यका अर्थ है अन्तिम और इष्टिका सामान्य अर्थ है यज्ञ। सामान्य रूपसे मृत्युके अनन्तर किया जानेवाला संस्कार अन्त्येष्टिसंस्कार कहलाता है। इसी को अन्त्यकर्म, औध्वदैहिक संस्कार, पितृमेध तथा पिण्डपितृयज्ञ भी कहा गया है।

अन्त्येष्टि संस्कार मुख्यतः दो रूपों में सम्पन्न होता है। पहला पक्ष मरणासन्न अवस्था का है और दूसरा पक्ष मृत्युके अनन्तर अस्थिसंचयनतक किया जानेवाला कर्म है।

पंचधेनुदान -

शास्त्रों में मरणासन्न व्यक्ति के द्वारा अन्तिम समय में गोदान करने तथा पंचधेनुदान करनेका विशेष महत्त्व है। पाँच गौओं के नाम इस प्रकार हैं-

(1) ऋणापनोदधेनु - देव ऋण, पितृ ऋण तथा मनुष्य-ऋण एवं अन्य ऋणों से उऋण होने के लिये ऋणापनोदधेनु का दान किया जाता है।

(2) पापापनोदधेनु - ज्ञात-अज्ञात पापों से छुटकारा पाने के लिये पापापनोदधेनु का दान किया जाता है।

(3) उत्क्रान्तिधेनु - अन्तिम समय में प्राणोत्सर्ग में अत्यधिक कष्ट की अनुभूति होती है, सुखपूर्वक प्राण निकले, इसके लिये उत्क्रान्तिधेनु का दान होता है।

(4) वैतरणीधेनु - यममार्ग में स्थित घोर वैतरणी नदी को बिना कष्टके पार करने के लिये वैतरणीधेनु का दान दिया जाता है।

(5) मोक्षधेनु - मोक्षप्राप्ति के लिये मोक्षधेनुका दान किया जाता है।

वैतरणी नदी -

गरुडपुराणादि शास्त्रों में वर्णन आया है कि जीव मृत्यु के अनन्तर यातनामय देह प्राप्तकर यमदूतों द्वारा यमलोक में ले जाया जाता है। यमलोक का मार्ग अति भयावह तथा कष्टकर है। पापी जीव बड़े कष्ट से वहाँ जाता है। वह हा पुत्र! हा पौत्र! इस प्रकार पुत्र-पौत्रों को पुकारते हुए, हाय-हाय इस प्रकार विलाप करते हुए पश्चात्ताप की ज्वाला से जलता रहता है। उस समय वह विचार करता है कि महान् पुण्य के सम्बन्ध से मनुष्यजन्म प्राप्त होता है, उसे पाकर मैंने धर्माचरण नहीं किया, दान नहीं दिया, तपस्या नहीं की, भगवान्‌का भजन नहीं किया, उसी का फल आज मुझे मिल रहा है, जीव की आत्मा उससे कहती है- हे जीव ! तुमने जीवन में सत्पुरुषों की सेवा नहीं की, कभी दूसरे का उपकार नहीं किया, गौओं और ब्राह्मणों की सेवा नहीं की, वेदों और शास्त्रों के वचनों को प्रमाण नहीं माना, मनमाना आचरण किया, इसलिये तुमने जो दुष्कर्म किया, उसी का फल अब भोगो। इस प्रकार अत्यन्त दुखी हुए जीव को आगे यममार्ग में घोर वैतरणी नदी मिलती है। वह देखने पर ही अत्यन्त दुःखदायिनी तथा भय उत्पन्न करनेवाली है, वह सौ योजन चौड़ी है। पीब, मवाद तथा मांस एवं रक्त से भरी है। उसके तटपर हड्डियोंका ढेर लगा रहता है, उसमें भयंकर हिंसक जीव-जन्तु रहते हैं। वज्र के समान तीक्ष्ण चोंचवाले बड़े-बड़े गीधों एवं कौओं से वह घिरी रहती है। उसके प्रवाह में गिरे हुए पापी रोते -चिल्लाते रहते हैं, पर उस समय उनकी सहायता करनेवाला कोई नहीं रहता है।

शास्त्रों ने यह विधान किया है कि यदि प्राणी वैतरणी गौ का दान कर लेता है तो वह गौ उसे वहाँ मिलती है और जीव उसकी पूँछ पकड़कर आसानी से भयंकर वैतरणी नदी को पार कर लेता है। वैतरणी गोदान में गोमाता से इसी प्रकार की प्रार्थना की गयी है कि हे गोमाता ! यमद्वारके महापथमें वैतरणी नदीको पार करनेके लिये आप वहाँपर मुझे मिलना, आपको नमस्कार है-
धेनुके मां प्रतीक्षस्व यमद्वारमहापथे। उत्तारणार्थ देवेशि वैतरण्यै नमोऽस्तु ते ॥

वैतरणी धेनु दान विधि -

वैतरणी नदी का निर्माण -
वैतरणी गोदान में वैतरणी नदी बनाकर गौकी पूँछ पकड़कर उसे पार किया जाता है। उसके लिये किसी शुद्ध पवित्र स्थानपर लम्बा गड्डा खोदकर अथवा मिट्टीकी बाड़ बनाकर उसमें पानी भरकर वैतरणी नदीका आकार बनाना चाहिये। इश्क्षुदण्ड (गन्ने) के टुकड़े काटकर एक नाव बनानी चाहिये और उसमें हेममय यज्ञपुरुष, कपास तथा लौहदण्ड रखना चाहिये। नदी पश्चिम से पूर्व की ओर बहनेवाली होनी चाहिये और पार करनेवाला उत्तर से दक्षिण की ओर जाय। आगे गाय होनी चाहिये। उसकी पूँछ में कलावा (मौली) से नाव बँधी होनी चाहिये और पूजित गाय की पूँछ तथा नाव को पकड़े हुए पार करनेवाले को उसके पीछे होना चाहिये। गौ को उस नदी को पार कराये और उसके सहारे स्वयं भी पार हो जाय। बाद में गौ ब्राह्मण को दानमें दे दे।

इस प्रकार मरणासन्नावस्था के दानादि कृत्य करने के अनन्तर दाहकर्ता क्षौर एवं स्नान करके शव का संस्कार करे और अर्धी बनवा ले। तदनन्तर मृत्युस्थान से अस्थिसंचयन तक के लिये पिण्डदान करनेके लिये जौ के आटे आदिसे छः पिण्डों को बना ले और उन-उन स्थानों पर पिण्डदान करे। पहला पिण्डदान जिस स्थान पर मृत्यु हुई हो, वहाँ पर किया जाता है। दूसरा पिण्डदान घर के दरवाजे के स्थान पर, तीसरा श्मशान मार्ग के चौराहे पर, चौथा विश्रामस्थान पर, पाँचवाँ काष्ठचयन (चितास्थान) पर तथा छठा पिण्ड दाहस्थान पर दिया जाता है। पिण्डदान के अनन्तर चितास्थली को साफ कर देना चाहिये। अन्त में स्नान कर प्रेत के उद्देश्य से तिलतोयांजलि प्रदान करे। श्मशान से वापस लौट आये। गृहद्वार पर अग्नि आदि का स्पर्श करके घर में प्रवेश करे।

जीव के उद्देश्य से दस दिन तक घटदान तथा दीपदान करे और दशगात्र के दस पिण्डों को प्रदान करे, इससे यातनामय देह का निर्माण होता है। आगे एकादशाह तथा सपिण्डीकरण के श्राद्ध आदि करे। वर्ष के अनन्तर वार्षिक श्राद्ध तथा महालय में मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करे। जीव की सद्गतिके लिये गया-श्राद्ध आदि का भी विधान है।

पंचक मृत्यु -

धनिष्ठार्ध, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती इन पाँच नक्षत्रों को पंचक कहा जाता है। पंचक नक्षत्रों में मृत्यु होने पर कुशों की पाँच प्रतिमा (पुत्तल) बनाकर शव के साथ ही इनका भी दाह किया जाता है। विशेष बात यह है कि यदि मृत्यु पंचक के पूर्व हो गयी हो और दाह पंचक में होना हो तो पुतलों का विधान करे। पंचकशान्ति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत यदि पंचक में मृत्यु हो और दाह पंचक के बाद हो तो केवल शान्तिकर्म करे, पुत्तलदाह की आवश्यकता नहीं। यदि मृत्यु भी पंचक में हो और दाह भी पंचक में हो तो पुत्तलदाह तथा शान्ति-दोनों कर्म करे।

देहत्याग के पहले के कृत्य -

प्राणोत्सर्ग से पूर्व यदि सम्भव हो तो मरणासन्न व्यक्ति को गंगा आदि पुण्यतोया नदियों के पावन तटपर ले जाय। यदि यह सम्भव न हो तो घर पर ही नीचे की भूमि पर गोबर-मिट्टी तथा गंगाजल से भूमि को शुद्धकर दक्षिणाग्र कुश बिछा दे तथा तिल और कुश बिखेर दे। मरणासन्न व्यक्ति को गंगाजल या पवित्र जल छिड़क कर मार्जन करा दे तथा उत्तर या पूर्व की ओर सिर करके भूमि पर लिटा दे। सिर पर तुलसीदल रख दे। ऊँची जगह पर शालीग्राम शिला को स्थापित कर दे। घी का दीपक जला दे। भगवान्‌ के नाम का निरन्तर उ‌द्घोष होता रहे। यदि मरणासन्न व्यक्ति समर्थ हो तो उसी के हाथों से भगवान्‌ की पूजा करा दे अथवा उसके पारिवारिकजन पूजा करें।

मुख में शालीग्राम का चरणामृत डालता रहे। बीच-बीच में तुलसीदल मिलाकर गंगाजल भी डालता रहे। इससे उस प्राणी के सम्पूर्ण पाप नष्ट होते हैं और वह वैकुण्ठलोक को प्राप्त करता है। उपनिषद्, गीता, भागवत, रामायण आदि का पाठ होता रहे। किसी व्रत आदि का उद्यापन न हो सका हो तो उसे भी कर लेना चाहिये।

मरणासन्न व्यक्ति की सद्गतिके लिये दशमहादान-अष्टमहादान तथा गोदान करने का विधान है। यदि ये पहले न किये जा सके हों तो इस समय कर लेना चाहिये। शीघ्रता में यदि प्रत्यक्ष वस्तुएँ उपलब्ध न हों तो अपनी शक्ति के अनुसार निष्क्रय-द्रव्यका उन वस्तुओं के निमित्त संकल्प कर ब्राह्मण को दे दे।

मरणासन्न व्यक्ति के द्वारा अन्तिम समय में गोदान करने का विशेष महत्त्व है। यदि प्रत्यक्ष गोदान करने में असमर्थ हो तो संकल्पपूर्वक गो निष्क्रय द्रव्य का दान करना चाहिये। शास्त्रों में पंचधेनु (ऋणधेनु, पापापनोदधेनु, उत्क्रान्तिधेनु, वैतरणीधेनु तथा मोक्षधेनु) के दान की व्यवस्था है। पंचधेनु का दान प्रत्यक्ष गौ के द्वारा करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति पाँचों प्रत्यक्ष गोदान करने में असमर्थ हो तो पाँचों के प्रतिनिधि के रूप में एक प्रत्यक्ष गौका दान करना चाहिये अथवा निष्क्रय-द्रव्य देना चाहिये।

देहत्याग के बादके कृत्य -

क्षौर तथा स्नान -

त्रिकुश, तिल और जल लेकर स्वयं बाल बनवाने और स्नानके लिये संकल्प करे-

प्रतिज्ञा-संकल्प -
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत् अद्वैतस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपराधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे क्षेत्रे (यदि काशी हो तो अविमुक्तवाराणसी क्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकण्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या गङ्गाया वामभागे) संवत्सरे उत्तरायणे/दक्षिणायने ऋतौ मासे पक्षे तिथौ वासरे "गोत्रः शर्मा/वर्मा गुप्तोऽहम् गोत्रस्य (गोत्रायाः) "प्रेतस्य (प्रेतायाः) और्ध्वदैहिकसंस्कारयोग्यतासम्पादनार्थ क्षौरपूर्वकं स्नानकर्म करिष्ये।

- ऐसा संकल्पकर दक्षिणाभिमुख बैठकर क्षौरकर्म कराये। फिर स्नानकर नये वस्त्र और उपवस्त्र धारण करे।

शव का संस्कार -
इस तरह पवित्र होकर मृत प्राणी के पास आये। शव का सिरहाना उत्तर की ओर करे। स्नान करानेके लिये नये घड़े में जल भरकर उसमें गंगादि तीर्थजलों की भावना करे।
इसी जल से शवको स्नान कराये। नये वस्त्रों से अंगोंको पोंछकर गोघृत का लेप करे। नया वस्त्र (कौपीन) पहना दे। द्विज हो तो नया यज्ञोपवीत भी पहना दे। चन्दन लगा दे। फूल और तुलसी की माला पहना दे। कर्पूर, अगर, कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों से सारे शरीर में लेप कर दे। मुख में सोना डाल दे। सुवर्ण के अभावमें घी की बूँद डाल दे। कपड़े से पैरकी अंगुलियों से लेकर सिर तक सारे शरीर को अच्छी तरह ढक दे। तलवा खुला रखे। इस तरह शव को अलंकृत कर अर्थी पर कुश या कुशासन बिछाकर उत्तर की ओर सिर करके लिटा दे। मूँज की नयी रस्सी के साथ मौली या कच्चे सूत की रस्सी से अच्छी तरह बाँध दे। ऊपर से रामनामी चद्दर या सफेद चद्दर ओढ़ा दे। पुष्पमालाओं से अलंकृत कर दे।

षटपिण्ड दान -

अर्थी की दाहिनी तरफ दक्षिण की ओर मुँहकर बैठ जाय। शिखा बाँध ले। अपसव्य होकर तिल और घी को जौ के आटे में मिलाकर छः छः पिण्ड बनाये। प्रारम्भ से लेकर श्मशान तकके लिये छः पिण्ड बनाये जाते हैं। जौ के आटे के अभाव में चावल आदि के आटे से भी पिण्डदान किया जा सकता है। थोड़ा जौका आटा आदि बचा ले।

शवनिमित्तक पिण्डदान -

पहला पिण्डदान-
दायें हाथ में त्रिकुश, तिल और जल लेकर शवनिमित्तक प्रथम पिण्ड के दान का मृत्यु स्थान पर प्रतिज्ञा-संकल्प करे-

प्रतिज्ञा-संकल्प -
अद्य "गोत्रः शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम् ""गोत्रस्य (स्त्री हो तो गोत्रायाः बोले) प्रेतस्य (स्त्री हो तो "प्रेतायाः बोले) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं भूम्यधिदेवतातुष्ट्यर्थं च मृतिस्थाने शवनिमित्तकं पिण्डदानं करिष्ये।

इस तरह संकल्प बोलकर संकल्प-जल गिरा दे।

इसी प्रकार चार पिंडदान और देने के उपरांत शव दाह की क्रिया प्रारभ होती है।

कपालक्रिया -

जब शव आधा जल जाय, तब कपालक्रिया करे। बाँस से शव के सिर पर चोट पहुँचानी चाहिये (यतियों की श्रीफल से कपालक्रिया करनी चाहिये) और उसपर घृत डाल देना चाहिये।

चिता में सात समिधाएँ डालना -

एक-एक बित्ते की सात यज्ञीय लकड़ियाँ लेकर दाहकर्ता शव की सात प्रदक्षिणा करे। प्रत्येक प्रदक्षिणा के अन्त में 'क्रव्यादाय नमस्तुभ्यम्' मन्त्रसे एक-एक समिधा चितामें डालता जाय।

दाह से अवशिष्ट अंश को जल में डालना -
अन्त में शवका किंचित् भाग अर्थात् कपोत-परिमाण (कबूतर के बराबर तक) जल में डाल देना चाहिये, पूरा जलाना मना है।

इसके बाद अस्थिसंचयन निमित्तक छठा पिण्डदान दिया जाता है।

श्मशान से लौटने के बाद के कृत्य -
इसके बाद बच्चों को आगे करके सभी शवयात्री घर की ओर बढ़ें। पीछे न देखें। दरवाजे पर आकर थोड़ी देर रुक जायें। वहाँ नीम की पत्तियाँ चबायें। आचमन करें। जल, गोबर, तेल, मिर्च, पीली सरसों और अग्नि का स्पर्श करें। फिर पत्थर पर पैर रखकर घर में प्रवेश करें। कुछ देर बैठकर भगवान्‌का चिन्तन करें और मृतात्मा की शान्ति की कामना करें।

दीपदान - मृत व्यक्ति के हितार्थ कृत्य :

जिस दिन मृत्यु हुई है, उस दिन से आरम्भकर मृतात्मा के हित के लिये मृतिस्थान अथवा द्वार पर दस दिन तक प्रदोषकालमें निम्न मन्त्र से मिट्टी के पात्र में तिल के तेल का दीप जलाना चाहिये।

अन्धकारे महाघोरे रविर्यत्र न दृश्यते ।
तत्रोपकरणार्थाय दीपोऽयं दीयते मया ॥

दीपक को धान्य पर दक्षिणाभिमुख रख दे। मृत्यु के दिन से अथवा दूसरे दिन से दस दिन तक प्रेत के निमित्त पीपल के वृक्ष पर घटबन्धन तथा दूधजलदान की प्रक्रिया करे।


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