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संन्यास संस्कार

Sannyas Sanskar

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संन्यास संस्कार चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सन्यास अंतिम अवस्था

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)

संन्यास संस्कार

हमारे वेदों और पुराणों में हिंदू धर्म में जीवन के चार आश्रम का वर्णन है : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। चार ही पुरूषार्थ बताये गये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये आश्रम एक प्रकार से जीवन की चार अवस्थाये हैं जिनका उद्देश्य इन चार पुरूषार्थों को प्राप्ति करना होता है। सन्यास अंतिम अवस्था मानी जाती है जो कि मोक्ष प्राप्ति का द्वार है। सन्यास से तात्पर्य है सम्यक त्याग अर्थात् मानवीय जीवन की लालसाओं से विरक्ति। सन्यासी को मोह, माया, क्रोध, अहंकार आदि सभी से पार पाना होता है। सन्यास आश्रम का पालन करना कठिन होता है इसलिये यहाँ तक पहुँचने के लिये जन्म से लेकर युवावस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन कर कड़ी तपस्या करनी होती हैं। इसके पश्चात् गृहस्थ आश्रम के जरिये पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह भी किसी साधना से कम नहीं होता। फिर एक अवस्था के पश्चात् वानप्रस्थ जीवन जोते हुये पारिवारिक सुखों का त्याग कर समाज को समर्पित होना भी सन्यास की ओर अग्रसर होने का ही चरण है। वानप्रस्थ संस्कार को अपनाने के पश्चात् व्यक्ति मोह माया से विरक्त होकर समाज के प्रति अपना दायित्व निभाता है।

इसके पश्चात् उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपने जीवन को सार्थक करते हुए बचे हुए समय में ईश्वर का ध्यान लगाये। जीवन के सत्य को, उसके महत्त्व को, उसकी सार्थकता का विश्लेषण करे। इसलिये सन्यास संस्कार का धार्मिक दृष्टि से तो महत्त्व है ही साथ ही यह जीवन को जानने के लिये भी आवश्यक है।

सन्यास संस्कार भी विधिपूर्वक सम्पन्न किया जाता है। इस संस्कार में सन्यास लेने का इच्छुक व्यक्ति दो अन्य ब्राह्मणों के साथ अग्नि में विभिन्न आहुतियाँ देते है, वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए भावना करता है कि तपस्या और दीक्षा से प्राप्त होने वाला ब्रह्मलोक उसे प्राप्त हो, वह व्यक्ति सृष्टि के कल्याण हेतु चाकि जीवन गुजारने का संकल्प लेता है। वैसे तो सन्यास संस्कार 75 वर्ष की आयु में किया जाता है लेकिन यदि किसी में संसार के प्रति विरक्ति का, वैराग्य का भाव पैदा हो जाये तो वह किसी भी आयु में सन्यास ले सकता है। यज्ञ में पूर्णाहुति देकर वह यश, सन्तान तथा बन की लालसा को त्यागने और सदैव भिक्षाचरण करने का संकल्प करता है। सन्यास संस्कार हो जाने पर सन्यासी हाथ में दण्ड और पात्र/कमण्डलु लेकर, गैरिक वस्त्र पहनकर सदैव घूमता रहता है और समाज को ज्ञान वितरण करता है।

सन्यासियों के लिये नियम है कि वे अपरिग्रह का कठोरता से पालन करें अर्थात् जितना आवश्यक हो उतना ही अपने पास रखें। सन्यासी के लिये खानपान, बोलचाल, उठने-बैठने, सोने-जागने, लोगों से मिलने-मिलाने आदि के भी बहुत कठोर नियम होते हैं। यह सब उनमें वैराग्य का भाव बढ़ने के लिये होता है। आजकल अधिकतर लोग सन्यास तो ले लेते हैं, लेकिन सन्यासी जीवन के सख्त नियमों का पालन नहीं कर पाते क्योंकि सन्यासी की राह बहुत कठिन व दुर्गम है।

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