समावर्तन संस्कार
Samavartana Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
समावर्तन संस्कार
धर्मसिन्धु के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् गृहस्थ में प्रवेश की आज्ञा को समावर्तन संस्कार कहते हैं। रिक्ता तिथि, मंगल, शनिवार, पौष आषाढ़ माह और दक्षिणायन सूर्य में इनमें समावर्तन करना चाहिये। गुरु-शुक्र आदि अस्त नहीं होना चाहिए। रिक्ता, त्रयोदशी, पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी, प्रतिपदा इनसे भिन्न तिथि, शुक्लपक्ष में पुष्य, पुनर्वसु, मृगशिरा , रेवती, हस्त, अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, श्रवण, विशाखा, चित्रा इन नक्षत्रों में अथवा यज्ञोपवीत के नक्षत्रों में समावर्तन करना चाहिये। आचार्य को 2 वस्त्र 2 कुण्डल, छतरी, जूता, माला, दण्ड, उत्तरीय तथा मिष्ठान्न भेंट करें ।
वटुक का संकल्प -
वटुक स्वयं निम्न मंत्र से संकल्प करे-
मम गृहस्थाश्रम अर्हता सिद्धि द्वारा परमेश्वर प्रीत्यर्थ समावर्तनं करिष्ये।
इसके बाद गणेश-गौरी पुण्याहवाचन-मातृका पूजन तथा वटु स्वयं नांदी श्राद्ध करे। यदि पिता-माता उपलब्ध हो तो वे भी नांदी श्राद्ध कर्म कर सकते हैं। वटु के प्रतिनिधि बनकर पिता नांदी श्राद्ध करे। फिर दस या तीन ब्राह्मणों को भोजन करावे। फिर वह संकल्प करे कि अब मैं गृहस्थ धर्म में प्रवेश करूंगा, कभी भी निर्निमित्त रात्रि स्नान, नग्न स्नान, नग्न शयन, मैथुन के अलावा कभी भी नग्न स्त्री दर्शन, जल वर्षा में दौड़कर चलना, वृक्षों पर चढ़ना, कुएँ में उतरना, भुजाओं से पूरी नदी को तैरना, भयंकर स्थानों में प्रवेश नहीं करूंगा। मैं जल से भरा कमण्डलु, छतरी, पगड़ी, जूता, कुण्डल, कुशा इनको धारण करूंगा। कैंची के द्वारा नख्न, दाढ़ी, केश इनको छोटा रखूंगा। बिना पर्व के मुण्डन नहीं करूंगा। नित्य अध्ययन करूंगा। शुक्ल वस्त्र धारण करूंगा। सुगधित वस्तुए तैलादि धारण करूंगा। फटा तथा मलिन वस्त्र धारण नहीं करूंगा गुरु के अलावा किसी की उतारी माला-वस्त्र धारण नहीं करूंगा। जल में छाया नहीं देखूंगा। अपनी स्त्री के साथ एक पात्र में भोजन नहीं करूंगा। दो वस्त्र धारण करूंगा। लाल वस्त्र धारण नहीं करूंगा। खडे होकर जलाचमन नहीं करूंगा (जल में व्यक्ति जांघ पर्यन्त खडे होकर आचमन कर सकता है।) पैर से पैर रगड़कर नहीं धोऊंगा। मस्तक बाँधकर पर्यटन नहीं करूंगा। जूता पहिने जल पीना, भोजन करना, नहीं करूंगा। कभी पर स्त्री से गमन नहीं करूंगा। जूता पहिने देव-विप्रों गुरुओं को प्रणाम नहीं करूंगा। पैर से आसन को नहीं खीचूंगा। ऊपर की प्रतिज्ञाओं को पूरा न कर पाऊँ तो तीन दिन रात्रि भोजन नहीं करूंगा। जो प्रमाद से भूल हो जावे तो अहोरात्र (1 दिन का) व्रत करूंगा। सामर्थ्यहीन होने पर एक या तीन ब्राह्मणों को भोजन करावे।
यह विधान धर्म सिन्धु में बताया गया है।
तत्पश्चात् भस्म धारण करे, अग्नि को प्रणाम करे, कलश तथा आचार्य को प्रणाम करे। अग्नि के उत्तर में कुश के अग्रभाग को बिखेरकर उनके ऊपर आठ जल पूर्ण कलशों को रखकर पूर्वाभिमुख होकर एक घड़े में आम्रपल्लव से जल लेकर 'ये अपस्वंतरग्नयः' मंत्र से आचार्य वटु का अभिषेक करे। इसी मंत्र से आठों कलशों का जल छिड़के। इसके पश्चात् (ॐ उदुत्तमं वरुणपाश) इस मंत्र से मेखला को शिरो मार्ग से निकाले । मृगचर्म तथा दंड को भी नीचे रख दे। फिर सूर्य का उपस्थान करे।
तत्पश्चात् तिल से युक्त दही का थोड़ा भक्षण करे। नख कर्तन करे। मुण्डन करावे गूलर की दातौन करके स्नान करे। सुगंधित तेल इत्र लगावे । मस्तक पर तिलक लगावे । दो यज्ञोपवीत धारण करे। सुन्दर वस्त्र श्वेत पहिने। आचार्य को दक्षिणा देकर अपने घर लौटे।