विवाह संस्कार
Marriage Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
विवाह संस्कार
सनातनियों में विवाह एक पावन वैदिक संस्कार है, जो वासना पूर्ति का साधन नहीं होकर व्यक्ति को उपासना के श्रेष्ठ मार्ग में प्रवेश कराता है। हमारे यहां शास्त्रों में कुल आठ प्रकार के विवाह की चर्चा है जिसमें चार विवाह ब्राह्म विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह और प्राजापत्य विवाह वैदिक तथा सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। बाकी के चार विवाह आसुर विवाह, गान्धर्व विवाह, राक्षस विवाह और पिशाच विवाह अवैदिक हैं। किसी भी व्यक्ति को बिना विवाह किये धर्म कार्यों का अधिकार प्राप्त नहीं होता अतः स्त्री धर्म के लिये विवाही जाती है-भोगादि के लिए नहीं। यह संस्कार चारो वर्णों के लिए आवश्यक है।
पत्नी धर्मकामार्थानां कारणं प्रवरं स्मृतम् ।
अपत्नीको नरो भूप कर्मयोग्यो न जायते ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोऽपि वा नरः ॥ (आपस्तंव पृ. ४६)
हिन्दू धर्म ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार का वर्णन है जो निम्नलिखित हैं :-
1 . ब्राह्म विवाह :-
हिन्दुओं में यह आदर्श, सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित विवाह का रूप माना जाता है। इस विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता अपनी कन्या के लिए विद्वता, सामर्थ्य एवं चरित्र की दृष्टि से सबसे सुयोग्य वर को विवाह के लिए आमंत्रित करता है। और उसके साथ पुत्री का कन्यादान करता है। इसे आजकल सामाजिक विवाह या कन्यादान विवाह भी कहा जाता है।
2. दैव विवाह :-
इस विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता अपनी सुपुत्री को यज्ञ कराने वाले पुरोहित को देता था। यह प्राचीन काल में एक आदर्श विवाह माना जाता था। आजकल यह अप्रासंगिक हो गया है।
3. आर्ष विवाह :-
यह प्राचीन काल में सन्यासियों तथा ऋषियों में गृहस्थ बनने की इच्छा जागने पर विवाह की स्वीकृत पध्दति थी। ऋषि अपनी पसन्द की कन्या के पिता को गाय और बैल का एक जोड़ा भेंट करता था। यदि कन्या के पिता को यह रिश्ता मंजूर होता था तो वह यह भेंट स्वीकार कर लेता था और विवाह हो जाता था परंतु रिश्ता मंजूर नहीं होने पर यह भेंट सादर लौटा दी जाती थी।
4. प्रजापत्य विवाह :-
यह ब्राह्म विवाह का एक कम विस्तृत, संशोधित रूप था। दोनों में मूल अंतर सपिण्ड बहिर्विवाह के नियम तक सीमित था। ब्राह्म विवाह का आदर्श पिता की तरफ से सात एवं माता की तरफ से पांच पीढ़ियों तक जुड़े लोगों से विवाह संबंध नहीं रखने का रहा है। जबकि प्रजापत्य विवाह पिता की तरफ से पांच एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियों के सपिण्डों में ही विवाह निषेध की बात करता है।
5. आसुर विवाह :-
यह विवाह का वह रूप है जिसमें ब्राह्म विवाह या कन्यादान के आदर्श के विपरीत कन्यामूल्य एवं अदला-बदली की इजाजत दी गई है। ब्राह्म विवाह में कन्यामूल्य लेना कन्या के पिता के लिए निषिध्द है। ब्राह्म विवाह में कन्या के भाई और वर की बहन का विवाह (अदला-बदली) भी निषिध्द होता है।
6. गंधर्व विवाह :-
यह आधुनिक प्रेम विवाह का पारंपरिक रूप था। इस विवाह की कुछ विशेष परिस्थितियों एवं विशेष वर्गों में स्वीकृति थी परन्तु परंपरा में इसे आदर्श विवाह नहीं माना जाता था।
7. राक्षस विवाह :-
यह विवाह आदिवासियों में लोकप्रिय हरण विवाह को हिन्दू विवाह में दी गई स्वीकृति है। प्राचीन काल में राजाओं और कबीलों ने युध्द में हारे राजा तथा सरदारों में मैत्री संबंध बनाने के उद्देश्य से उनकी पुत्रियों से विवाह करने की प्रथा चलायी थी। इस विवाह में स्त्री को जीत के प्रतीक के रूप में पत्नी बनाया जाता था। यह स्वीकृत था परंतु आदर्श नहीं माना जाता था।
8. पैशाच विवाह :-
यह विवाह का निकृष्टतम रूप माना गया है। यह धोखे या जबरदस्ती से शीलहरण की गई लड़की के अधिकारों की रक्षा के लिए अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकारा गया विवाह रूप माना गया है। इस विवाह से उत्पन्न संतान को वैध संतान के सारे अधिकार प्राप्त होते हैं।
उत्तरार्द्ध के चार विवाह शास्त्रों ने अमान्य तथा अशुद्ध माने हैं। अतः इनका कभी अनुकरण नहीं करना चाहिये। (धर्म सिन्धु 3 परि पृ. 406)
छोटी आयु वाले का विवाह पहिले कभी भी न करे -
जो बड़े भाई के जीवित तथा योग्य रहते छोटे का विवाह पहिले तथा बड़े का पीछे विवाह किया जाता है, वह परिवेत्ता दोष माना जाता है। इसी प्रकार छोटी पुत्री का पूर्व में , बड़ी पुत्री का पश्चात् में विवाह अशास्त्रीय है यदि बड़ा भाई या बड़ी बहिन पागल, अयोग्य, विकलांग, बहिष्कृत या पतित हो तो ऐसी अवस्था में द्वितीय संतान का विवाह किया जा सकता है। सौतेली माता के पुत्र-पुत्रियों में यह विचार मान्य नहीं है। यदि कदाचित् ऐसा कर दिया गया हो तो वर-वधू उनके माता-पिता तथा पुरोहित को चान्द्रायण व्रतादि करके अपनी शुद्धि कर लेनी चाहिये। (धर्म सिन्धु ३ परि. पृ. 406)
कन्यादान कौन करेगा -
कन्यादान मुख्यतः पिता को ही करने का शास्त्र में विधान है, पिता न हो तो पितामह-भाई-काका-नाना-मामा इस क्रम में दान करें। एक के न होने पर अगले को अधिकार है। पिता-पितामहादि के रहने पर मामा को कन्यादान का अधिकार नहीं है। (धर्म सिन्धु पृ. 407 तथा निर्णय सिन्धु)
दूसरे की कन्या का कन्यादान -
यदि धर्मार्थ किसी अन्य की कन्या का दान करना हो तो पूर्व में कुछ स्वर्णदान करके कन्या को अपनी बनावे, फिर उस कन्या का धर्म विधि से दान करे। (धर्म सिन्धु पृ. 407)
विवाह मुहूर्त -
आपस्तंब सूत्र में विवाह मुहूर्त पर कहा गया है कि विवाह माघ, फाल्गुन, वेशाख तथा ज्येष्ठ में सर्वश्रेष्ठ है। मार्गशीर्ष में भी मध्यम है। मिथुन की संक्रांति में आषाढ़ भी मध्यम है। प्रथम पुत्र-प्रथम पुत्री का विवाह ज्येष्ठ में मना है। यदि लड़का लड़की से एक ज्येष्ठ तथा एक कनिष्ठ हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह मध्यम होता है। जन्म मास तथा जन्म नक्षत्र विवाह में निषेध है। पाणिग्रहण के समय के लिए गोधूलि बेला ठीक नहीं है। ब्राह्मणादि को गोधूलि बेला में विवाह संकट काल में ही करणीय है अन्यथा नहीं। विवाह में अमावस्या नहीं लेनी चाहिये। तिथि में चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, षष्ठी, अष्टमी ये अल्पफल वाली है। शुक्लपक्ष श्रेष्ठ तथा कृष्णपक्ष त्रयोदशी तक मध्यम है। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार ये दिन शुभ है। रोहिणी, मृगशिर, मघा, तीनों उत्तरा, हस्त, स्वाती, मूल, अनुराधा और रेवती नक्षत्र शुभ है। चंद्र, गुरु, सूर्य शुद्धि पर भी पूर्ण विचार करना है। घात चंद्रमा, मृत्युयोग, परिध, भद्रा, वैधृति, विष्कुम्भ, तिथिक्षय, संक्रांति, ग्रहण के नक्षत्र में विवाह मना है। आपस्तंब ग्रह्यसूत्र में आषाढ़ मास निषेध है।
वैधव्यहर कुंभ विवाह -
धर्म सिन्धु में किसी बालिका के जन्मपत्री में वैधव्य योग रहने पर उसके परिहार के रूप में कुंभ विवाह का विधान दिया गया है। यदि बालिका की पत्रिका में वैधव्य योग हो तो पिता घट को स्थापित कर वरुण पूजा कर विष्णु प्रतिमा स्थापित कर अपनी कन्या को विष्णु को अर्पण करे। कन्या और घट को धागा से तीन बार लपेट देवे, मंत्रोच्चार करे। फिर कुंभ को किसी जलाशय में डुबा देवे। ब्राह्मणों से कन्या का अभिषेक शुद्धजल से कराकर, विप्र भोज तथा दक्षिणा दान करे।
कन्यादान का महत्त्व एवं फल -
धर्म सिन्धु में कन्यादान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि जो अपनी कन्या को वस्त्राभूषण से सज्जित करके योग्य वर को दान करता है, उस कन्यादाता को अश्वमेध यज्ञ को करने वाले के समान और जीवन दान करने वाले के समान पुण्य की प्राप्ति होती है। कन्यादान करने वाले के पिता-पितामहादि सभी पितर पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक चले जाते है।
'कन्या प्रदाताश्वमेधयाजी भयेषु प्राणदाता चेति त्रयः सम पुण्याः'
श्रुत्वा कन्या प्रदातारं पितरः सपितामहाः ।
मुक्त्वा सर्व पापेभ्यो ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते ॥
(धर्म सिन्धु पृ. ४१५)
कन्या के लिए गुरु ग्रह शुद्धि -
कन्या की राशि से चौथा, आठवां, बारहवां गुरु निषेध है पर गर्ग ने कहा है कि 12 वर्ष की कन्या को गुरु दोष नहीं है। यदि कन्या रजस्वला हो गई तो गुरु शुद्धि की आवश्यकता नहीं है। आठवें गुरु में त्रिगुणित पूजा करे।
रजस्वलायाः कन्याया गुरु शुद्धिं न चिन्तयेत् ।
अष्टमेऽपि प्रकर्तव्यो विवाहस्त्रिगुणार्चनात् ॥ (निर्णय सिन्धु ३ परि.पृ. ६०१)
विवाह में मंगल द्रव्य -
आपस्तंब गृह्य सूत्र में विवाह के लिए स्नान, शुद्धवस्त्र, गन्धों का लेप, माला, नापितकर्म, शंख, दुन्दुभि-वीणा-वाद्ययंत्र, कुलांगनाओं के गीत, सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्र, छत्र धारण, ध्वजा तोरण आदि को मंगल द्रव्य माना गया है।
विवाह पूर्व स्नान -
वैवाहिक स्नान का बड़ा महत्त्व है। सौभाग्यवती घर की स्त्रियाँ शुभ समय में कन्या को उबटन लगाकर कन्या के उपस्थ (गुप्रेन्द्रिय) को भी अच्छी प्रकार उबटन से मलकर स्वच्छ करे, विवाह के योग्य तभी कन्या मान्य है। बालक के स्नान में पुरोहित या पवित्र ब्राह्मण उत्तरीय से अपने कान और सिर को ढंककर जल भरा हुआ कलश अपने मस्तक पर रखकर वेद मंत्र से वर को स्नान करावे। (खादिर ग्रह्य खंड 3 पृ 21)
कन्या का स्नान पाणिग्रहण के पूर्व होना है। स्नानान्तर तुरन्त पाणिग्रहण में आवे। (गोभिल ग्रह्य सूत्र प्र. २ खं. १-१७) आपस्तंब ने कन्या को ८ घड़ों से ब्राह्मणों के द्वारा स्नान कराने का विधान लिखा है। पांच घड़ों से समंत्रक स्नान तथा तीन घड़ों से अमंत्रक स्नान करावे। घड़ों में छेद होवे उस छेद में से निकला हुआ जल स्वर्ण से छूता हुआ कन्या के मस्तक पर गिरे। (आपस्तंब २१७) शूद्र कन्या में संस्कारों में वेदमंत्रों की आवश्यकता नहीं है। (पारस्कर ग्रह्य १/४/११)
सर्वेषां शूद्रामय्येके मन्त्रवर्जम् ॥ (१/४/११)
सनातन संस्कृति में वरण काल में बुलाई हुई कन्या को सोती हुई, रोती हुई या भागती हुई कन्या को वरण करना बिलकुल वर्जित माना गया है।
सुप्तां रुदन्तीं निष्क्रान्तां वरणे परिवर्जयेत् ॥ (आपस्तंब 1/11)
विवाह काल में वर को तो उपनीत किया ही जाता है किन्तु कन्या को जनेऊ (यज्ञोपवीत) की आवश्यकता नहीं है। गोभिल गृह्य सूत्र के 'प्रावृतां यज्ञोपवीतिनी' शब्द लिखा है, पर सम्पूर्ण आचार्य इसका विरोध करते हैं। अतः वहाँ गोभिल का तात्पर्य है कि वस्त्र पहिनाकर यज्ञोपवीत वत् एक वस्त्र कन्या को डाल देवे।
विवाह के निश्चित होने पर यदि दोनों पक्ष में से किसी के यहाँ मरण हो जाए तब उस परिस्थिति में क्या करना चाहिए -
विवाह के निश्चित होने पर यदि दोनों पक्ष में से किसी के यहाँ मरण हो जाए तो, पिता के मरण में एक वर्ष, मातृ मरण में 6 माह, पत्नी मरण में 3 माह, भ्रातृ और पुत्र मरण में डेढ़ माह किसी अन्य सपिण्ड के मरण पर एक माह तक का आशौच होता है अतः इतने दिन विवाह रोका जाना चाहिये। यदि अत्यावश्यक परिस्थिति हो तो विनायक शान्ति विधान करके विवाह करें ।
यदि विवाह संस्कार के मध्य माता रजस्वला हो जाएं तो क्या विधान है -
यदि वर या वधू की माता नान्दी श्राद्ध के पश्चात् रजस्वला हो जावे तो होमपूर्वक गोदान करके विवाह उपनयन आदि मंगल कार्य सम्पन्न करे। एक मासे की सुवर्णको पद्मा की मूर्ति बनाकर श्रीसूक्त के विधान से अर्चन करे प्रत्येक ऋचा से पायसद्वारा हवन करें। (तथैव पृ. ६१६)
घर में सहोदरों के लिए एक विवाह के पश्चात् दूसरा विवाह के समय का विधान -
भाई के विवाह के पश्चात् बहन का या बहन के विवाह के पश्चात् भाई का विवाह छह माह तक नहीं करे। तीन ऋतु व्यतीत हो जाए तब विवाह करें , नहीं तो अमंगल होता है। यह नियम सहोदरों के लिए हैं। सौतेले या पारिवारिक विवाहों में यह लागु नहीं होता है । विवाह के पश्चात् छह माह तक मुण्डन न करे। (तथैव पृ. ६१७)
विवाह के पश्चात् घर में श्राद्ध से सम्बंधित विधान क्या है ? -
निर्णय सिन्धु के अनुसार विवाह के पश्चात् 1 वर्ष तक घर में पार्वण श्राद्ध, यज्ञोपवीत के पश्चात् 6 माह तक और मुण्डन के पश्चात् तीन माह तक घर में श्राद्ध वर्जित है । पर क्षयाह तथा पितृपक्ष में करना चाहिये। धर्म सिन्धु के अनुसार विवाह करने के पश्चात् एक वर्ष तक मृतक के साथ श्मशान न जावे। जिस तीर्थ में कभी नहीं गये उसी तीर्थ में न जावे। जिस तीर्थ में पूर्व में जा चुके हैं। वहाँ जा सकते हैं। घर का व्यक्ति एक वर्ष तक मुण्डन न करायें।
अनाथ का विवाह -
दक्षस्मृति-निर्णय के अनुसार जो अनाथ बालक का उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार अथवा मातृ पितृ रहित कन्या का विवाह करता है उसे अतुलनीय पुण्यों की प्राप्ति होती है।
विवाह का मण्डप की लम्बाई चौड़ाई कितना होना चाहिए -
वसिष्ठ निर्णय के अनुसार विवाह का मण्डप (जहाँ वर-वधू का विवाह होना है) आठ हाथ लम्बा बारह हाथ चौड़ा या सोलह हाथ लम्बा व अठारह हाथ चौड़ा होना चाहिए ।
कन्या के पुनर्विवाह के लिए क्या विधान है -
निर्णय सिन्धु के तृतीय परिच्छेद में कन्या के पुनर्विवाह के लिए कहा गया है कि कन्या के विवाहोपरान्त पति की तुरन्त-मृत्यु होती है तो ऐसी कन्या अक्षत योनि होने से पुनर्विवाह के योग्य है।
कन्यादान में कन्यादान करने वाला का मुख किस दिशा में होना चाहिए ?
कन्यादान में कन्यादान करने वाला का मुख पश्चिम में होना चाहिए।
कन्याग्रहण में कन्या ग्रहण करने वाले वर का मुख किस दिशा में होना चाहिए ?
कन्या ग्रहण में कन्या ग्रहण करने वाले वर का मुख पूर्व में होना चाहिये। पत्नी को दक्षिण में बिठाए। कन्या को पश्चिम मुख करके संकल्प करे।
पाणिग्रहण संस्कार ( विवाहाग्नि ग्रहण संस्कार )-
पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधू एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं और वैदिक मंत्रों के साथ अग्नि के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। वर वधू से प्रतिज्ञा करता है कि मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ के कर्तव्यों को पूरा ।
पाणिग्रहण की विधि:
वर-वधू को विवाह वेदी पर बुलाया जाता है। कन्या दायीं ओर और वर बायीं ओर बैठते हैं। वर मर्यादा स्वीकारोक्ति करता है। कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपती है। वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंपता है। वर के कंधे पर पड़े सफ़ेद दुपट्टे में वधु की साड़ी का एक कोना बांधा जाता है जिसमें सिक्का, पुष्प, हल्दी, दूर्वा और अक्षत बांध दिए जाते हैं। फिर वर-वधू वैदिक मंत्रों के साथ अग्नि के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। वर-वधू पर पुष्पाक्षत डाले जाते हैं।
लाजा - होम में वधू अर्यमा, वरुण, पूषा और अग्नि देवताओं के लिए अग्नि में खीलों की आहुति देती है , जिससे कि उसका दांपत्य जीवन सुखमय हो।
प्राचीन काल में वर-वधू विवाह संस्कार के चौथे दिन सहवास करते थे, इससे स्पष्ट है कि विवाह के समय वर और वधू दोनों ही बड़ी अवस्था में होते थे। बाद में कन्याओं का विवाह कम अवस्था में होने लगा।
वधू का ससुराल में प्रवेश -
निर्णय सिन्धु के तृतीय परिच्छेद में कहा गया है कि विवाह के पश्चात् वधू छठवें , आठवें, दशवें या बारहवें दिन अपने ससुराल में प्रवेश कर सकती है। इसके लिए मुहूर्त या नक्षत्र देखेने की आवश्यकता नहीं है। चंद्रमा तथा शुक्र बिचार की भी जरुरत नहीं है। अगर वधू ने इन दिनों में प्रवेश नहीं किया तो फिर विषम वर्षों में तीन-पाँचवे वर्ष में करे।