उपनयन संस्कार यज्ञोपवीत संस्कार
Upanayana Sanskar Yajnopavit Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
उपनयन संस्कार यज्ञोपवीत संस्कार
उपनयन संस्कार -
उपनयन संस्कार के सन्दर्भ में बताया गया है कि ब्राह्मण-बालक का गर्भ से आठवें वर्ष, क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष और वैश्य का बारहवें वर्ष उपनयन संस्कार करना चाहिये। यदि किसी कारणवशात् इन कालों में उपनयन-संस्कार न हो सके तो ब्राह्मण का सोलहवें, क्षत्रिय का बाईसवें और वैश्य का चौबीसवें वर्ष तक उपनयन अवश्य कर देना चाहिये।
वसन्त ऋतु में ब्राह्मण का, ग्रीष्म ऋतु में क्षत्रिय का और शरत्-ऋतु में वैश्य का उपनयन करने का जो विधान किया है, उसका कारण यह है कि वसन्त ऋतु अति शीत तथा अति उष्ण न होकर सौम्य प्रकृतिकी होती है, अतः ब्राह्मणकी सौम्य प्रकृतिके अनुकूल है एवं ग्रीष्म ऋतु उग्र होनेसे उग्र प्रकृतिवाले क्षत्रियके स्वभावके अनुकूल है। इसी प्रकार शरत्-ऋतु धन-धान्य-सम्पन्न होनेसे धन-धान्य-सम्पन्न होनेकी इच्छावाले वैश्यके स्वभावके अनुकूल है।
वेदाध्ययन आदि श्रौत, स्मार्त कर्म करनेके लिये भी अधिकार-प्राप्तिरूप उपनयन संस्कार कराना परम आवश्यक है। उपनयन-संस्कारके बिना द्विज किसी भी वैदिक कर्मका अधिकारी नहीं माना गया है।
उपनयन-संस्कार के उपरांत ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य-पालन की आधारभूत शिक्षाएँ दी जाती हैं जैसे -
(1) नित्य स्नान करके पवित्र हुआ ब्रह्मचारी देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करे और देवताओंकी पूजा भी करे तथा हवनके लिये लकड़ी लाये। (यह परलोक-सुधारकी आधारभूत शिक्षा है।)
(2) मधु, मांस, गन्ध, माला, अतिवीर्य वर्धक रस, स्त्री, शुक्त (खटाई), तेल-मालिश, अंजन, जूता, छाता, नाचना, गाना, स्त्रीको देखना, आलिंगन करना आदिको छोड़ दे (यह ब्रह्मचर्य-पालनकी आधारभूत शिक्षा है।)
(3) प्राणियोंकी हिंसा, जुआ, कलह, पर-निन्दा, झूठ, पर अपकार न करे (यह लोकसुधारभूत शिक्षा है)।
यज्ञोपवीत (जनेऊ) -
उपनयन संस्कार में बालक को यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कराया जाता है जो एक चिन्ह है कि बालक का उपनयन संस्कार हो चूका है अर्थात अब इस बालक ने अनुशासित जीवन का व्रत ले लिया है। सदाचार अब उसके जीवन का अंग है।
यज्ञोपवीत (जनेऊ) में तीन धागे होते हैं, यह त्रिवृत् होता है, 96 चप्पेका बनाया जाता है, ब्रह्मग्रन्थि ऊपर लगायी जाती है।
जनेऊ 96 चप्पेका क्यों बनाया जाता है ?
एक कारण यह है कि वेदों में एक लाख मन्त्र हैं। उनमें से अस्सी हजार में कर्म, सोलह हजार में उपासना और चार हजार में ज्ञान का प्रतिपादन है। ज्ञान के अधिकारी संन्यासी होते हैं, कर्म और उपासना के अधिकारी अन्य तीन आश्रमी हैं। संन्यासाश्रम में शिखा और सूत्र का परित्याग हो जाता है, अतः ज्ञान के चार हजार मन्त्रों को निकालकर छियानबे हजार मन्त्र शेष बचते हैं, इसलिये छियानबे चप्पे रखे जाते हैं।
दूसरा कारण कि गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर होते हैं, चारों वेदों में व्याप्त गायत्री छन्द के 2404-96 अक्षर होते हैं। गायत्री तथा वेदों में अधिकार यज्ञोपवीत-संस्कार हो जाने पर ही होता है, इसलिये भी 96 चप्पे रखे जाते हैं।
और तीसरा कारण है कि सामुद्रिकशास्त्रकी दृष्टिसे मानव शरीरकी लम्बाई 84 से 108 अंगुलतक होती है, जिसकी बीचकी लम्बाई 96 अंगुल होती है, अतः 96 चप्पे रखे जाते हैं।
तीन धागा तथा त्रिवृत् -
शारीरिक, मानसिक, वाचिक इन तीन प्रकारके व्रतों को धारण करने की सूचना तीन धागों से दी गयी है। उन व्रतों का पालन सब देशों में तथा सब कालों में सब व्यक्तियों को करने की सूचना त्रिवृत् (तिहरा) से दी गयी है। यज्ञोपवीत शास्त्रविधि से बना हुआ ही धारण करना चाहिये, जो कटि (कमर) तक हो, इससे कम या ज्यादा नहीं।
ब्रह्मग्रन्थि -
जनेऊ में ब्रह्मग्रन्थि गाँठ इस धारणा को दृढ़ करने के लिए लगाया जाता है कि ब्रह्म की प्राप्ति ही जीवनका मुख्य उद्देश्य है। इसका एक नाम ब्रह्मसूत्र भी है।
यज्ञोपवीत-धारण करने की विधि -
यज्ञोपवीत धारण करते समय निम्नलिखित मन्त्र पढ़ कर पहनना चाहिए -
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
अर्थात, यज्ञोपवीत परम पवित्र है, सृष्टिके प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा के साथ ही यह उत्पन्न हुआ है। यह आयु, बल और तेज देनेवाला है, इसलिये इसे धारण करना चाहिये।
यज्ञोपवीत घर में किसीका जन्म या मृत्यु होने पर, क्षौरकर्म के अनन्तर, रजस्वला स्त्री, चाण्डाल तथा मुर्दा को छूने पर, कान में यज्ञोपवीत चढ़ाये बिना मल-मूत्र का त्याग करने पर नया धारण करना चाहिये।
इसी प्रकार श्रावणी (रक्षाबन्धन - श्रावण पूर्णिमा), चन्द्र और सूर्य-ग्रहणपर भी यज्ञोपवीत बदलने का विधान है।
ब्रह्मचारी को एक, श्रौत तथा स्मार्त कर्म करने के लिये दो, उत्तरीय-वस्त्र के अभाव में तीन यज्ञोपवीत धारण करने चाहिये।
यज्ञोपवीत कान पर क्यों चढ़ाते हैं -
शरीर-विज्ञानकी दृष्टिसे दाहिने कान की लोहिति का नाम की नाड़ी मल-मूत्र के द्वा रतक पहुँचती है, इसको वेध देने पर या कस कर बाँध देने पर मल-मूत्र त्याग करते समय जोर लगाने पर वीर्यपात या अन्य गुदा तथा मूत्रेन्द्रिय-सम्बन्धी रोग उत्पन्न होने में रुकावट होती है। शास्त्रीय दृष्टि से तो ज्ञान-केन्द्र होने के कारण शरीर में सिर को पवित्र माना गया है। उसमें भी दाहिने कान में आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि और धर्म नामके देवताओं का निवास माना है। इसलिये दाहिने कानके परमपवित्र होनेके कारण यज्ञोपवीत को कान पर चढ़ाते हैं।