कर्णवेध संस्कार
Karnavedha Sanskar

आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
कर्णवेध संस्कार
कर्णवेध संस्कार का विधान बालक एवं बालिका के दीर्घायु और श्री की वृद्धि के लिये की गयी है। इसमें दोनों कानों में वेध करके उन की नस को ठीक करनेके लिये सुवर्ण का कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक रक्षा होती है।
कर्णवेध संस्कार में विशेष विधिपूर्वक बालक एवं बालिका के दाहिने एवं बायें कान का छेदन किया जाता है। व्यासस्मृति में बताया गया है कि जिस बालक का चूडाकरण हो गया हो, उस बालक का कर्णवेध करना चाहिये।
कृतचूडे च बाले च कर्णवेधो विधीयते ।। (व्यासस्मृति 1।19)
बालक के जन्म होने के तीसरे अथवा पाँचवें वर्ष में कर्णवेध करने का विधान है।
आचार्य सुश्रुत के अनुसार बालक एवं बालिका के रक्षा और आभूषण के लिये बालक के दोनों कान छेदे जाते हैं। शुभ मुहूर्त और नक्षत्र में मांगलिक कृत्य एवं स्वस्तिवाचन करके कुमार को माता के अंक में बिठाकर खिलौने से बहलाते हुए पुचकारते हुए उसके दोनों कान छेदने चाहिये। यदि पुत्र हो तो पहले दाहिना कान छेदे और कन्या का पहले बायाँ कान छेदना चाहिये। कन्या की नाक भी छेदी जाती है और बींधने के पश्चात् छेद में पिचुवर्ति (कपड़ेकी नरम बत्ती) पहना देनी चाहिये। जब छिद्र पुष्ट हो जाय तो सुवर्ण का कुण्डल आदि पहनाना चाहिये। सुवर्ण के स्पर्श से बालक स्वस्थ और दीर्घायु होता है। बालक के कान में सूर्य की किरण के प्रवेश के योग्य और कन्या के कान में आभूषण पहनने के योग्य छिद्र कराना चाहिये।
कर्णवेधन संस्कार से बालारिष्ट उत्पन्न करने वाले बालग्रहों से बालक की रक्षा होती है और इसमें कुण्डल आदि धारण करने से मुख की शोभा होती है -
कर्णव्यधे कृतो बालो न ग्रहैरभिभूयते ।
भूष्यतेऽस्य मुखं तस्मात् कार्यस्तत् कर्णयोर्व्यधः ॥ कुमारतन्त्र (चक्रपाणि)
कर्णवेध संस्कार से मूलाधार चक्र से जुड़े तंत्रिका तंत्रों को भी नियंत्रित किया जाता है अर्थात काम भावना पर भी इससे नियंत्रण होता है तथा बच्चे की मेधा शक्ति में वृद्धि होती है। इसी कारण इस संस्कार को उपनयन संस्कार से पूर्व किया जाता है ताकि बच्चे एकाग्रचित्त होकर ज्ञान प्राप्त करें।