सूर्यदेव
Sun God
सूर्यदेव
ऋग्वेद में सूर्य के विषय में कहा गया है कि सूर्यदेव हीं सभी स्थावर और जंगम प्राणियों की आत्मा है।
ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । ऋग्वेद (1/115/1)
यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। पुन :
यजुर्वेद में सूर्य की विषय में कहा गया है कि -
सहस्रशीर्षा पुरुषां सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि सर्वतः स्पृत्वात्वतिष्ठत दशांगुलम् ।।
उपरोक्त श्लोक का भावार्थ कि सूर्य को समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड का आदि-कारक विराट्-पुरुष माना गया है, इसी विराट्-पुरुष को वैश्वानर की संज्ञा दी गयी है। वैश्वानर अर्थात् विराट्-पुरुष सर्वव्यापी है। त्रैलोक्य का कण-कण इससे प्रभावित है। उस वैश्वानर अर्थात् विराट्-पुरुष के विषय में कहा गया है कि उसके सहस्रों सिर (मस्तक) हैं, सहस्रों नेत्र हैं, सहस्रों हाथ-पैर हैं। वह सभी दिशाओं से प्रत्येक स्थिति में समस्त पृथ्वी-मण्डल का स्पर्श करके उससे दश अंगुल आगे स्थित हो गया है। भाव यह है कि वह विराट्-पुरुष अर्थात् वैश्वानर समस्त ब्रह्माण्ड (पृथ्वीलोक) से भी बहुत बड़ा है। वही विराट्-पुरुष अर्थात् वैश्वानर कालक्रम से, प्रसङ्गान्तर से सूर्य हुआ।
छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं।
सूर्य की स्थिति
श्रीमदभागवत पुराण में श्री शुकदेव जी के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।
"हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
सूर्य की चाल
सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।"
सूर्य का रथ
इस रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।
मानसोत्तर पर्वत
इस पर्वत के पूर्व में इन्द्र की अमरावती स्थित है। सनातनी मातानुसार अमरावती सात लोकों में से वह स्थान है जहाँ मृत्यु के पश्चात पुण्य और सत्कर्म करने वालों की आत्माएँ जाकर निवास करती हैं और यही इन्द्र का लोक या स्थान जहाँ वह निवास करते हैं।
इस पर्वत के पश्चिम में वरुण की सुखा (वरुण की पुरी का नाम) स्थित है।
इस पर्वत के उत्तर में चंद्रमा की विभावरी (चंद्रमा की तारोंवाली रात) स्थित है।
इस पर्वत के दक्षिण में यम की संयमनी (यमराज की नगरी) स्थित है।
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