श्री दुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय - रक्तबीज-वध
Shri Durga Saptashati Eighth Chapter - Raktabeej-Vadh
श्री दुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय - रक्तबीज-वध
Shri Durga Saptashati Eighth Chapter - Raktabeej-Vadh
ध्यान
मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणोंसे आवृत भवानीका ध्यान करता (करती हूँ। उनके शरीरका रंग लाल है, नेत्रोंमें करुणा लहरा रही है तथा हाथोंमें पाश, अङ्कुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं।
ऋषि कहते हैं - ॥ १ ॥ चण्ड और मुण्ड नामक दैत्योंके मारे जाने तथा बहुत-सी सेनाका संहार हो जानेपर दैत्योंके राजा प्रतापी शुम्भके मनमें बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्योंकी सम्पूर्ण सेनाको युद्धके लिये कूच करनेकी आज्ञा दी ॥ २-३ ॥ वह बोला-'आज उदायुध नामके छियासी दैत्य सेनापति अपनी सेनाओंके साथ युद्धके लिये प्रस्थान करें। कम्बु नामवाले दैत्योंके चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनीसे घिरे हुए यात्रा करें ॥ ४ ॥ पचास कोटिवीर्य-कुलके और सौ धौम्र-कुलके असुरसेनापति मेरी आज्ञासे सेनासहित कूच करें ॥ ५ ॥ कालक, दौर्हृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्धके लिये तैयार हो मेरी आज्ञासे तुरंत प्रस्थान करें ' ॥ ६ ॥ भयानक शासन करनेवाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे सहस्रों बड़ी-बड़ी सेनाओंके साथ युद्धके लिये प्रस्थित हुआ ॥ ७ ॥ उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख चण्डिकाने अपने धनुषकी टंकारसे पृथ्वी और आकाशके बीचका भाग गुँजा दिया ॥ ८ ॥ राजन् ! तदनन्तर देवीके सिंहने भी बड़े जोर-जोरसे दहाड़ना आरम्भ किया, फिर अम्बिकाने घण्टेके शब्दसे उस ध्वनिको और भी बढ़ा दिया ॥ ९ ॥ धनुषकी टंकार, सिंहकी दहाड़ और घण्टेकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं। उस भयंकर शब्दसे कालीने अपने विकराल मुखको और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुई ॥ १० ॥ उस तुमुल नादको सुनकर दैत्योंकी सेनाओंने चारों औरसे आकर चण्डिकादेवी, सिंह तथा कालीदेवीको क्रोधपूर्वक घेर लिया ॥ ११ ॥ राजन्! इसी बीचमें असुरोंके विनाश तथा देवताओंके अभ्युदयके लिये ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवोंकी शक्तियाँ, जो अत्यन्त पराक्रम और बलसे सम्पन्न थीं, उनके शरीरोंसे निकलकर उन्हींके रूपमें चण्डिकादेवीके पास गयीं॥ १२-१३ ॥ जिस देवताका जैसा रूप, जैसी वेश- भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही, साधनोंसे सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरोंसे युद्ध करनेके लिये आयी॥ १४॥ सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमण्डलुसे सुशोभित ब्रह्माजीकी शक्ति उपस्थित हुई, जिसे 'ब्रह्माणी ' कहते हैं॥ १५॥ महादेवजीकी शक्ति वृषभपर आरूढ़ हो हाथोंमें श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये महानागका कङ्कण पहने, मस्तकमें चन्द्ररेखासे विभूषित हो वहाँ आ पहुँची॥ १६॥ कार्तिकेयजीकी शक्तिरूपा जगदम्बिका उन्हींका रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूरपर आरूढ़ हो हाथमें शक्ति लिये दैत्योंसे युद्ध करनेके लिये आयीं॥ १७॥ इसी | प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति गरुड़पर विराजमान हो शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा खड्ग हाथमें लिये वहाँ आयी॥ १८॥ अनुपम यज्ञवाराहका रूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी जो शक्ति है, वह भी वाराह शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई॥ १९॥ नारसिंही शक्ति भी नृसिंहके समान शरीर धारण करके वहाँ आयी। उसकी गर्दनके बालोंके झटकेसे आकाशके तारे बिखरे पड़ते थे ॥ २० ॥ इसी प्रकार इन्द्रकी शक्ति वज्र हाथमें लिये गजराज ऐरावतपर बैठकर आयी। उसके भी सहस्र नेत्र थे । इन्द्रका जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था ॥ २१ ॥ तदनन्तर उन देव शक्तियोंसे घिरे हुए महादेवजीने चण्डिकासे कहा- 'मेरी प्रसन्नताके लिये तुम शीघ्र ही इन असुरोंका संहार करो' ॥ २२ ॥ तब देवीके शरीरसे अत्यन्त भयानक और परम उग्र चण्डिका-शक्ति प्रकट हुई, जो सैकड़ों गीदड़ियोंकी भाँति आवाज करनेवाली थी ॥ २३ ॥ उस अपराजिता देवीने धूमिल जटावाले महादेवजीसे कहा- 'भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भके पास दूत बनकर जाइये ॥ २४ ॥ और उन अत्यन्त गर्वीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनोंसे कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्धके लिये वहाँ उपस्थित हों उनको भी यह संदेश दीजिये ' - ॥ २५ ॥ 'दैत्यो! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पातालको लौट जाओ। इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य मिल जाय और देवता यज्ञभागका उपभोग करें ॥ २६ ॥ यदि बलके घमंडमें आकर तुम युद्धकी अभिलाषा रखते हो तो आओ मेरी शिवाएं ( योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांससे तृप्त हों॥ २७॥ चूँकि उस देवीने भगवान् शिवको दूतके कार्यमें नियुक्त किया था, इसलिये वह 'शिवदूती' के नामसे संसारमें विख्यात हुई ॥ २८ ॥ वे महादैत्य भी भगवान् शिवके मुँहसे देवीके वचन सुनकर क्रोधमें भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस और बढ़े ॥ २९ ॥ तदनन्तर वे दैत्य अमर्षमें भरकर पहले ही देवीके ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रोंकी वृष्टि करने लगे ॥ ३० ॥ तब | देवीने भी खेल खेलमें ही धनुषकी टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणोंद्वारा दैत्योंके चलाये हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसोंको काट डाला॥ ३१॥ फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओंको शूलके प्रहारसे विदीर्ण करने लगी और खट्वाङ्गसे उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमिमें विचरने लगी॥ ३३॥ ब्रह्माणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी उसी और अपने कमण्डलुका जल छिड़ककर शत्रुओंके ओज और पराक्रमको नष्ट कर देती थी ॥ ३३ ॥ माहेश्वरीने त्रिशूलसे तथा वैष्णवीने चक्रसे और अत्यन्त क्रोधमें भरी हुई कुमार कार्तिकेयकी शक्तिने शक्तिसे दैत्योंका संहार आरम्भ किया॥ ३४ । इन्द्रशक्तिके वज्रप्रहारसे विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य-दानव रक्तकी धारा बहाते हुए पृथ्वीपर | सो गये ॥ ३५ ॥ वाराही शक्तिने कितनोंको अपनी थूथुनकी मारसे नष्ट किया, दाढ़ोंके अग्रभागसे कितनोंकी छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्रकी चोटसे विदीर्ण होकर गिर पड़े॥ ३६॥ नारसिंही भी दूसरे दूसरे महादैत्योंको अपने नखोंसे विदीर्ण करके खाती और सिंहनादसे दिशाओं एवं आकाशको गुंजाती हुई युद्ध क्षेत्रमें विचरने लगी॥ ३७॥ कितने ही असुर शिवदूतीके प्रचण्ड अट्टहाससे अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वीपर गिर पड़े और गिरनेपर उन्हें शिवदूतीने उस समय अपना ग्रास बना लिया ॥ ३८ ॥
इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए मातृगणोंको नाना प्रकारके उपायोंसे बड़े-बड़े असुरोंका मर्दन करते देख दैत्यसैनिक भाग खड़े हुए ॥ ३९ ॥ मातृगणोंसे पीड़ित दैत्योंको युद्धसे भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोधमें भरकर युद्ध करनेके लिये आया ॥ ४० ॥ उसके शरीरसे जब रक्तकी बूँद पृथ्वीपर गिरती, तब उसीके समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वीपर पैदा हो जाता ॥४१ ॥ महासुर रक्तबीज हाथमें गदा लेकर इन्द्रशक्तिके साथ युद्ध करने लगा। तब ऐन्द्रीने अपने वज्रसे रक्तबीजको मारा ॥ ४२ ॥ वज्रसे घायल होनेपर उसके शरीरसे बहुत-सा रक्त चूने लगा और उससे उसीके समान रूप तथा पराक्रमवाले योद्धा उत्पन्न होने लगे ॥ ४३ ॥उसके शरीरसे रक्तकी जितनी बूँदें गिरीं, उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये। वे सब रक्तबीजके समान ही वीर्यवान्, बलवान् तथा पराक्रमी थे ॥ ४४ ॥ वे रक्तसे उत्पन्न होनेवाले पुरुष भी अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणोंके साथ घोर युद्ध करने लगे ॥४५ ॥पुनः वज्रके प्रहारसे जब उसका मस्तक घायल हुआ, तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये ॥४६ ॥ वैष्णवीने युद्धमें रक्तबीजपर चक्रका प्रहार किया तथा ऐन्द्रीने उस दैत्यसेनापतिको गदासे चोट पहुँचायी ॥ ४७ ॥
वैष्णवीके चक्रसे घायल होनेपर उसके शरीरसे जो रक्त बहा और उससे जो उसीके बराबर आकारवाले सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया ॥ ४८ ॥ कौमारीने शक्तिसे, वाराहीने खड्गसे और माहेश्वरीने त्रिशूलसे महादैत्य रक्तबीजको घायल किया ॥ ४९ ॥ क्रोधमें भरे हुए उस महादैत्य रक्तबीजने भी गदासे सभी मातृ-शक्तियोंपर पृथक्-पृथक् प्रहार किया ॥ ५० ॥ शक्ति और शूल आदिसे अनेक बार घायल होनेपर जो उसके शरीरसे रक्तकी धारा पृथ्वीपर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए ॥ ५१ ॥ इस प्रकार उस महादैत्यके रक्तसे प्रकट हुए असुरोंद्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। इससे उन देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥५२ ॥ देवताओंको उदास देख चण्डिकाने कालीसे शीघ्रतापूर्वक कहा— 'चामुण्डे ! तुम अपना मुख और भी फैलाओ ॥ ५३ ॥ तथा मेरे शस्त्रपातसे गिरनेवाले रक्तबिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होनेवाले महादैत्योंको तुम अपने इस उतावले मुखसे खा जाओ ॥ ५४ ॥ इस प्रकार रक्तसे उत्पन्न होनेवाले महादैत्योंका भक्षण करती हुई तुम रणमें विचरती रही। ऐसा करनेसे उस दैत्यका सारा रक्त क्षीण हो जानेपर वह स्वयं भी नष्ट हो जायगा ॥। ५५ ॥ उन भयंकर दैत्योंको जब तुम खा जाओगी, तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे।' कालीसे यों कहकर चण्डिका देवीने शूलसे रक्तबीजको मारा ॥ ५६ ॥ और कालीने अपने मुखमें उसका रक्त ले लिया। तब उसने वहाँ चण्डिकापर गदासे प्रहार किया ॥ ५७ ॥ किंतु उस गदापातने देवीको तनिक भी वेदना नहीं पहुँचायी। रक्तबीजके घायल शरीरसे बहुत-सा रक्त गिरा ॥ ५८ ॥ किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही चामुण्डाने उसे अपने मुखमें ले लिया। रक्त गिरनेसे कालीके मुखमें जो महादैत्य उत्पन्न हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीजका रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवीने रक्तबीजको, जिसका रक्त चामुण्डाने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदिसे मार डाला। राजन्! इस प्रकार शस्त्रोंके समुदायसे आहत एवं रक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वीपर गिर पड़ा। नरेश्वर ! इससे देवताओंको अनुपम हर्षकी प्राप्ति हुई ॥ ५९-६२ ॥ और मातृगण उन असुरोंके रक्तपानके मदसे उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा ॥ ६३ ॥
इस प्रकार मार्कण्डेयपुराण साणिक मन्वन्तरको कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य' रक्तबीज- 'व' नामक आठ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥
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