श्री दुर्गा सप्तशती पाठ
Shri Durga Saptashati Path
श्रीदुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय मधु- कैटभ वध
॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ - वधका प्रसङ्ग सुनाना
विनियोग
ॐ प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्तिका बीज, अग्नि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है । श्रीमहाकाली देवताकी प्रसन्नताके लिये प्रथम चरित्रके जपमें विनियोग किया जाता है।
ध्यान
भगवान् विष्णुके सो जानेपर मधु और कैटभको मारने के लिये कमलजन्मा ब्रह्माजीने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवीका मैं सेवन करता (करती ) हूँ। वे अपने दस हाथोंमें खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शङ्ख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अङ्गोंमें दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके शरीरकी कान्ति नीलमणिके समान है तथा वे दस मुख और दस पैरोंसे युक्त हैं।
चण्डीदेवीको नमस्कार है।
मार्कण्डेयजी बोले - ॥ १ ॥ सूर्यके पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्तिकी कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो ॥ २ ॥ सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती महामायाके अनुग्रहसे जिस प्रकार मन्वन्तरके स्वामी हुए, वही प्रसङ्ग सुनाता हूँ ॥ ३ ॥ पूर्वकालकी बात है, स्वारोचिष मन्वन्तरमें सुरथ नामके एक राजा थे, जो चैत्रवंशमें उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डलपर अधिकार था॥४॥ वे प्रजाका अपने औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय कोलाविध्वंसी नामके क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये ॥ ५ ॥ राजा सुरथकी दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओंके साथ संग्राम हुआ यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्यामें कम थे तो भी राजा सुरथ युद्ध उनसे परास्त हो गये ॥ ६ ॥ तब वे युद्धभूमिसे अपने नगरको लौट आये और केवल अपने देशके राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वीसे अब उनका अधिकार जाता रहा), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओंने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया ॥ ७ ॥
राजाका बल क्षीण हो चला था; इसलिये उनके दुष्ट, बलवान् एवं दुरात्मा मन्त्रियोंने वहाँ उनकी राजधानीमें भी राजकीय सेना और खजानेको हथिया लिया ॥ ८ ॥ सुरथका प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलनेके बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँसे अकेले ही एक घने जंगलमें चले गये ॥ ९ ॥ वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव [ अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर ] परम शान्तभावसे रहते थे। मुनिके बहुत-से शिष्य उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १० ॥ वहाँ जानेपर मुनिने उनका सत्कार किया और वे उन मुनिश्रेष्ठ आश्रमपर इधर-उधर विचरते हुए कुछ कालतक रहे ॥ ११ ॥ फिर ममतासे आकृष्टचित्त होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे- 'पूर्वकालमें मेरे पूर्वजोंने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो | सदा मदकी वर्षा करनेवाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओंके अधीन होकर न जाने किन भोगोंको भोगता होगा जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पानेसे सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओंका अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगोंके द्वारा सदा खर्च होते रहनेके कारण अत्यन्त | कष्टसे जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा ।' ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधाके आश्रमके निकट एक वैश्यको देखा और उससे पूछा - 'भाई तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है? तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने से दिखायी देते हो ?' राजा सुरथका यह प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्यने विनीत भावसे उन्हें प्रणाम करके कहा – ॥ १२ – १९ ॥
वैश्य बोला - ॥ २० ॥ राजन् ! मैं धनियोंके कुलमें उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है ॥ २१ ॥ मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रोंने धनके लोभसे मुझे घरसे बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रोंसे वञ्चित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओंने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर मैं वनमें चला आया हूँ । यहाँ रहकर मैं इस बातको नहीं जानता कि मेरे पुत्रोंकी, स्त्रीकी और स्वजनोंकी कुशल है या नहीं। इस समय घरमें वे कुशलसे रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है ? ॥ २२ - २४ ॥ वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं ? ॥ २५ ॥
राजाने पूछा - ॥ २६ ॥ जिन लोभी स्त्री- पुत्र आदिने धनके कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्तमें इतना स्नेहका बन्धन क्यों है ।। २७-२८ ॥
वैश्य बोला – ॥ २९॥ आप मेरे विषयमें जैसी बात कहते हैं, | वह सब ठीक है ॥ ३० ॥ किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धनके लोभमें पड़कर पिताके प्रति स्नेह, पतिके प्रति प्रेम तथा आत्मीयजनके प्रति अनुरागको तिलाञ्जलि दे मुझे घरसे निकाल दिया है, उन्हींके प्रति मेरे हृदयमें इतना स्नेह है। महामते! गुणहीन बन्धुओंके प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेममग्न हो रहा है, यह क्या है— इस बातको मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है । ३१ - ३३ ॥ उन लोगों में प्रेमका सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ ? ॥३४॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं - ॥ ३५ ॥ ब्रह्मन् ! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथा-योग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात् वैश्य और राजाने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया। ३६ – ३८ ॥
राजाने कहा - ॥ ३९ ॥ भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ ४० ॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होनेके कारण वह बात मेरे मनको बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथसे चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अङ्गोंमें मेरी ममता बनी हुई है ॥ ४१ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानीकी भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है; यह क्या है ? इधर यह वैश्य भी घरसे अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है ॥ ४२ ॥ स्वजनोंने भी इसका परित्याग कर दिया है तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुःखी हैं ॥ ४३ ॥ जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषयके लिये भी हमारे मनमें ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग ! हम दोनों समझदार हैं; तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है ? विवेकशून्य पुरुषकी भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है ।। ४४-४५ ॥
ऋषि बोले -॥ ४६ ॥ महाभाग ! विषयमार्गका ज्ञान सब जीवोंको है ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग- अलग हैं, कुछ प्राणी दिनमें नहीं देखते और दूसरे रातमें ही नहीं देखते ॥ ४८ ॥ तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रिमें भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते ॥ ४९ ॥ पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्योंकी समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियोंकी होती है ॥ ५० ॥ तथा जैसी मनुष्योंकी होती है, वैसी ही उन मृग- पक्षी आदिकी होती है । यह तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनों में समान ही हैं। समझ होनेपर भी इन पक्षियों को तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चावसे अन्नके दाने डाल रहे हैं! नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकारका बदला पानेके लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं ? यद्यपि उन सबमें समझकी कमी नहीं है, तथापि वे संसारकी स्थिति (जन्म-मरणकी परम्परा ) बनाये रखनेवाले भगवती महामायाके प्रभाव द्वारा ममतामय भँवरसे युक्त मोहके गहरे गर्त में गिराये गये हैं । इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान् विष्णुकी योगनिद्रारूपा जो महामाया हैं उन्हींसे यह जगत् मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियोंके भी चित्तको बलपूर्वक खींचकर मोहमें डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्यों को मुक्तिके लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्षकी हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरोंकी भी अधीश्वरी हैं ।। ५१–५८॥
राजाने पूछा- ॥ ५९ ॥ भगवन् ! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं ? ब्रह्मन् ! उनका आविर्भाव कैसे हुआ ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! उन देवीका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ॥ ६०-६२ ॥
ऋषि बोले - ॥ ६३ ॥ राजन्! वास्तवमें तो वे देवी नित्यस्वरूपा हीं हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हींका रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्वको व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकारसे होता है । | वह मुझसे सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोकमें उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्पके अन्तमें जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णवमें निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान् विष्णु शेषनागकी शय्या बिछाकर योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानोंके मैलसे दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ नामसे विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्माजीका वध करनेको तैयार हो गये । भगवान् विष्णुके नाभिकमलमें विराजमान प्रजापति ब्रह्माजीने जब उन दोनों भयानक असुरोंको अपने पास आया और भगवान्को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान् विष्णुको जगानेके लिये उनके नेत्रोंमें निवास करनेवाली योगनिद्राका स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्वकी अधीश्वरी, जगत्को धारण करनेवाली, संसारका पालन और संहार करनेवाली तथा तेजःस्वरूप भगवान् विष्णुकी अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवीकी भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे ॥ ६४—७१॥
ब्रह्माजीने कहा - ॥ ७२ ॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो । स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं । तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो । नित्य अक्षर प्रणवमें अकार, उकार, मकार - इन तीन मात्राओंके रूपमें तुम्हीं स्थित हो। तथा इन तीन मात्राओंके अतिरिक्त जो विन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है । जिसका विशेषरूपसे उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो । देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्डको धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हींसे इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्पके अन्तमें सबको अपना ग्रास बना लेती हो । जगन्मयी देवि! इस जगत्की उत्पत्तिके समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन - कालमें स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्तके समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो । तुम्हीं तीनों गुणोंको उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो । भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो । लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शङ्ख और धनुष धारण करनेवाली हो । बाण, भुशुण्डी और परिघ - ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं । तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो । पर और अपर - सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्- असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्थामें तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान्को भी जब तुमने निद्राके अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करनेमें यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान् शङ्करको तथा भगवान् विष्णुको भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करनेकी शक्ति किसमें है ? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावोंसे ही प्रशंसित हो । ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोहमें | डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णुको शीघ्र ही जगा दो । साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरोंको मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो ॥ ७३ - ८७ ॥
ऋषि कहते हैं — ॥८८ ॥ राजन् ! जब ब्रह्माजीने वहाँ मधु और कैटभको मारनेके उद्देश्यसे भगवान् विष्णुको जगानेके लिये तमोगुणकी अधिष्ठात्री देवी योगनिद्राकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान्के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थलसे निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीकी दृष्टिके समक्ष | खड़ी हो गयीं। योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगत्के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णवके जलमें शेषनागकी शय्यासे जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरोंको देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी थे और क्रोधसे लाल आँखें किये ब्रह्माजीको खा जानेके लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान् श्रीहरिने उठकर उन दोनोंके साथ पाँच हजार वर्षोंतक केवल बाहुयुद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बलके कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामायाने भी उन्हें मोहमें डाल रखा था; इसलिये वे भगवान् विष्णुसे कहने लगे- 'हम तुम्हारी वीरतासे संतुष्ट हैं। तुम हमलोगों से कोई वर माँगो' ।। ८९ - ९५ ॥
श्रीभगवान् बोले – ॥ ९६ ॥ यदि तुम दोनों मुझपर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथसे मारे जाओ। बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा यहाँ दूसरे किसी वरसे क्या लेना है ॥ ९७-९८॥
ऋषि कहते हैं - ॥ ९९ ॥ इस प्रकार धोखेमें आ जानेपर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत् में जल ही जल देखा, तब कमलनयन भगवान्से कहा—'जहाँ पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो - जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो' ।। १००-१०१॥ ऋषि कहते हैं - ॥ १०२ ॥ तब 'तथास्तु' कहकर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान्ने उन दोनोंके मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजीकी स्तुति करनेपर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभावका वर्णन करता हूँ, सुनो। ।। १०३-१०४ ॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें मधु- कैटभ वध' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
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