दुर्गा सप्तशती दूसरा अध्याय महिषासुर की सेना का वध
Durga Saptashati Second Chapter Killing of Mahishasura's army
दुर्गा सप्तशती दूसरा अध्याय महिषासुर की सेना का वध
॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
दुर्गा सप्तशती दूसरा अध्याय देवताओं के तेज से देवीका प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
विनियोग
ॐ मध्यम चरित्रके विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है । श्रीमहालक्ष्मीकी प्रसन्नताके लिये मध्यम चरित्रके पाठमें इसका विनियोग है।
ध्यान
मैं कमलके आसनपर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुर- मर्दिनी भगवती महालक्ष्मीका भजन करता (करती ) हूँ, जो अपने हाथोंमें अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शङ्ख, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं।
ऋषि कहते हैं - ॥ १ ॥ पूर्वकालमें देवताओं और असुरोंमें पूरे सौ वर्षोंतक घोर संग्राम हुआ था । उसमें असुरोंका स्वामी महिषासुर था और देवताओंके नायक इन्द्र थे। उस युद्धमें | देवताओंकी सेना महाबली असुरोंसे परास्त हो गयी । सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा ॥ २-३ ॥ तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजीको आगे करके उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शङ्कर और विष्णु विराजमान थे ॥ ४ ॥ देवताओंने महिषासुरके पराक्रम तथा अपनी पराजयका यथावत् वृत्तान्त उन दोनों देवेश्वरोंसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया ॥ ५ ॥ वे बोले- 'भगवन्! महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण तथा अन्य देवताओंके भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है ॥ ६ ॥ उस दुरात्मा महिषने समस्त देवताओंको स्वर्गसे निकाल दिया है। अब वे मनुष्योंकी भाँति पृथ्वीपर विचरते हैं ॥ ७ ॥ दैत्योंकी यह सारी करतूत हमने आपलोगोंसे कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरणमें आये हैं। उसके वधका कोई उपाय सोचिये ' ॥ ८ ॥
इस प्रकार देवताओंके वचन सुनकर भगवान् विष्णु और शिवने दैत्योंपर बड़ा क्रोध किया। उनकी भौंहें तन गयीं और मुँह टेढ़ा हो गया॥९॥ तब अत्यन्त कोपमें भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णुके मुखसे एक महान् तेज प्रकट हुआ । इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओंके शरीरसे भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिलकर एक हो गया ॥ १०-११ ॥ महान् तेजका वह पुञ्ज जाज्वल्यमान पर्वत-सा जान पड़ा। देवताओंने देखा, वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त हो रही थीं ॥ १२ ॥ सम्पूर्ण देवताओंके शरीरसे प्रकट हुए उस तेजकी कहीं तुलना नहीं थी । एकत्रित होनेपर वह एक नारीके रूपमें परिणत हो गया और अपने प्रकाशसे तीनों लोकोंमें व्याप्त जान पड़ा ॥ १३ ॥ भगवान् शंकरका जो तेज था, उससे उस देवीका मुख प्रकट हुआ। यमराजके तेजसे उसके सिरमें बाल निकल आये। श्रीविष्णुभगवान्के तेजसे उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं ॥ १४ ॥
चन्द्रमाके तेजसे दोनों स्तनोंका और इन्द्रके तेजसे मध्यभाग - (कटिप्रदेश - ) का प्रादुर्भाव हुआ । वरुणके तेजसे | जङ्घा और पिंडली तथा पृथ्वीके तेजसे नितम्बभाग प्रकट हुआ ॥ १५ ॥ ब्रह्माके तेजसे दोनों चरण और सूर्यके तेजसे उनकी अँगुलियाँ हुईं। वसुओंके तेजसे हाथोंकी अँगुलियाँ और कुबेरके तेजसे नासिका प्रकट हुई॥१६॥ उस देवीके दाँत प्रजापतिके तेजसे और तीनों नेत्र अग्निके तेजसे प्रकट हुए थे ॥ १७॥ उसकी भौंहें संध्याके और कान वायुके तेजसे उत्पन्न हुए थे । इसी प्रकार अन्याय देवताओंके तेजसे भी उस कल्याणमयी देवीका आविर्भाव हुआ ॥१८॥
तदनन्तर समस्त देवताओंके तेजःपुञ्जसे प्रकट हुई देवीको देखकर महिषासुरके सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए ॥ १९ ॥ पिनाकधारी भगवान् शंकरने अपने शूलसे एक शूल निकालकर उन्हें दिया; फिर भगवान् विष्णुने भी अपने चक्रसे चक्र उत्पन्न शङ्ख करके भगवतीको अर्पण किया ॥ २० ॥ वरुणने भी भेंट किया, अग्निने उन्हें शक्ति दी और वायुने धनुष तथा बाणसे भरे हुए दो तरकस प्रदान किये ॥ २१ ॥ सहस्त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रने अपने वज्रसे वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथीसे उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया ॥ २२ ॥ यमराजने कालदण्डसे दण्ड, वरुणने पाश, प्रजापतिने स्फटिकाक्षकी माला तथा ब्रह्माजीने कमण्डलु भेंट किया ॥ २३ ॥ सूर्यने देवीके समस्त रोम कूपोंमें अपनी किरणोंका तेज भर दिया। कालने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी ॥ २४ ॥ क्षीरसमुद्रने उज्ज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्ज्वल अर्धचन्द्र, सब बाहुओंके लिये केयूर, दोनों चरणों के लिये निर्मल नूपुर, गलेकी सुन्दर हँसली और सब अँगुलियों में # पहननेके लिये रत्नोंकी बनी अँगूठियाँ भी दीं। विश्वकर्माने उन्हें 5 अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया । २५ - २७ ॥ साथ ही अनेक प्रकारके अस्त्र और अभेद्य कवच दिये; इनके सिवा मस्तक और वक्ष:स्थलपर धारण करनेके लिये कभी न कुम्हलानेवाले कमलोंकी मालाएँ दीं ॥ २८ ॥ जलधिने उन्हें सुन्दर कमलका फूल भेंट किया । हिमालयने सवारीके लिये सिंह तथा भाँति- भाँतिके रत्न समर्पित किये ॥ २९ ॥ धनाध्यक्ष कुबेरने मधुसे भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषने, जो इस पृथ्वीको धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियोंसे विभूषित नागहार भेंट दिया । इसी प्रकार अन्य देवताओंने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवीका सम्मान किया। तत्पश्चात् उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वरसे गर्जना की। उनके भयंकर नादसे सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा ॥ ३०-३२ ॥ देवीका वह अत्यन्त उच्चस्वरसे किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका, आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोरकी प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्वमें हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे ॥ ३३ ॥ पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओंने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ सिंहवाहिनी भवानीसे कहा – 'देवि! तुम्हारी जय हो ' ॥ ३४ ॥ साथ ही महर्षियोंने भक्तिभावसे विनम्र होकर उनका स्तवन किया।
सम्पूर्ण त्रिलोकीको क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त | सेनाको कवच आदिसे सुसज्जित कर, हाथोंमें हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये। उस समय महिषासुरने बड़े क्रोधमें आकर कहा—'आ:! यह क्या हो रहा है ?' फिर वह सम्पूर्ण असुरोंसे घिरकर उस सिंहनादकी ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवीको देखा, जो अपनी प्रभासे तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं ॥ ३५ - ३७ ॥ उनके चरणोंके भारसे पृथ्वी दबी जा रही थी। माथेके मुकुटसे आकाशमें रेखा -सी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुषकी टङ्कारसे सातों पातालोंको क्षुब्ध किये देती थीं ॥ ३८ ॥ देवी अपनी हजारों भुजाओंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करके खड़ी थीं। तदनन्तर उनके साथ दैत्योंका युद्ध छिड़ गया ॥ ३९ ॥ नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंके सम्पूर्ण दिशाएँ उद्भासित होने लगीं । चिक्षुर नामक महान् असुर महिषासुरका सेनानायक था ॥ ४० ॥ वह देवीके साथ युद्ध करने लगा। अन्य दैत्योंकी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा। साठ हजार रथियोंके साथ आकर उदग्र नामक | महादैत्यने लोहा लिया ॥ ४१ ॥ एक करोड़ रथियोंको साथ लेकर नामक दैत्य युद्ध करने लगा। जिसके रोएँ तलवारके समान तीखे थे, वह असिलोमा नामका महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्धमें आ डटा ॥ ४२ ॥ साठ लाख रथियोंसे घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमिमें लड़ने लगा । परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार और घुड़सवारोंके अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियोंकी सेना लेकर युद्ध करने लगा । बिडाल | नामक दैत्य पाँच अरब रथियोंसे घिरकर लोहा लेने लगा। इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य रथ, हाथी और घोड़ोंकी सेना | साथ लेकर वहाँ देवीके साथ युद्ध करने लगे। स्वयं महिषासुर उस रणभूमिमें कोटि-कोटि सहस्र रथ, हाथी और घोड़ोंकी सेनासे घिरा हुआ खड़ा था। वे दैत्य देवीके साथ तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, खड्ग, परशु और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे। कुछ दैत्योंने उनपर शक्तिका प्रहार किया, कुछ लोगोंने पाश फेंके ॥ ४३ - ४८ ॥ तथा कुछ दूसरे दैत्योंने खड्गप्रहार करके देवीको मार डालनेका उद्योग किया। देवीने भी क्रोधमें भरकर खेल खेलमें ही अपने अस्त्र- शस्त्रोंकी वर्षा करके दैत्योंके वे समस्त अस्त्र-शस्त्र काट डाले । उनके मुखपर परिश्रम या थकावटका रंचमात्र भी चिह्न नहीं था, देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्योंके शरीरोंपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करती रहीं । देवीका वाहन सिंह भी क्रोधमें भरकर गर्दनके बालोंको हिलाता हुआ असुरोंकी सेनामें इस प्रकार विचरने लगा, मानो वनोंमें दावानल फैल रहा हो । रणभूमिमें दैत्योंके साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवीने जितने निःश्वास छोड़े, वे सभी तत्काल सैकड़ों-हजारों गणोंके रूपमें प्रकट हो गये और परशु, भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रोंद्वारा असुरोंका सामना करने लगे ॥४९-५३॥
देवीकी शक्तिसे बढ़े हुए वे गण असुरोंका नाश करते हुए नगाड़ा और शङ्ख आदि बाजे बजाने लगे ॥ ५४ ॥ उस संग्राम महोत्सवमें कितने ही गण मृदङ्ग बजा रहे थे। तदनन्तर देवीने त्रिशूलसे, गदासे, शक्तिकी वर्षासे और खड्ग आदिसे सैकड़ों महादैत्योंका संहार कर डाला। कितनोंको घण्टेके भयंकर नादसे मूच्छित करके मार गिराया ॥५५-५६॥ बहुतेरे दैत्योंको पाशसे बाँधकर धरतीपर घसीटा। कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवारकी मारसे दो-दो टुकड़े हो गये ॥५७॥ कितने ही गदाकी चोटसे घायल हो धरतीपर सो गये। कितने ही मूसलकी मारसे अत्यन्त आहत होकर रक्त वमन करने लगे । कुछ दैत्य शूलसे छाती फट जानेके कारण पृथ्वीपर ढेर हो गये । उस रणाङ्गणमें बाणसमूहोंकी वृष्टिसे कितने ही असुरोंकी कमर टूट गयी॥५८-५९॥ बाजकी तरह झपटनेवाले देवपीडक दैत्यगण अपने प्राणोंसे हाथ धोने लगे। किन्हींकी बाँहें छिन्न- भिन्न हो गयीं। कितनोंकी गर्दनें कट गयीं। कितने ही दैत्योंके मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। कुछ लोगोंके शरीर मध्यभागमें ही विदीर्ण हो गये। कितने ही महादैत्य जाँघें कट जानेसे पृथ्वीपर गिर पड़े । कितनोंको ही देवीने एक बाँह, एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ोंमें चीर डाला। कितने ही दैत्य मस्तक कट जानेपर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़के ही रूपमें अच्छे-अच्छे हथियार हाथमें ले देवीके साथ युद्ध | करने लगते थे। दूसरे कबन्ध युद्धके बाजोंकी लयपर नाचते थे ॥६० - ६३॥ कितने ही बिना सिरके धड़ हाथोंमें खड्ग, शक्ति और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरे दूसरे महादैत्य 'ठहरो! ठहरो!!' यह कहते हुए देवीको युद्धके लिये ललकारते थे । जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहाँकी धरती देवीके गिराये हुए रथ, हाथी, घोड़े और असुरोंकी लाशोंसे ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था ॥६४-६५॥ दैत्योंकी सेनामें हाथी, घोड़े और असुरोंके शरीरोंसे इतनी अधिक मात्रामें रक्तपात # हुआ था कि थोड़ी ही देरमें वहाँ खूनकी बड़ी-बड़ी नदियाँ बहने लगीं ॥६६॥ जगदम्बाने असुरोंकी विशाल सेनाको क्षणभरमें नष्ट कर दिया- ठीक उसी तरह, जैसे तृण और काठके भारी ढेरको आग कुछ ही क्षणोंमें भस्म कर देती है ॥६७॥और वह सिंह भी गर्दनके बालोंको हिला-हिलाकर जोर-जोरसे गर्जना करता हुआ दैत्योंके शरीरोंसे मानो उनके प्राण चुने लेता था ॥६८॥ वहाँ देवीके गणोंने भी उन महादैत्योंके साथ ऐसा युद्ध किया, जिससे आकाशमें खड़े हुए देवतागण उनपर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे ॥६९॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें 'महिषासुरकी सेनाका वध' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
***********