हनुमानबाहुक
गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक सारे कष्ट से मुक्ति दिलाती है
॥ श्रीहरिः ॥
गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक भाग 2
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँकको ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको ।
सब दिन रूरो पूरो पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको ॥१२॥
भावार्थ- सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात् अहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र -दुःखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनीकुमार की हाँक का भरोसा है ।। १२ ।।
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोकको बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरीकिसोर बन्दीछोरके नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधानकी ।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमानकी ॥१३॥
भावार्थ- जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकर भगवान्, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान जी के प्रसन्न होने से सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वर की कीर्ति ऐसी ही निर्मल है । । १३ ।।
करुनानिधान बलबुद्धि के निधान,
मोद-महिमानिधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बामदेव-रूप भूप रामके सनेही,
नाम लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीतानाथ के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधिके बिदूष हनुमान हौ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥
भावार्थ- तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्द महिमा के मन्दिर और गुण- ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो । हे हनुमान् जी! आप अपनी शक्ति से श्रीरघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधि के पण्डित हो! मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं ।।१४ ।।
मनको अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराजके समाज साज साजे हैं ।
देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर,
जुग-जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ॥
बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर
सुनि सकुचाने साधु, खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं ॥१५॥
भावार्थ- हे कपिराज ! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था, उसको आपने शरीर से करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर ! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करने वाले, संग्राम-भूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है ।। १५||
सवैया
जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँको होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥
भावार्थ- हे हनुमान जी! आप ज्ञान-शिरोमणी हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है । मैं किसी का क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं, मैं तो आपका दास हूँ । हे स्वामी आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ ।। १६ ।।
तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।
तेरे निवाजे गरीबनिवाज बिराजत बैरिनके उर साले॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके-से जाले।
बूढ भये, बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥
भावार्थ- हे वानरराज ! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबों का पालन करते-करते अब थक गये हैं ? (इसी से मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं ) । । १७।।
सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे।
तैं रन-केहरि केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवासे ॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ॥१८॥
भावार्थ- आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसों का विनाश करके लंका -जैसे विकट गढ़ को जलाया। हे संग्राम-रुपी वन के सिंह ! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला। आपने बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)। हे वानर-रुपी बाज ! बहुत-से दुष्ट-जन-रुपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ? | | १८ ||
अच्छ विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुंजर केहरि-बारो॥
राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीरदुलारो ।
पापतें सापतें ताप तिहूँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ॥१९॥
भावार्थ- हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमान जी ! आपने अशोक वाटिका को विध्वंस किया और रावण- जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की ओर देखा तक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की । आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण - सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था के सिंह हैं। विपक्षरुप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नि-तुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन-रुप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदास को सर्वदा पाप, शाप और संताप - तीनों से बचाने वाले हैं।। १९।।
घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन,
मन अनुमान बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के,
बाँह पीर महाबीर बेग ही निवारिये ॥२०॥
भावार्थ- हे हनुमान जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन में विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवा के योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबी को सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्त्रों भाँति की दुर्दशा कीजिये, किन्तु जो लड्डू देने से मरता हो उसको विष से न मारिये । हे महाबली, साहसी, पवन के दुलारे, रघुनाथजी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ा को शीघ्र दूर कीजिये।। २०।।
बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो,
दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल,
आस रावरीयै, दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो,
माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।
केसरीकिसोर रनरोर बरजोर बीर,
बाँह पीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥
भावार्थ- हे दीनबन्धु बलि जाता हूँ, बालक को देखकर आपने लड़कपन से ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की। सोचिये तो सही, तुलसी आपका दास हैं, इसको आपका भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है । अत्यन्त भयानक कलिकाल ने किसको बेचैन नहीं किया ? इस बलवान् का पैर मेरे मस्तक पर भी देखकर उसको हटाइये । हे केशरीकिशोर, बरजोर वीर! आप रण में कोलाहल उत्पन्न करने वाले हैं, राहु की माता सिंहिका के समान बाहु की पीड़ा को पछाड़कर मार डालिये ।। २१ ।।
उथपे थपनथिर थपे उथपनहार,
केसरीकुमार बल आपनो सँभारिये।
राम के गुलामनिको काम तरु रामदूत,
मोसे दीन दूबरेको तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर,
सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर,
मकरी ज्यों पकरिकै बदन बिदारिये ॥ २२ ॥
भावार्थ- हे केशरीकुमार आप उजड़े हुए (सुग्रीव- विभीषण) – को बसाने वाले और बसे हुए (रावणादि)- को उजाड़ने वाले हैं, अपने उस बल का स्मरण कीजिये। हे रामदूत ! रामचन्द्रजी के सेवकों के लिये आप कल्पवृक्ष हैं और मुझ-सरीखे दीन-दुर्बलों को आपका ही सहारा है। हे वीर ! तुलसी के माथे पर आपके समान समर्थ स्वामी विद्यमान रहते हुए भी वह बाँधकर मारा जाता है। बलि जाता हूँ, मेरी भुजा विशाल पोखरी के समान है और यह पीड़ा उसमें जलचर के सदृश है, सो आप मकरी के समान इस जलचरी को पकड़कर इसका मुख फाड़ डालिये।। २२।।
हनुमानबाहुक भाग 2 समाप्त