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हनुमानबाहुक

गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक सारे कष्ट से मुक्ति दिलाती है

श्री हनुमत् ध्यानम् * हनुमान चालीसा * संकटमोचन हनुमानाष्टक * हनुमान बाहुक * श्री बजरंग बाण पाठ * श्रीहनुमत् स्तवन * श्री एकमुखी हनुमत् कवचम् * श्री पंचमुखी हनुमान कवच * श्री एकादशमुख हनुमद् कवचम् * श्री विचित्रवीर हनुमान स्तोत्र * श्री हनुमानजी की आरती * हनुमान साठिका * श्रीरामरक्षास्तोत्रम् * श्रीरामवन्दना * श्रीराम स्तुति * श्रीरामावतार * सुन्दरकाण्ड * हनुमत् कवच * हनुमद वडवानल स्तोत्र * श्री शंत्रुजय हनुमत स्तोत्रम् - श्री हनुमल्लांगूलास्त्र * पंचमुखी हनुमान * हनुमान जी के बारह नाम जप * श्री हनुमत् द्वादशाक्षर मंत्र * हनुमान जी को सिद्ध करने का विधान * हनुमान जी के लिए दीपदान-विधि * श्री हनुमत स्तोत्र * श्री हनुमत् स्तोत्राणि * श्री हनुमान वंदना स्तोत्र * श्री हनुमान नमस्कार स्तोत्र * श्री हनुमदादिषट् कवच प्रयोग * श्रीशत्रुघ्नकवचम् * श्री हनुमान स्तुति * दसाक्षरी हनुमान मंत्र ॐ हं पवननन्दनाय स्वाहा * ऋण मोचन मंगल स्तोत्र * श्रीराम प्रोक्त हनुमत् कवचम् * श्री हनुमत् महावीर मन्त्र * सर्व कार्य सिद्धि हनुमान माला मंत्र * सर्व कामनापूरक हनुमान मंत्र * शनि ग्रह के शांति के लिए हनुमान मंत्र * तनाव निवारण के लिए हनुमान मंत्र * विद्या पाने हेतु हनुमान मंत्र * हनुमत व्यवसाय वृद्धि मंत्र * हनुमत इच्छित वर अष्टदशाक्षर मंत्र * श्री हनुमान बंधन मुक्ति मंत्र * वीर्य और ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए हनुमान मंत्र * श्री हनुमान वशीकरण मंत्र * कार्यसिद्धि के लिये हनुमान मंत्र * सर्वविघ्ननिवारण के लिये हनुमान मंत्र * सर्वदुष्टग्रहनिवारण के लिये हनुमान मंत्र * प्रेत-बाधा-निवारण के लिये हनुमान मंत्र * विष उतारने के लिये हनुमान मंत्र * शत्रु-संकट निवारण के लिये हनुमान मंत्र * महामारी, अमङ्गल, ग्रह-दोष नाश के लिये हनुमान मंत्र * वात रोग निवारण हेतु हनुमान मंत्र * प्लीहा रोग निवारक हनुमान मंत्र * उदररोग नाशक हनुमान मन्त्र * श्री हनुमत जंजीरा शाबर मंत्र * हनुमद् अभीष्ट सिद्धि शाबर उपासना मन्त्र * सर्वरोग निवारक हनुमत शाबर मंत्र * बवासीर दूर करने का शाबर हनुमान मंत्र * श्री हनुमान सिद्धि हेतु साधन एवं रीति * हनुमान चालीसा के आठ सिद्धि कौन कौन से हैं ? * श्री सीता कवच * श्री हनुमान पंचक मेवाड़ी
 
 गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक

॥ श्रीहरिः ॥

गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक भाग 3

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँकको ॥

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको ।
सब दिन रूरो पूरो पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको ॥१२॥

भावार्थ- सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात् अहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र -दुःखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनीकुमार की हाँक का भरोसा है ।। १२ ।।

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोकको बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥

केसरीकिसोर बन्दीछोरके नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधानकी ।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमानकी ॥१३॥

भावार्थ- जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकर भगवान्, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान जी के प्रसन्न होने से सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वर की कीर्ति ऐसी ही निर्मल है । । १३ ।।

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान,
मोद-महिमानिधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बामदेव-रूप भूप रामके सनेही,
नाम लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥

आपने प्रभाव सीतानाथ के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधिके बिदूष हनुमान हौ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥

भावार्थ- तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्द महिमा के मन्दिर और गुण- ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो । हे हनुमान् जी! आप अपनी शक्ति से श्रीरघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधि के पण्डित हो! मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं ।।१४ ।।

मनको अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराजके समाज साज साजे हैं ।
देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर,
जुग-जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ॥

बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर
सुनि सकुचाने साधु, खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं ॥१५॥

भावार्थ- हे कपिराज ! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था, उसको आपने शरीर से करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर ! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करने वाले, संग्राम-भूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है ।। १५||

सवैया

जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥

साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँको होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥

भावार्थ- हे हनुमान जी! आप ज्ञान-शिरोमणी हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है । मैं किसी का क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं, मैं तो आपका दास हूँ । हे स्वामी आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ ।। १६ ।।

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।
तेरे निवाजे गरीबनिवाज बिराजत बैरिनके उर साले॥

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके-से जाले।
बूढ भये, बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥

भावार्थ- हे वानरराज ! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबों का पालन करते-करते अब थक गये हैं ? (इसी से मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं ) । । १७।।

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे।
तैं रन-केहरि केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवासे ॥

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ॥१८॥

भावार्थ- आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसों का विनाश करके लंका -जैसे विकट गढ़ को जलाया। हे संग्राम-रुपी वन के सिंह ! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला। आपने बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)। हे वानर-रुपी बाज ! बहुत-से दुष्ट-जन-रुपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ? | | १८ ||

अच्छ विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुंजर केहरि-बारो॥

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीरदुलारो ।
पापतें सापतें ताप तिहूँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ॥१९॥

भावार्थ- हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमान जी ! आपने अशोक वाटिका को विध्वंस किया और रावण- जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की ओर देखा तक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की । आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण - सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था के सिंह हैं। विपक्षरुप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नि-तुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन-रुप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदास को सर्वदा पाप, शाप और संताप - तीनों से बचाने वाले हैं।। १९।।

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन,
मन अनुमान बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के,
बाँह पीर महाबीर बेग ही निवारिये ॥२०॥

भावार्थ- हे हनुमान जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन में विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवा के योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबी को सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्त्रों भाँति की दुर्दशा कीजिये, किन्तु जो लड्डू देने से मरता हो उसको विष से न मारिये । हे महाबली, साहसी, पवन के दुलारे, रघुनाथजी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ा को शीघ्र दूर कीजिये।। २०।।

बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो,
दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल,
आस रावरीयै, दास रावरो विचारिये ॥

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।
केसरीकिसोर रनरोर बरजोर बीर,
बाँह पीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥

भावार्थ- हे दीनबन्धु बलि जाता हूँ, बालक को देखकर आपने लड़कपन से ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की। सोचिये तो सही, तुलसी आपका दास हैं, इसको आपका भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है । अत्यन्त भयानक कलिकाल ने किसको बेचैन नहीं किया ? इस बलवान् का पैर मेरे मस्तक पर भी देखकर उसको हटाइये । हे केशरीकिशोर, बरजोर वीर! आप रण में कोलाहल उत्पन्न करने वाले हैं, राहु की माता सिंहिका के समान बाहु की पीड़ा को पछाड़कर मार डालिये ।। २१ ।।

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार,
केसरीकुमार बल आपनो सँभारिये।
राम के गुलामनिको काम तरु रामदूत,
मोसे दीन दूबरेको तकिया तिहारिये ॥

साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर,
सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर,
मकरी ज्यों पकरिकै बदन बिदारिये ॥ २२ ॥

भावार्थ- हे केशरीकुमार आप उजड़े हुए (सुग्रीव- विभीषण) – को बसाने वाले और बसे हुए (रावणादि)- को उजाड़ने वाले हैं, अपने उस बल का स्मरण कीजिये। हे रामदूत ! रामचन्द्रजी के सेवकों के लिये आप कल्पवृक्ष हैं और मुझ-सरीखे दीन-दुर्बलों को आपका ही सहारा है। हे वीर ! तुलसी के माथे पर आपके समान समर्थ स्वामी विद्यमान रहते हुए भी वह बाँधकर मारा जाता है। बलि जाता हूँ, मेरी भुजा विशाल पोखरी के समान है और यह पीड़ा उसमें जलचर के सदृश है, सो आप मकरी के समान इस जलचरी को पकड़कर इसका मुख फाड़ डालिये।। २२।।

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय,
राम की भगति, सोच संकट निवारिये।
मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे,
जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें,
सुथल सुबेल भालू बैठिकै विचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँहपीर क्यों न,
लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥ २३ ॥

भावार्थ- मुझमें रामचन्द्रजी के प्रति स्नेह, रामचन्द्रजी की भक्ति, राम-लक्ष्मण और जानकीजी की कृपा से साहस (दृढ़ता-पूर्वक कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत) है, अतः मेरे शोक-संकट को दूर कीजिये । आनन्दरुपी बंदर रोग-रुपी अपार समुद्र को देखकर मन में हार गये हैं, जीवरुपी जाम्बवन्त को आपका बड़ा भरोसा है। हे कृपालु ! तुलसी के सुन्दर प्रेमरुपी पर्वत से कूदिये, श्रेष्ठ स्थान (हृदय) - रुपी सुबेलपर्वत पर बैठे हुए जीवरुपी जाम्बवन्त जी सोचते (प्रतीक्षा करते हैं। हे महाबली बाँके योद्धा मेरे बाहु की पीड़ारुपिणी लंकिनी को लात की चोट से क्यों नहीं मरोड़कर मार डालते ?|| २३।।

लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत,
तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर,
तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु-बेलि,
उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥ २४ ॥

भावार्थ- लोक, परलोक और तीनों लोकों में चारों नेत्रों से देखता हूँ, आपके समान योग्य कोई नहीं दिखायी देता। हे नाथ ! कर्म, काल, लोकपाल तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवसमूह आपके ही हाथ में हैं, अपनी महिमा को विचारिये। हे देव ! तुलसी आपका निजी सेवक है, उसके हृदय में आपका निवास है और वह भारी दुःखी दिखायी देता है वात-व्याधि-जनित बाहु की पीड़ा केवाँच की लता के समान है, उसकी उत्पन्न हुई जड़ को बटोरकर वानरी खेल से उखाड़ डालिये।। २४।।

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे,
बकी बकभगिनी काहूतें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बालघातिनी न जात कहि,
बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥

आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख,
पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसीकी,
बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥ २५ ॥

भावार्थ- कर्मरुपी भयंकर कंसराजा के भरोसे बकासुर की बहिन पूतना राक्षसी क्या किसी से डरेगी ? बालकों को मारने में बड़ी भयावनी, जिसकी लीला कही नहीं जाती है, वह अपने बाहुबल से छोटे छबिमान् शिशुओं को छलेगी। आप ही विचारकर देखिये, वह सुन्दर रूप बनाकर आयी है, यदि आप-सरीखे गुणी के पाले पड़ेगी तो सभी का पाप दूर हो जायेगा। हे महाबली कपिराज तुलसी की बाहु की पीड़ा पूतना पिशाचिनी के समान है और आप बालकृष्ण-रुप हैं, यह आपके ही मारने से मरेगी। २५॥

भालकी कि कालकी कि रोषकी त्रिदोषकी है,
बेदन बिषम पाप-ताप छल छाँह की।
करमन कू की कि जन्त्र मन्त्र बूटकी,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,
बाबरी न होहि बानि जानि कपिनाँह की।
आन हनुमानकी दुहाई बलवानकी,
सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँह की ॥ २६ ॥

भावार्थ- यह कठिन पीड़ा कपाल की लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोष का या मेरे भयंकर पापों का परिणाम है, दुःख किंवा धोखे की छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्र रूपी वृक्ष का फल है; अरी मन की मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराज का स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहु की पीड़ा रहे तो महाबीर बलवान् हनुमान् जी की दोहाई और सौगन्ध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकेगी।। २६।।

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,
जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ॥

तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी,
रावन की रानी मेघनाद महतारी है।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर,
कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥

भावार्थ- सिंहिका के बल का संहार करके सुरसा के छल को सुधारकर लंकिनी को मार गिराया और अशोक-वाटिका को उजाड़ डाला । लंकापुरी कोको अच्छी तरह से जलाकर मकरी को विदिर्ण करके बारंबार राक्षसों की सेना का विनाश किया। यमराज का खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनाद की माता और रावण की पटरानी को राजमहल से बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज ! तुलसी को बड़ा सोच है, किसके संकोच में पड़कर आपने केवल मेरे बाहु की पीड़ा के भय को छोड़ रखा है । २७।।

तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर,
भूलत सरीरसुधि सक्र-रवि-राहुकी।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब,
तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहुकी ॥

साम दान भेद विधि बेदहू लबेद सिधि,
हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहु की।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है,
एते दिन रही पीर तुलसीके बाहुकी ॥२८॥

भावार्थ- हे वीर! आपके लड़कपन का खेल सुनकर धीरजवान भी भयभीत हो जाते हैं और इन्द्र, सूर्य तथा राहु अपने शरीर की सुध भुला जाती है। आपके बाहुबाल से सब लोकपाल शोकरहित होकर बसते हैं और आपका नाम लेने से किसी का दुःख नहीं रह जाता। साम, दान और भेद नीति का विधान तथा वेद-लवेद से भी सिद्ध है कि चोर-साहु की चोटी कपिनाथ के ही हाथ में रहती है। तुलसीदास के जो इतने दिन बाहु की पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है ।। २८ । ।

टूकनिको घर घर डोलत कँगाल बोलि,
बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनीकुमार बीर,
आपनो बिसारिहैं न मेरेहू भरोसो है ॥

इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु,
कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चीरीको मरन खेल बालकनिको सो है ॥२९॥

भावार्थ- हे गरीबों के पालन करने वाले कृपानिधान ! टुकड़े के लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता-फिरता था, आपने बुलाकर बालक के समान मेरा पालन- पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे, इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकों में कौन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि यह सेवक दुर्दशा सह रहा है, लड़कों के खेलवाड़ होने के समान चिड़िया की मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते हैं ।। २९ ।।

आपने ही पापतें त्रिपाततें कि सापतें,
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल,
को है जगजाल जो मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

भावार्थ- मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शाप से बाहु की पीड़ा बढ़ी है, वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक औषधि, यन्त्र-मन्त्र- टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसार का समूह - जाल कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञा को न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ा से भी अधिक पीड़ित कर रही है ।। ३० ।।

दूत राम राय को, सपूत पूत बायको,
समत्व हाथ पाय को सहाय असहायको।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिकाके धायको ॥

एते बडे साहेब समर्थको निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन कायको ।
थोरी बाँहपीरकी बड़ी गलानि तुलसी को,
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥

भावार्थ- आप राजा रामचन्द्र के दूत, पवनदेव के सत्पुत्र, हाथ-पाँव के समर्थ और निराश्रितों के सहायक हैं। आपके सुन्दर यश की कथा विख्यात है, वेद गान करते हैं और रावण-जैसा त्रिलोक-विजयी योद्धा आपके घूसे की चोट से घायल हो गया। इतने बड़े योग्य स्वामी के अनुग्रह करने पर भी आपका श्रेष्ठ सेवक आज तन-मन-वचन से दुःख पा रहा है। तुलसी को इस थोड़ी-सी बाहुपीड़ा की बड़ी ग्लानि है, मेरे कौन-से पाप के कारण वा क्रोध से आपका प्रत्यक्ष प्रभाव लुप्त हो गया है ?॥३१॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम,
रामदूतकी रजाई माथे मान लेत हैं ॥

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग,
हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्मको प्रबोध कीजे तुलसी को,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

भावार्थ- देवी, देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध और नाग आदि छोटे-बड़े जितने जड़-चेतन जीव हैं तथा पूतना, पिशाचिनी, राक्षसी - राक्षस जितने कुटिल प्राणी हैं, वे सभी रामदूत पवनकुमार की आज्ञा शिरोधार्य करके मानते हैं। भीषण यन्त्र-मन्त्र, धोखाधारी, छलबाज और दुष्ट रोगों के आक्रमण हनुमान् जी की दोहाई सुनकर स्थान छोड़ देते हैं। मेरे खोटे कर्म पर क्रोध कीजिये, तुलसी को सुखावन दीजिये और जो दोष हमें दुःख देते हैं, उनका सुधार करिये ।। ३२ ।।

तेरे बल बानर जिताये रन रावनसों,
तेरे घाले जातुधान भये घर-घरके।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज,
सकल समाज साज साजे रघुबरके ॥

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत,
सजल बिलोचन बिरंचि हरि हरके,
तुलसीके माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ,
देखिये न दास दुखी तोसो कनिगरके ॥ ३३ ॥

भावार्थ- आपके बल ने युद्ध में वानरों को रावण से जिताया और आपके ही नष्ट करने से राक्षस घर-घर के ( तीन-तेरह) हो गये आपके ही बल से राजा रामचन्द्रजी ने देवताओं का सब काम पूरा किया और आपने ही रघुनाथजी के समाज का सम्पूर्ण साज सजाया। आपके गुणों का गान सुनकर देवता रोमांचित होते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश की आँखों में जल भर आता है। हे वानरों के स्वामी ! तुलसी के माथे पर हाथ फेरिये, आप जैसे अपनी मर्यादा की लाज रखने वालों के दास कभी दुःखी नहीं देखे गये ॥३३॥

हनुमानबाहुक भाग 3 समाप्त

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गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक - Hanuman Bahuk by Goswami Tulsidas