त्रिस्पृशा एकादशी - Trisprisha Ekadashi
त्रिस्पृशा एकादशी वैष्णवी तिथि - Trisprisha Ekadashi
आलेख - साधक प्रभात (Sadhak Prabhat)
त्रिस्पृशा एकादशी व्रत का वर्णन पद्म पुराण के उत्तरखंड में है। त्रिस्पृशा एकादशी व्रत को वैष्णवी तिथि भी कहते हैं। त्रिस्पृशा एकादशी व्रत वह शुभ संयोग में होता है जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रि के अंतिम प्रहर में त्रयोदशी भी हो। यह संयोग बहुत विरले होता है और वर्षों वर्ष के उपरांत कभी कभी आता है। कार्तिक शुक्लपक्ष में सोमवार या बुधवार से युक्त त्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापों का नाश करने वाली होती है। यह तिथि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देनेवाली तथा सौ करोड़ तीर्थों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस दिन भगवान के साथ सदगुरु की पूजा करनी चाहिए। एक त्रिस्पृशा एकादशी के उपवास से एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है। इस एकादशी को रात में जागरण करनेवाला भगवान विष्णु के स्वरूप में लीन हो जाता है। यह व्रत संम्पूर्ण पाप-राशियों का शमन करनेवाला, महान दुःखों का विनाशक और सम्पूर्ण कामनाओं का दाता है। इस त्रिस्पृशा के उपवास से हजार अश्वमेघ और सौ वाजपेय यज्ञों का फल मिलता है। यह व्रत करनेवाला पुरुष पितृ कुल, मातृ कुल तथा पत्नी कुल के सहित विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इस दिन द्वादशाक्षर मंत्र अर्थात ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करना चाहिए। जिसने इसका व्रत कर लिया उसने सम्पूर्ण व्रतों का अनुष्ठान कर लिया।
पद्म पुराण के अनुसार देवर्षि नारदजी ने भगवान शिवजी से पूछा: सर्वेश्वर! आप त्रिस्पृशा नामक व्रत का वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर लोग कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं।
महादेवजी बोले: विद्वान्! देवाधिदेव भगवान ने मोक्षप्राप्ति के लिए इस व्रत की सृष्टि की है, इसीलिए इसे वैष्णवी तिथि कहते हैं। भगवान माधव ने गंगाजी के पापमुक्ति के बारे में पूछने पर बताया था, जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रि के अंतिम प्रहर में त्रयोदशी भी हो तो उसे त्रिस्पृशा समझना चाहिए। यह तिथि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देनेवाली तथा सौ करोड़ तीर्थों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दिन भगवान के साथ सदगुरु की पूजा करनी चाहिए।
मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में जब चक्रधारी श्री विष्णु के द्वारा क्षीरसागर का मंथन हो रहा था, उस समय चरणों में पड़े हुए देवताओं के मध्य में ब्रह्माजी से मैंने ही इस व्रत का वर्णन किया था। जो लोग विषयों में आसक्त रहकर भी त्रिस्पृशा का व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्ष का अधिकार दे रखा है।
नारद ! तुम इस व्रत का अनुष्ठान करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देने वाली है।
महामुने ! बड़े-बड़े मुनियों के समुदाय ने इस व्रत का पालन किया है। यदि कार्तिक शुक्लपक्ष में सोमवार या बुधवार से युक्त त्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापों का नाश करने वाली है। विप्रवर ! और पापों की तो बात ही क्या है, त्रिस्पृशा के व्रत से ब्रह्म-हत्या आदि महा पाप भी नष्ट हो जाते हैं। प्रयाग में मृत्यु होने से तथा द्वारका में श्रीकृष्ण के निकट गोमती में स्नान करने से शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु त्रिस्पृशा का उपवास करने से घर पर भी मुक्ति हो जाती है।
इसलिये विप्रवर नारद ! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृश्या के व्रत का अवश्य अनुष्ठान करो।
विप्र! पूर्वकाल में भगवान् माधव ने प्राची सरस्वती के तट पर गंगा जी के प्रति कृपा-पूर्वक त्रिस्पृशा एकादशी व्रत का वर्णन किया था।
गंगा ने पूछा-हृषीकेश ! ब्रह्महत्या आदि करोड़ों पाप-राशियों से युक्त मनुष्य मेरे जल में स्रान करते हैं, उनके पापों और दोषों से मेरा शरीर कलुषित हो गया है। देव । गरुडध्वज ! मेरा वह पातक कैसे दूर होगा?
प्राचीमाधव बोले – शुभे ! तुम त्रिस्पृशा का व्रत करो। यह सौ करोड़ तीर्थों से भी अधिक महत्त्व शालिनी है। करोड़ों यज्ञ, व्रत, दान, जप, होम और सांख्ययोग से भी इसकी शक्ति बढ़ी हुई है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों पुरुषार्थों को देने वाली है। नदियों में श्रेष्ठ गङ्गा! त्रिस्पृशा व्रत जिस किसी महीने में भी आये तथा यह शुक्लपक्ष में हो या कृष्णपक्ष में, उसका अनुष्ठान करना ही चाहिये। उसे करके तुम पाप से मुक्त हो जाओगी। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके विधि के अनुसार अर्घ्य देना चाहिये। जलयुक्त शंख के ऊपर सुन्दर नारियल रखकर उसमें रक्षासूत्र लपेट दे। फिर दोनों हाथों में वह शंख आदि लेकर निम्नाकिंत मन्त्र पढ़े-
स्मृतों हरसि पापानि यदि नित्यं जनार्दन ॥
दुःस्वपनं दुर्निमित्तानि मनसा दुर्विच्चिन्तितम् ।
नारकं तु भयं देव भयं दुर्गति संभवम् ॥
यन्मम स्यान्महादेव ऐहिकं पारलौकिकं ।
तेन देवेश मां रक्ष गृहाणारघ्य नमोऽस्तु ते ॥
सदा भक्तिमर्मेवास्तु दामोदर तवोपरि । (३५॥। ६९-७२)
जनार्दन ! यदि आप सदा स्मरण करने पर मनुष्य के सब पाप हर लेते हैं तो देव! मेरे दुःस्वप्न, अपशकुन, मानसिक दुश्चिन्ता, नारकीय भय तथा दुर्गतिजन्य त्रास हर लीजिये। महादेव ! देवेश्वर ! मेरे लिये इहलोक तथा परलोक में जो भय हैं, उनसे मेरी रक्षा कीजिये तथा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है। दामोदर! सदा आपमें ही मेरी भक्ति बनी रहे।
तत्पश्चात धुप, दीप, और नैवेद्ध अर्पण करके भगवान् की आरती उतारे। उनके मस्तक पर शंख घुमाये। यह सब विधान पूरा करके सदगुरु की पूजा करे। उन्हें सुन्दर वस्त्र, पगड़ी तथा अंगा दे। साथ ही जूता, छत्र, अँगूठी, कमण्डलु, भोजन, पान, सप्नधान्य तथा दक्षिणा दे। गुरु और भगवान् की पूजा के पश्चात् श्रीहरि के समीप जागरण करें। जागरण में गीत, नृत्य तथा अन्यान्य उपचारों का भी समावेश रहना चाहिये। तदनन्तर रात्रि के अन्त में विधिपूर्वक भगवान् कों अर्ध्य दे स्नान आदि कार्य करके ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात् स्वयं भोजन करे।
महादेव जी कहते हैं - ब्रहमन। त्रिस्पृशा व्रत का यह अद्रभुत उपाख्यान सुनकर मनुष्य गंगा तीर्थ में स्नान करने का पुण्य-फल प्राप्त करता है। त्रिस्पृशा के उपवास से हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञों का फल मिलता है। यह व्रत करने वाला पुरुष पितृकुल, मातृकुल तथा पत्नी कुल के सहित विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता हैं।
त्रिस्पृशा का अर्थ –
जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रि के अन्तिम पहर में त्रयोदशों भी हो तो, उसे त्रिस्पृशा समझना चाहिये। उसमें दशमी का योग नहीं होता। देवनदी ! एकादशी व्रत में दशमी-वेध का दोष, मैं नहीं क्षमा करता। ऐसा जानकर दशमी-युक्त एकादशी का व्रत नहीं करना चाहिये। उसे करने से करोड़ों जन्मों के किये हुए पुण्य तथा संतान का नाश होता है। वह पुरुष अपने वंश को स्वर्ग से गिराता और रौरव आदि नरकों में पहुँचाता है। अपने शरीर को शुद्ध करके मेरे दिन, एकादशी का व्रत करना चाहिये। द्वादशी मुझे अत्यन्त प्रिय है, मेरी आज्ञा से इसका व्रत करना उचित है।
गंगा बोली – जगन्नाथ! आपके कहने से मैं त्रिस्पर्शा का व्रत अवश्य करूँगी, आप मुझे इसकी विधि बताइये। -
त्रिस्पर्शा एकादशी व्रत की विधि -
प्राचीमाधव ने कहा - सरिताओं में उत्तम गंगा देवी! सुनो, मैं त्रिस्पर्शा का विधान बताता हूँ। इसका श्रवण पात्र करने से भी मनुष्य पातकों से मुक्त हो जाता है। अपने वैभव के अनुसार एक या आधे पल सोने की मेरी प्रतिमा बनवानी चाहिये। इसके बाद एक ताँबे के पात्र को तिल से भरकर रखे और जल से भरे हुए सुन्दर कलश को स्थापना करे, जिसमें पंचरत्न मिलाये गये हों। कलश को फूलों की मालाओं से आवेष्टित करके कपूर आदि से सुबासित करें। इसके बाद भगवान् दामोदर को स्थापित करके उन्हें स्नान कराये और चन्दन चढ़ाये। फिर भगवान् को वस्त्र धारण कराये। तदनन्तर पुराणोक्त सामयिक सुन्दर पुष्प तथा कोमल तुलसीदल से भगवान् की पूजा करे। उन्हें छत्र और उपानह (जूतियाँ) अर्पण करे! मनोहर नैवेद्ध और बहुत से सुन्दर-सुन्दर फलों का भोग लगाये। यज्ञोपवीत तथा नूतन एवं सुदृढ उत्तरीय वस्त्र चढ़ाये। सुन्दर ऊँची बाँस की छड़ी भी भेंट करे। दामोदराय नमः कहकर दोनों चरणों की, माधवाय नमः से दोनों घुटनों की, कामप्रदाय नमः से गुदाभाग की तथा, बामनपूर्तये नमः कहकर कटि की पूजा करें। पद्मनाभाय नमः से नाभि की, विश्वमूर्तये नमः से पेट की, ज्ञानगम्याय नमः से हृदय की, वैकुण्ठगामिने नमः से कंठ की, सहस्त्रबाहवे नमः से बाहुओं की, योगरूपिणे नमः, से नेत्रों की। सहस्त्रशीषणे नमः से सिर की, तथा माधवाय नमः कहकर सम्पूर्ण अंगो की पूजा करनी चाहिए। करोड़ों तीर्थों में जो पुण्य तथा करोड़ों क्षेत्रो मे जो फल मिलता है, वह त्रिस्पृशा के उपवास से मनुष्य प्राप्त कर लेता है। द्विजश्रेष्ठ ! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अन्य जाति के लोग भगवान् श्रीकृष्ण में मन लगाकर इस व्रत कों करते हैं, वे सब इस धराधाम को छोड़ने पर मुक्त हो जाते हैं। इसमें द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करना चाहिये। यह मंत्रो में मन्त्रराज माना गया है। इसी प्रकार त्रिस्पृशा सब व्रतों में उत्तम बतायी गयी है। जिसने इसका व्रत किया, उसने सम्पूर्ण व्रतों का अनुष्ठान कर लिया। पूर्वकाल में स्वयं ब्रह्माजी ने इस व्रत को किया था, तदनन्तर अनेकों ऋषियों ने भी इसका अनुष्ठान किया; फिर दुसरो की तो बात ही क्या है। नारद ! यह त्रिस्पृशा एकादशी मोक्ष देने वाली है।