सप्तश्लोकी गीता हिंदी अर्थ सहित
सप्तश्लोकी गीता
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् ॥ १ ॥ (गीता अध्याय 8 श्लोक 13)
जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा (ईश्वर का) स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।। (गीता अध्याय 8 श्लोक 13)
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ॥ २ ॥ (गीता अध्याय 11 श्लोक 36 )
अर्जुन ने कहा -- यह योग्य ही है कि आपके कीर्तन (ईश्वर) से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है क्योंकि ईश्वर सबका आत्मा और सब भूतोंका सुहृद् है। भयभीत राक्षस लोग समस्त दिशाओं में भागते हैं और समस्त सिद्धगणों के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।। (गीता अध्याय 11 श्लोक 36 )
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥ ३ ॥ (गीता अध्याय 13 श्लोक 14 )
वह सब ओर हाथ-पैर वाला है और सब ओर से नेत्र, शिर और मुखवाला तथा सब ओर से श्रोत्रवाला है; वह जगत् में सबको व्याप्त करके स्थित है।।(गीता अध्याय 13 श्लोक 14)
कविं पुराणमनुशासितार
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥ ४ ॥ (गीता अध्याय 8 श्लोक 9)
जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है।।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ५ ॥(गीता अध्याय 15 श्लोक 1)
श्रीभगवान् बोले -- ऊपरकी ओर मूलवाले तथा नीचेकी ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्षको जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।(गीता अध्याय 15 श्लोक 1)
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥६ ॥(गीता अध्याय 15 श्लोक 15)
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।(गीता अध्याय 15 श्लोक 15)
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥७॥(गीता अध्याय 9 श्लोक 34)
(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।। (गीता अध्याय 9 श्लोक 34)
॥ सप्तश्लोकी गीता सम्पूर्णा ॥
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