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तुलसीविवाह व्रत की विधि एवं महिमा

Method and glory of Tulsi Vivah Vrat

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Tulsi Vivah Paddhati

॥ श्रीहरिः ॥

तुलसीविवाह व्रत की विधि एवं महिमा

Method and glory of Tulsi Vivah

कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी जिस दिन भगवान् विष्णु चार मास के निद्रा के बाद उठते हैं उस दिन को देवउठनी (देवोत्थान)एकादशी कहते हैं और इसी पावन दिन को भगवान शालीग्राम और माता तुलसी का विवाह किया जाता है जिसे हम तुलसी विवाह के नाम से जानते हैं। इसी दिन भीष्म पंचक एकादशी के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन का बहुत अधिक महत्व होता है। आषाढ़ मास देवशयनी एकादशी से कार्तिक मास तक के समय को चातुर्मास कहा गया हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं, जिस कारण कृषि के अलावा समस्त शुभ कार्य जैसे शादी-व्याह, व्रत, नए घर में प्रवेश जैसे समस्त मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाता है। किन्तु देवउठनी एकादशी से भगवान के जागने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है एवं मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान शयन कर उठते हैं। भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है।

तुलसी विवाह महिमा -

स्कन्द पुराण में ब्रह्माजी कहते हैं कि - कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युगका प्रारम्भ हुआ है। अत: वह तिथि दान और उपवास में क्रमशः पूर्वाह्वव्यापिनी तथा पराह्नव्यापिनी हो तो ग्राह्य है। इसी तिथि को (नवमी से एकादशी तक) मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान का फल होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी का वैवाहिक विधि सम्पन्न की। इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गयी।

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा गया है कि एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी यानि देवोत्थान एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेघ यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों के बराबर फल मिलता है। इस परम पुण्य प्रदायक एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप नष्ट और भस्म हो जाते हैं, इस एकादशी के दिन जो भी भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं, वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है।

पौराणिक मत है कि भगवान शालीग्राम और माता तुलसी का विवाह करने से वैवाहिक जीवन सुखमय हो जाता है। इस दिन तुलसी जी और भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह करने से कन्यादान के तुल्य फल की प्राप्ति होती है।

तुलसी विवाह की कथा

एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।

दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहाँ से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।

भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु माँ ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहाँ से अंतर्ध्यान हो गईं। देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत आवश्यक था।

इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुँचे, जहाँ वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा। ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्छित हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।

भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का तनिक भी आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।

इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को ह्रदयहीन शिला होने का श्राप दे दिया। अपने भक्त के श्राप को भगवान विष्णु ने स्वीकार किया और शालिग्राम पत्थर बन गये। सृष्टि के पालनकर्ता के पत्थर बन जाने से ब्रह्माण्ड में असंतुलन की स्थिति हो गई। यह देखकर सभी देवी देवताओ ने वृंदा से प्रार्थना की वह भगवान् विष्णु को श्राप मुक्त कर दे।

वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप मुक्त कर स्वयं आत्मदाह कर लिया। जहाँ वृंदा भस्म हुईं, वहाँ तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा: हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा।

तब से हर साल कार्तिक महीने के देव-उठावनी एकादशी का दिन तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है। जिस घर में तुलसी होती हैं, वहाँ यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

तुलसी विवाह मुहूर्त -

कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि 22 नवंबर को रात 11.03 बजे से शुरू हो रही है। इसका समापन 23 नवंबर की रात 09.01 बजे होगा। एकादशी तिथि पर रात्रि पूजा का मुहूर्त शाम 05.25 से रात 08.46 तक है। आप चाहें तो इस मुहूर्त में तुलसी विवाह संपन्न करा सकते हैं।

तुलसी विवाह में प्रयोग होने वाली सामग्री-

तुलसी विवाह के लिए पारंपरिक तौर पर मंडप सजाना चाहिए। गन्ने का प्रयोग करके तुलसी विवाह के लिए मंडप सजाएं। तुलसी विवाह में लाल चुनरी का प्रयोग होना चाहिए। तुलसी विवाह में सुहाग की सारी सामग्री के साथ लाल चुनरी जरूर चढ़ाएं।

तुलसी विवाह की सरल विधि:

तुलसी विवाह हमेशा शुभ मुहूर्त में करना चाहिए। जिन लोगों को तुलसी जी का कन्यादान करना है उन्हें व्रत रखना चाहिए।

तुलसी के पौधे को आंगन में या फिर घर की छत पर एक चौकी पर स्थापित करें साथ हीं अब एक दूसरी चौकी पर शामिग्राम जी को स्थापित करें। अगर शामिग्राम जी उपलब्ध नहीं हैं तो केला के पेड़ और तुलसी के पेड़ का विवाह करते हैं।

चौकी पर अष्टदल कमल बनाकर उस पर कलश की स्थापना करें। कलश में जल भरें। कलश पर पांच आम के पत्ते रखें और उस पर एक लाल कपड़े में नारियल लपेटकर रख दें।

तुलसी के गमले पर गेरू लगाएं साथ ही जमीन पर रंगोली भी बनाएं। तुलसी जी की चौकी को शालिग्राम जी की चौकी के बाएं तरफ रखें।

अब घी का दीपक जलाएं। तुलसी और शालिग्राम जी पर गंगाजल से छिड़काव करें। रोली का टीका तुलसी को लगाएं और चंदन का शालिग्राम जी को। उस समय भगवान विष्णु का इस प्रकार आवाहन करे-

आगच्छ भगवन् देव अर्चयिष्यामि केशव।
तुभ्यं दास्यामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव ॥

भगवान् केशव ! आइये, देव! मैं आपकी पूजा करूँगा। आपकी सेवामें तुलसीको समर्पित करूँगा। आप मेरे सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करें।

तुलसी के गमले की मिट्टी पर अब एक मंडप बनाएं। तुलसी जी को लाल चुनरी पहनाएं। साथ ही गमले को साड़ी लपेटकर तुलसी को चूड़ी पहनाएं। शालिग्राम जी को पीला वस्त्र अर्पित करें। तुलसी और शालिग्राम जी को हल्दी का लेप लगाएं और मंडप पर भी हल्दी लगाएं। धप, दीप, फल, फूल इत्यादि चीजों से पूजा शुरू करें।

शालिग्राम जी को पंचामृत से स्नान कराएं। अब तीन-तीन बार अर्घ्य, पाद्य और विष्टर (पचीस कुशाओं से बना हुआ एक आसन) का उच्चारण करके इन्हें बारी-बारी से भगवान्‌ को समर्पित करे। फिर आचमनीय पद का तीन बार उच्चारण करके भगवान्‌ को आचमन करावे। इसके बाद कांस्यके पात्र में दही, घी और मधु रखकर उसे कांस्य के पात्रसे ही ढक दे। भगवान्‌ को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहे- 'वासुदेव! आपको नमस्कार है, यह मधुपर्क ग्रहण कीजिये।

तदनन्तर हरिद्रालेपन और अभ्यङ्ग-कार्य सम्पन्न करके गोधूलि की बेला में तुलसी और श्रीविष्णु का पूजन पृथक् पृथक् करना चाहिये। दोनों को एक-दूसरेके सम्मुख रखकर मङ्गल-पाठ करें।

तुलसी पूजन मंत्र-

तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।
धर्म्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।
लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत्।
तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।

जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखायी देते हों, तब कन्यादान का सङ्कल्प करे। अपने गोत्र और प्रवरका उच्चारण करके आदिकी तीन पीढ़ियोंका भी आवर्तन करे। तत्पश्चात् भगवान्से इस प्रकार कहे-

अनादिमध्यनिधन त्रैलोक्यप्रतिपालक।
इमां गृहाण तुलसी विवाहविधिनेश्वर॥
पार्वतीबीजसम्भूतां वृन्दाभस्मनि संस्थिताम्।
अनादिमध्यनिधनां वल्लभां ते ददाम्यहम् ॥
पयोघटैश्श सेवाभिः कन्यावद्वद्धिता मया।
त्वत्प्रियां तुलसीं तुभ्यं ददामि त्वं गृहाण भोः॥

आदि, मध्य और अन्तसे रहित त्रिभुवनप्रतिपालक परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्तसे शून्य है। आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ करके अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको ही दे रहा हूँ। प्रभो। आप इसे ग्रहण करें।

इस प्रकार तुलसीका दान करके फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) की पूजा करे। शालिग्राम जी को हाथ में लेकर तुलसी जी की सात बार परिक्रमा करें। इस बात का ध्यान रखें कि शालिग्राम जी को घर का कोई पुरुष ही अपनी गोद में उठाएं । विवाह के दौरान मंगल गीत भी गाते रहें। विवाहका उत्सव मनाये। सबेरा होनेपर पुनः तुलसी और विष्णुका पूजन करे। अग्नि की स्थापना करके उसमें द्वादशाक्षर मन्त्र से खीर, घी, मधु और तिलमिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ आहुति दे। फिर 'स्विष्टकृत्' होम ( मिष्ठान की इस आहुति को "स्विष्टकृत" होम कहते हैं।) करके पूर्णाहुति दे। आचार्य की पूजा करके होम की शेष विधि पूरी करे। उसके बाद भगवान इस प्रकार प्रार्थना करे- 'देव! प्रभो !! आपकी प्रसन्नताके लिये मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन! इसमें जो न्यूनता हो, वह आपके प्रसादसे पूर्णताको प्राप्त हो जाय।

यदि द्वादशी में रेवती का चौथा चरण बौत रहा हो तो उस समय पारण न करे। जो उस समय भी पारण करता है, वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है। भोजन के पश्चात् तुलसी के स्वतः गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन के अन्त में ऊख, आँवला और बेर का फल खा लेने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

तदनन्तर भगवान्‌ का विसर्जन करते हुए कहे- 'भगवन्! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदा सन्तुष्ट रहें।' इस प्रकार देवेश्वर विष्णु का विसर्जन करके मूर्ति आदि सब सामग्री आचार्य को अर्पण करे। इससे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।

अंत में तुलसी जी की आरती करें और खीर पूड़ी का भोग लगाएं।

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