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पद्म पुराण

Padma Purana

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पद्म पुराण क्या है? - परिचय

पद्म पुराण कई संस्करणों में मौजूद है एवं इसका रचनाकाल तीसरी से चौथी शताब्दी अनुमानित है तथा पंद्रहवीं शताब्दी में इसका पुनर्लेखन किया गया प्रतीत होता है, कारण इसमें विजयनगर साम्राज्य का वर्णन है। मुख्य तौर पर पुरबी क्षेत्र एवं पश्चिमी क्षेत्र के संस्करण है। पुरबी क्षेत्र में बंगाल क्षेत्र में पाए जाने वाले बंग्ला पांडुलिपियों में पद्म पुराण के पाँच खंड और एक परिशिष्ट है, लेकिन यह अप्रकाशित है और इसका अनुवाद भी दूसरे भाषाओं में नहीं किया गया है। जबकि यह बंगाल संस्करण सबसे पुराना है।

बंगाल संस्करण इस बात में उल्लेखनीय है कि सृष्टि खंड में धर्म-शास्त्र पर इसमें 39 अध्याय हैं जो अन्य सभी संस्करणों में गायब हैं। पद्म पुराण का दूसरा प्रमुख पांडुलिपी भारत के पश्चिमी क्षेत्र में पाया गया, जिसमें सात खंड हैं । इसके कई संस्करण प्रकाशित हैं एवं इन्हीं का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है। परन्तु 'नारद पुराण' में भी जो खण्ड सूची है, उसमें पांच ही खण्ड दिए गए हैं। उसमें ब्रह्म खण्ड और क्रियायोग सागर खण्ड का उल्लेख नहीं है। प्राय: पांच खण्डों का विवेचन ही पुराण सम्बन्धी धार्मिक पुस्तकों में प्राप्त होता है। पद्म पुराण के खंडों के लिखावट से लगता है कि इसके भाग अलग अलग समयों में लिखा गया है। पद्म पुराण में वर्णित राम एवं सीता की कथा वाल्मिकी रामायण में वर्णित कथा से अलग है

 
 पद्म पुराण

पुराणों की विवेचना में 'ब्रह्म पुराण' को हरि का मस्तक और 'पद्म पुराण' उनका हृदय माना गया है। 'विष्णु पुराण' दाईं भुजा, 'शिव पुराण' बाईं भुजा, 'श्रीमद् भागवत पुराण' दो आँखेंं, 'नारद पुराण' नाभि, 'मार्कण्डेय पुराण' दायां चरण, 'अग्नि पुराण' बायां चरण, 'भविष्य पुराण' दायां घुटना, 'ब्रह्म वैवर्त पुराण' बायां घुटना, 'लिंग पुराण' दायां टखना, 'वराह पुराण' बायां टखना, 'स्कन्द पुराण' शरीर के रोएं, 'वामन पुराण' त्वचा, 'कूर्म पुराण' पीठ, 'मत्स्य पुराण' मेदा, 'गरुड़ पुराण' मज्जा और 'ब्रह्माण्ड पुराण' उनकी अस्थियां हैं।
पद्म पुराण को विष्णु की उपासना के कारण 'सात्विक' माना गया है तो ब्रह्मा की उपासना करने वाले पुराणों को 'राजस' श्रेणी में रखा गया हैं इसके अलावा शिवोपासना से सम्बन्धित पुराणों को 'तामस' श्रेणी का माना गया है|
पद्म पुराण को सभी अठारह पुराणों की गणना के क्रम में द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी यह द्वितीय स्थान पर है। पहला स्थान स्कन्द पुराण को प्राप्त है। पद्म पुराण जो चौखंबा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है उसमें कुल 7 खंड है, कुल अध्याय 697 है। कुल श्लोक 50,143 है। अलग-अलग प्रकाशक ने पद्मपुराण के खंडों के अलग-अलग नाम दिया है। जैसे आनंद आश्रम संस्करण में स्वर्ग खंड का नाम आदि खंड है तथा तथा खंडू के क्रम में भी आगे पीछे किया गया है।

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित 'पद्म पुराण' वैष्णव पुराण है। पदम का अर्थ है-'कमल का पुष्प'। चूंकि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पदम पुराण की संज्ञा दी गई है। इस पुराण में नन्दी धेनु उपाख्यान, बलि-वामन आख्यान, तुलाधार की कथा आदि द्वारा सत्य की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। तुलाधार कथा से पतिव्रत धर्म की शक्ति का पता चलता है। इन उपाख्यानों द्वारा पुराणकार ने यही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सत्य का पालन करते हुए सादा जीवन जीना सभी कर्मकाण्डों और धार्मिक अनुष्ठानों से बढ़कर है। सदाचारियों को ही 'देवता' और दुराचारियों तथा पाश्विक वृत्तियां धारण करने वाले को 'राक्षस' कहा जाता है। पूजा जाति की नहीं, गुणों की होनी चाहिए। धर्म विरोधी प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए प्रभु कीर्तन बहुत सहायक होता है।

पद्मपुराण के कुल सात खण्डों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

1.सृष्टि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में पुलस्त्य से पूछा है। पुलस्त्य और भीष्म के संवाद में ब्रह्मा के द्वारा रचित सृष्टि के विषय में बताते हुए शंकर के विवाह आदि की भी चर्चा की है। सृष्टि खण्ड में बयासी अध्याय हैं। यह पांच उपखण्डों- पौष्कर खण्ड, तीर्थ खण्ड, पर्व खण्ड, वंशानुकीर्तन खण्ड तथा मोक्ष खण्ड में विभाजित है। इसमें मनुष्यों की सात प्रकार की सृष्टि रचना का विवरण है। साथ ही सावित्री सत्यवान उपाख्यान, पुष्कर आदि तीर्थों का वर्णन और प्रभंजन, धर्ममूर्ति, नरकासुर, कार्तिकेय आदि की कथाएं हैं। इसमें पितरों का श्राद्धकर्म, पर्वतों, द्वीपों, सप्त सागरों आदि का वर्णन भी प्राप्त होता है। आदित्य शयन और रोहिण चन्द्र शयन व्रत को अत्यन्त पुण्यशाली, मंगलकारी और सुख-सौभाग्य का सूचक बताया गया है। तीर्थ माहात्म्य के प्रसंग में यह खण्ड इस बात की सूचना देता है कि किसी भी शुक्ल पक्ष में मंगलवार के दिन या चतुर्थी तिथि को जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करता है, वह कभी प्रेत योनि में नहीं पड़ता। श्रीरामचन्द्र जी ने अपने पिता का श्राद्ध पुष्कर तीर्थ में जाकर किये थे, इसका वर्णन भी प्राप्त होता है। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग की पूजा का उल्लेख भी इसमें मिलता है। कार्तिकेय द्वारा तारकासुर के वध की कथा भी इसमें प्राप्त होती है।
इस खण्ड में बताया गया है कि एकादशी के दिन आंवले के जल से स्नान करने पर ऐश्वर्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आवंले की महिमा का बखान करने के उपरान्त तुलसी की महिमा का भी वर्णन है। तुलसी का पौधा घर में रहने से भूत-प्रेत, रोग आदि कभी प्रवेश नहीं करते। इसमें व्यास जी गंगाजल के एक मूलमन्त्र का भी वर्णन करते हैं। उनके मतानुसार जो व्यक्ति निम्रवत् मन्त्र का एक बार जप करके गंगाजल से स्नान करता है, वह भगवान विष्णु के चरणों का संयोग प्राप्त कर लेता है।
मन्त्र इस प्रकार है, जो सृष्टि खण्ड के गंगा माहात्म्य-45 में वर्णित है-

ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:।


अर्थात् विश्व रूप वाली साक्षात् नारायण स्वरूप भगवती गंगा के लिए मेरा बारम्बार प्रणाम है।
गंगा की स्तुति के बाद श्रीगणेश और सूर्य की स्तुति की गई है तथा संक्रान्ति काल के पुण्य फल का उल्लेख किया गया है।

2.भूमि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म और पुलस्त्य के संवाद में कश्यप और अदिति की संतान, परम्परा सृष्टि, सृष्टि के प्रकार तथा अन्य कुछ कथाएं संकलित है। भूमि खण्ड में अनेक आख्यान हैं। ब्रह्मचर्य, दान, मानव धर्म आदि का वर्णन इस खण्ड में है। जैन धर्म का विवेचन भी इसमें है। भूमि खण्ड के प्रारम्भ में शिव शर्मा ब्राह्मण द्वारा पितृ भक्ति और वैष्णव भक्ति की सुन्दर गाथा प्रस्तुत की गई है। इसके उपरान्त सोम शर्मा द्वारा भगवान विष्णु की भावना युक्त स्तुति है। इसके बाद वेन पुत्र राजा पृथु के जन्म एवं चरित्र, गन्धर्व कुमार सुशंख द्वारा मृत्यु अथवा यम कन्या सुनीया को शाप, अंग की तपस्या, वेन द्वारा विष्णु की उपासना और पृथु के आविर्भाव की कथा का पुन: आवर्तन, विष्णु द्वारा दान काल के भेदों का वेन को उपदेश, सुकाला की कथा, शूकर-शूकरी की उपाख्यान, पिप्पल की पितृ तीर्थ प्रसंग में तपस्या, सुकर्मा की पितृ भक्ति, भगवान शिव की महिमा और भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला स्तोत्र आदि का उल्लेख प्राप्त होता है।
ययाति की जरावस्था, कामकन्या से भेंट तथा पुत्र पुरू द्वारा यौवन दान की प्रसिद्ध कथा भी इस खण्ड में दी गई है। अन्त में गुरु तीर्थ के प्रसंग में महर्षि च्यवन की कथा, कुंजल पक्षी द्वारा अपने पुत्र उज्ज्वल को ज्ञानव्रत और स्तोत्र का उपदेश आदि का वर्णन भी इस खण्ड में मिलता हे। साथ ही 'शरीरोत्पत्तिह' का भी सुन्दर विवेचन इस खण्ड में किया गया है।

3.स्वर्ग खण्ड: स्वर्ग खण्ड में स्वर्ग की चर्चा है। मनुष्य के ज्ञान और भारत के तीर्थों का उल्लेख करते हुए तत्वज्ञान की शिक्षा दी गई है। स्वर्ग खण्ड में बासठ अध्याय हैं। इसमें पुष्कर तीर्थ एवं नर्मदा के तट-तीर्थों का बड़ा ही मनोहारी और पुण्य देने वाला वर्णन है। साथ ही शकुन्तला-दुष्यन्त उपाख्यान, ग्रह-नक्षत्र, नारायण, दिवोदास, हरिश्चन्द्र, मांधाता आदि के चरित्रों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन यहाँ प्राप्त होता है। खण्ड के प्रारम्भ में भारतवर्ष के वर्णन में कुल सात पर्वतों, एक सौ बाईस नदियों, उत्तर भारत के एक सौ पैंतीस तथा दक्षिण भारत के इक्यावन जनपदों और मलेच्छ राजाओं का भी इसमें वर्णन है। इसी सन्दर्भ में बीस बलिष्ठ राजाओं की सूची भी दी गई है। साथ ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का भी सुन्दर विवेचन है।
विविध तीर्थों के अन्तर्गत में नागराज तक्षक की जन्मभूमि विताता (कश्मीर) बताया गया है। इसी खण्ड में 'एकादशी व्रत' का माहात्म्य भी बताया गया है। कहा गया है कि जितने भी अन्य व्रतोपवास हैं, उन सब में एकादशी व्रत सबसे उत्तम है। इस उपवास से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होकर वरदान देते हैं।

4. ब्रह्म खण्ड: इइस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय, धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।

5.पाताल खण्ड:पाताल खण्ड में रावण विजय के उपरान्त राम कथा का वर्णन है। श्रीकृष्ण की महिमा, कृष्ण तीर्थ, नारद का स्त्री रूप आख्यान्, रावण तथा अन्य राक्षसों का वर्णन, बारह महीनों के पर्व और माहात्म्य तथा भूगोल सम्बन्धी सामग्री भी इस खण्ड में उपलब्ध होती है। वस्तुत: इस खण्ड में भगवान विष्णु के 'रामावतार' और 'कृष्णावतार' की लीलाओं का ही वर्णन प्राप्त होता है।

6.उत्तर खण्ड:उत्तर खण्ड में जलंधर राक्षस और पतिव्रता स्त्री तुलसी वृन्दा की कथा तथा अनेक देवों एवं तीर्थों के माहात्म्स का वर्णन है। इस खण्ड का प्रारम्भ नारद-महादेव के मध्य बद्रिकाश्रम एवं नारायण की महिमा के संवाद के साथ होता है। इसके पश्चात् गंगावतरण की कथा, हरिद्वार का माहात्म्य; प्रयाग, काशी एवं गया आदि तीर्थों का वर्णन है।

7.क्रियायोगसार खण्ड: क्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।

पदम-पुराण का आरंभ

पदम-पुराण के विषय में कहा गया है कि यह पुराण अत्यन्त पुण्य-दायक और पापों का विनाशक है। सबसे पहले इस पुराण को ब्रह्मा ने पुलस्त्य को सुनाया और तब इस पदम पुराण को पुलस्त्य ने भीष्म को सुनाया| पद्म-पुराण सृष्टि की उत्पत्ति अर्थात् ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना के विषय में बताता है | इसके साथ हीं अनेक विषयों के गम्भीर रहस्यों का इसमें उद्घाटन किया गया है। इसमें अनेक बातें ऐसी हैं जो अन्य पुराणों में भी किसी-न-किसी रूप में मिल जाती हैं। किन्तु पद्म पुराण में विष्णु के महत्त्व के साथ शंकर की अनेक कथाओं को भी लिया गया है। शंकर का विवाह और उसके उपरान्त अन्य ऋषि-मुनियों के कथानक तत्व विवेचन के लिए महत्त्वपूर्ण है

कथा

कथा का आरंभ ऋषियों को गुरु उग्रश्रवा द्वारा पद्मपुराण के विषय में बताने से है। वो भीष्म और पुलस्तय ऋषि के मुलाकात प्रकाश डालते हुए शुरू करते हैं - भीष्म गंगा द्वार पर रहा करते थे और एक बार वहां घूमते-घूमते पुलस्त्य पहुंचे तो उन्होंने भीष्म से कहा कि वे ब्रह्मा की आज्ञा से उनके पास आए हैं। यह सुनकर भीष्म ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि वे उन्हें ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि रचना के विषय में विस्तार से बताएँ। तब यह पदम पुराण पुलस्त्य ने भीष्म को सुनाया, और मैं आप लोगों को बताता हूँ
भीष्म ने पुलस्त्य से कहा कि आप सबसे पहले यह बताने की कृपा करें कि ब्रह्मा के मन में संसार रचने की भावना कैसे उत्पन्न हुई ? यह सुनकर ऋषि भीष्म से बोले कि मनुष्य की सभी भाव शक्तियां ज्ञानगम्य और अचिन्त्य है। ब्रह्मा की सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा तो नित्य हैं किन्तु फिर भी सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा को सबसे पहला काल परिमाण स्वरूप बताते हुए पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि साठ घड़ी का मनुष्यों का एक दिन-रात होता है। पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष। पक्ष दो होते हैं शुक्ल और कृष्ण। दोनों पक्षों का एक मास होता है। इसके उपरांत छ: मासों का एक अयन। अनय दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन। इन दोनों अयनों का एक वर्ष होता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन और एक रात होता है और इस तरह एक सहस्र वर्ष के सतयुग त्रेता, द्वापर और कलियुग आदि चार युग होते हैं। इन चार युगों की एक चौकड़ी के परिणाम में ब्रह्मा का एक दिन होता है।

ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। जितने परिमाण के दिन होते हैं उतने ही परिमाण की रात्रि। इस तरह 365 दिन और रात का उनका एक वर्ष होता हैं और ऐसे 500 वर्षों की उनकी अवस्था कही गई है। इस गणना से अब तक उनकी आयु का अभी एक ही वर्ष व्यतीत हुआ है। ऋषि से भीष्म ने पूछा कि आप यह बताने का कष्ट करें कि सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस पर पुलस्त्य जी ने कहा कि बहुत पहले कल्प के अन्त में लोक को शून्य और पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा ने विष्णु का स्मरण किया। विष्णु वराह का रूप धारण करके जल में डूबी हुई पृथ्वी के पास गए और जब पृथ्वी ने भगवान को अपने पास आते हुए देखा तो उनकी उपासना की और अपने उद्धार की प्रार्थना भी की। उन्होंने कहा आपने इससे पहले भी मेरा उद्धार किया है और आज फिर आप मेरा उद्धार कीजिए। यह सुनकर भगवान वराह ने भयंकर गर्जन किया और पृथ्वी पर अनेक द्वीप तथा पहाड़ों की रचना कर दी। इसके बाद उन्होंने ब्रह्मा से प्राकृत, वैकृत और नवविध सृष्टि की रचना करने के लिए कहा। यह सुनकर भीष्म ने इस वर्णन को विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की। तब पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा के मुख से सत्वगुण, वक्ष और जंघाओं से रजोगुण और पैरों से केवल तमोगुण से युक्त प्रजा-सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यही प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाई। इसके बाद यज्ञ की उत्पत्ति और निष्पत्ति के लिए उन्होंने मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित कर दिया। यज्ञों से देवता लोग प्रसन्न और तृप्त होते हैं और मनुष्य भी इसी जीवन में स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। यज्ञ में सिद्धि देने के लिए वर्ण-व्यवस्था बनाई गई है।

ब्रह्मा ने यज्ञादि कर्म करने की दृष्टि से सांसारिक व्यवस्था की और उसके बाद उत्तम रूप से निवास करने की सृष्टि की है। फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों के लिए प्रजापति के इन्द्र के मरुत के और गन्धर्व के लोक बनाए और उन्होंने अनेक प्रकार के अन्धकार और दु:खों को तथा अनेक नरकों को बनाया। जिससे दुष्ट व्यक्ति को दण्ड दिया जा सके। इसके बाद ब्रह्मा ने अपने ही समान नौ-भृगु, पुलस्त्य पुलह, ऋतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ मानव पुत्रों की रचना की। पुराणों में इन नौ ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया, वे लोक में आसक्त नहीं हुए और उन्होंने सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं ली। इन वीतराग महात्माओं के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा के मुख से त्रिलोकी को दग्ध करने वाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचण्ड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुए । ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया।

प्रजापत्य कल्प में भगवान ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्व'यंभु मनु और स्त्री रूप में सतरूपा को प्रकट किया और फिर उसके बाद प्रियव्रत उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया। दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति है। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, भव से सति का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।

इसके बाद भीष्म ने पूछा कि लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में आप मुझे विस्तार से बताइए क्योंकि इस विषय में कथानक है। यह सुनकर पुलस्त्य बोले कि एक बार घूमते हुए दुर्वासा ने अपरूपा विद्याधरी के पास एक बहुत सुन्दर माला देखी। वह गन्धित माला थी। ऋषि ने उस माला को अपने जटाओं पर धारण करने के लिए मांगा और प्राप्त कर लिया। दुर्वासा ने सोचा कि यह माला प्रेम के कारण दी और वे कामातुर हो उठे। अपने काम के आवेग को रोकने के लिए इधर-उधर घूमे और घूमते हुए स्वर्ग पहुंचे। वहां उन्होंने अपने सिर से माला हटाकर इन्द्र को दे दी। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के गले में डाल दिया और उससे वह माला धरती पर गिर गई और पैरों से कुचली गई। दुर्वासा ने जब यह देखा कि उसकी माला की यह दुर्गति हुई तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। जब इन्द्र ने यह सुना तो भयभीत होकर ऋषि के पास आये पर उनका शाप लौट नहीं सकता था। इसी शाप के कारण असुरों ने इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। देवता ब्रह्मा की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट के विषय में कहा।

ब्रह्मा देवताओं को लेकर विष्णु के पास गये और उनसे सारी बात कही तब विष्णु ने देवताओं को दानव से सुलह करके समुद्र मन्थन करने की सलाह दी और स्वयं भी सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से उन्हें लक्ष्मी और अमृत प्राप्त होगा। अमृत पीकर वे अजर और अमर हो जाएंगे। देवताओं ने भगवान विष्णु की बात सुनकर समुद्र मंथन का आयोजन किया। उन्होंने अनेक औषधियां एकत्रित की और समुद्र में डाली। फिर मन्थन किया गया। वासुकी नाग के मुख से निकले हुए जहर से बुझे हुए सांसों से असुरों को कष्ट होने के उपरान्त भी हिम्मत नहीं छोड़ी और फिर सारे रत्न निकले। अमृत कलश देवताओं के हाथ में न आकर असुरों के हाथ में आया किन्तु भगवान ने मोहिनी का रूप धारण करके कलश पर अधिकार कर लिया। मोहिनी ने ऐसा जादू डाला कि दानव पराजित हो गये और देवताओं ने उन्हें हरा कर अपना खोया हुआ वैभव फिर से प्राप्त कर लिया।

इसके बाद पुलस्त्य ने बताया कि यह लक्ष्मी भृगु की भार्या ख्याति के पेट से पैदा हुई। भृगु और विष्णु का विवाद बहुत पुराना है। मुनि ने बताया कि लक्ष्मी ने अपनी कुमारी अवस्था में एक पुर की स्थापना की थी और विवाह के बाद वह अपने पिता को दे दिया। विवाह के बाद लक्ष्मी ने जब अपनी सम्पत्ति मांगी तो भृगु ने उसे नहीं लौटाया। इस पर लक्ष्मी के पति विष्णु ने सम्पत्ति लौटाने की प्रार्थना की। भृगु ने भगवान विष्णु की भर्त्सना की और कहा कि जब वे धरती पर उत्पन्न होंगे तब नारी के सुख से वंचित रहेंगे।

यह सुनकर भीष्म ने कहा कि आप मुझे सूर्य वंश का विवरण बताइए। तब पुलस्त्य ने सूर्य वंश का विवरण बताते हुए कहा कि वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। मनु ने ज्येष्ठ पुत्र इल को राज्य पर अभिषिक्त किया और स्वयं तप के लिए वन को चले गये। इल अर्थसिद्धि के लिए रथारूढ़ होकर निकले। वह अनेक राजाओं को बाधित करता हुआ भगवान शम्भु के क्रीड़ा उपवन की ओर जा निकले। उपवन से आकृष्ट होकर वह अपने अश्वारोहियों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गये। पार्वती द्वारा विदित नियम के कारण इल और उसके सैनिक तथा अश्वादि स्त्री रूप हो गए। यह स्थिति देखकर इल ने पुरुषत्व के लिए भगवान शंकर की स्तुति आराधना की। भगवान शंकर प्रसन्न तो हुए परन्तु उन्होंने इल को एक मास स्त्री और एक मास पुरुष होने का विधान किया।

स्त्री रूप में इस इल के बुध से पुरुरवा नाम वाले एक गुणी पुत्र का जन्म हुआ। इसी इल राजा के नाम से ही यह प्रदेश 'इलावृत्त' कहलाया। इसी इल के पुरुष रूप में तीन उत्कल गये और हरिताश्व-बलशाली पुत्र उत्पन्न हुए। वैवस्वत मनु के अन्य पुत्रों में से नष्यिन्त का शुक्र, नाभाग का अम्बरीष, धृष्ट के धृष्टकेतु, स्वधर्मा और रणधृष्ट, शर्याति का आनर्त पुत्र और सुकन्या नाम की पुत्री आदि उत्पन्न हुए। आनर्त का रोचिमान् नामक बड़ा प्रतापी पुत्र हुआ। उसने अपने देश का नाम अनर्त रखा और कुशस्थली नाम वाली पत्नी से रेव नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस रेव के पुत्र रैवत की पुत्री रेवती का बलराम से विवाह हुआ।

मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। राजा सगर के दो स्त्रियां थीं-प्रभा और भानुमति। प्रभा ने और्वाग्नि से साठ हजार पुत्र और भानुमति केवल एक पुत्र की प्राप्ति की जिसका नाम असमंजस था। यह कथा बहुत प्रसिद्ध है कि सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से पाताल लोक में भस्म हो गए थे और फिर असमंजस की परम्परा में भगीरथ ने गंगा को मनाकर अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इस तरह सूर्य वंश के अन्तर्गत अनेक यशस्वी राजा उत्पन्न हुए।

भीष्म ने आगे पूछा कि मेरे अन्य पितरों के विषय में बताने की कृपा करें। इसके उत्तर में पुलस्त्य बोले कि स्वर्ग में सात पितृगण हैं-चार मूर्तिक और तीन अमूर्तिक। इनका निवास दक्षिण दिशा में माना गया है। इन पितरों का संतानों के द्वारा उचित श्राद्ध होना चाहिए। श्राद्ध के तीन प्रकार बताये गये हैं, नित्य नैमित्तिक और काम्य। श्राद्ध करने वाले को चाहिए कि वह किसी वेद को जानने वाले जितेन्द्रिय ब्राह्मण को आमन्त्रित करे और दक्षिण की तरफ मुंह करके श्राद्ध कर्म के बाद ब्राह्मण को भोजन कराए फिर उसके बाद सुन्दर वस्त्रों से सज्जित गाय या पृथ्वी (भूमि) का उदारता पूर्वक दान करें। श्राद्ध के लिए महत्वपूर्ण दिन चैत्र व भाद्र तृतीया, आश्विन की नवमी, कार्तिक शुक्ल नवमी, आषाढ़ की दसवीं, श्रावण की अष्टमी, महत्वपूर्ण है। तीर्थों में किया गया श्राद्ध विशेष फल देने वाला होता है।

इसके उपरांत भीष्म ने पुलस्त्य के चन्द्रवंश के प्रतापी राजाओं के विषय में जानना चाहा। यह सुनकर पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा ने अत्रि को सृष्टि-रचना का आदेश दिया तो उन्होंने तपस्या की। उनकी आँखों से जल बहने लगा। जिसे ग्रहण करके दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज सहन न करने के कारण दिशाओं ने उन्हें त्याग दिया। ब्रह्मा उस बालक को रथ पर बैठाकर ले गये। उसी का नाम चन्द्र पड़ा और औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया। चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।

उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था। बुद्ध से इला के गर्भ से पुरुरवा ने जन्म लिया। पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाये। रजि ने विष्णु को प्रसन्न करके देव असुर और मनुष्यों पर विजय पाने की शक्ति ले ली। देवताओं ने इसकी सहायता से असुरों पर विजय प्राप्त की और रजि ने इन्द्र को ही अपना पुत्र समझकर उसे राज्य दे दिया। और वन में चला गया। लेकिन बाद में रजि के अन्य पुत्रों ने अपना राज्य छीन लिया जब इन्द्र ने गुरु बृहस्पति से इसकी शिकायत की तो उन्होंने रजि के पुत्रों को धर्मभ्रष्ट होने का शाप दिया। जिससे फिर इन्द्र ने उनकी हत्या कर दी।

आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।

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